सुप्रीम कोर्ट ने हेट स्पीच की बात करके देश की दुखती नब्ज़ पर हाथ रखा है, लेकिन जहां तक उसके 'केंद्र के मूकदर्शक बने बैठने' वाले सवाल की बात है, तो यह पूछने वाले को भी पता है और देश भी जानता है कि ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि सरकार व उसे चला रही पार्टी ही हेट स्पीच की सबसे बड़ी लाभार्थी हैं.
विभिन्न टीवी चैनलों पर नफ़रत फैलाने वाले भाषणों को लेकर नाराज़गी जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि उसे ‘मूक दर्शक’ बने रहने की बजाय इस समस्या से निपटने के बारे में सोचना चाहिए.
ऑल्ट न्यूज़ के सह-संस्थापक मोहम्मद ज़ुबैर की गिरफ़्तारी का उल्लेख करते हुए दिल्ली के सात मीडिया संगठनों ने कहा कि सरकार का पत्रकारों को निशाना बनाना पूरे पेशे के भविष्य के लिए ख़तरनाक है.
साक्षात्कार: हाल ही में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित फिलीपींस की पत्रकार मारिया रेसा की वेबसाइट रैपलर को वहां की सरकार ने बंद करने का आदेश दिया है. द वायर की सीनियर एडिटर आरफ़ा ख़ानम शेरवानी से बातचीत में मारिया ने कहा कि पत्रकारों को लोगों को यह बताने की ज़रूरत है कि अगर वे आज अपने अधिकारों के लिए नहीं लड़ते हैं, तो वे इन्हें हमेशा के लिए गंवा देंगे.
26 जनवरी 2021 को नई दिल्ली में कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे एक प्रदर्शनकारी की मौत संबंधी रिपोर्ट के सिलसिले में यूपी पुलिस द्वारा द वायर, इसके संपादक सिद्धार्थ वरदराजन और रिपोर्टर इस्मत आरा पर दर्ज एफआईआर ख़ारिज करते हुए अदालत ने कहा कि ख़बर में किसी तरह का कोई उकसावा नहीं था.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन बी. लोकुर ने राजद्रोह क़ानून को लेकर शीर्ष अदालत के हालिया आदेश को महत्वपूर्ण बताया और कहा कि इस क़ानून में कुछ अपवाद थे जहां राजद्रोह के आरोप लागू नहीं किए जा सकते पर यूएपीए की धारा 13 के तहत कोई अपवाद नहीं हैं. यदि यह प्रावधान बना रहता है, तो यह बद से बदतर स्थिति में जाने जैसा होगा.
भारत में मानवाधिकारों की स्थिति पर अमेरिकी विदेश विभाग की 'कंट्री रिपोर्ट्स ऑन ह्यूमन राइट्स' रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में ऐसे भी मामले देखे गए हैं, जहां विशेष रूप से पत्रकारों को उनके पेशेवर काम के लिए निशाना बनाया गया या उनका क़त्ल कर दिया गया.
द वायर या इसके संपादकों को इस अदालती कार्यवाही के बाबत कोई नोटिस नहीं मिला था, न ही उन्हें किसी अन्य माध्यम से इसकी जानकारी दी गई.
पिछले वर्ष कोविड-19 फैलने के बाद से संसद सत्र के दौरान प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से बहुत सीमित संख्या में पत्रकारों, फोटो पत्रकारों, कैमरामैन को संसद परिसर में प्रवेश की अनुमति दी जा रही है. दूसरी ओर कर्नाटक विधानसभा में प्रवेश पर लगे कथित प्रतिबंध के ख़िलाफ़ मीडियाकर्मियों ने विरोध प्रदर्शन किया है.
पुलिस द्वारा यह कार्रवाई कठोर यूएपीए क़ानून के तहत पिछले साल दर्ज एक मामले को लेकर की गई है, जो कश्मीर के पत्रकारों व कार्यकर्ताओं को जान से मारने की धमकी से जुड़ा हुआ है.
जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि इस तरह एफआईआर दर्ज करना पत्रकार को ‘चुप कराने’ का तरीका था. पत्रकार की एक रिपोर्ट 19 अप्रैल 2018 को जम्मू के एक अख़बार में प्रकाशित हुई थी, जो एक व्यक्ति को पुलिस हिरासत में प्रताड़ित करने से संबंधित थी. इसे लेकर पुलिस ने उन पर केस दर्ज किया था.
‘द शिलॉन्ग टाइम्स’ की संपादक पेट्रीसिया मुखिम और ‘कश्मीर टाइम्स’ की मालिक अनुराधा भसीन ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए (राजद्रोह) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता के अधिकार को ‘परेशान करने के साथ ही बाधित करना’ जारी रखेगी. पत्रकारों ने कहा है कि औपनिवेशिक समय के दंडात्मक प्रावधान का इस्तेमाल पत्रकारों को डराने, चुप कराने और दंडित करने के लिए किया जा रहा है.
वीडियो: हमारा संविधान की इस कड़ी में अधिवक्ता अवनि बंसल संविधान के अनुच्छेद 19 में शामिल प्रेस की स्वतंत्रता और असहमति के अधिकार के बारे में जानकारी दे रही हैं. असहमति का अधिकार भी अभिव्यक्ति के अधिकार का अभिन्न अंग है. इसलिए सभी नागरिकों को ये अधिकार है कि वो सरकार की नीतियों पर अपनी बात खुलकर कह सके और उसे लोगों तक पहुंचा सके.
जनतंत्र को अपने ठेंगे पर रखे घूम रहे लठैतों के इस दौर में 46 साल पहले के आपातकाल के 633 दिनों पर खूब हायतौबा मचाइए, मगर पिछले 2,555 दिनों से भारतमाता की छाती पर चलाई जा रही अघोषित आपातकाल की चक्की के पाटों को नज़रअंदाज़ मत करिए.
26 जनवरी की ट्रैक्टर परेड के दौरान जान गंवाने वाले एक प्रदर्शनकारी के परिवार के दावों को लेकर द वायर की इस्मत आरा ने एक रिपोर्ट लिखी थी, जिसे ट्विटर पर साझा करने के बाद द वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के ख़िलाफ़ रामपुर में एफ़आईआर दर्ज की गई थी.