कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: धर्म का छद्म करती विचारधारा ‘हिंदुत्व’ कहलाती है. उसके प्रभाव में भारतीय समाज जितना सांप्रदायिक धर्मांध और हिंसक आज है उतना पहले कभी नहीं हुआ.
पुस्तक-समीक्षा: शिवमूर्ति के 'अगम बहै दरियाव' को आंचलिक उपन्यास के खांचे में रखकर देखना उसे न्यून करना होगा. इसे एक सामाजिक-राजनीतिक समझ पैदा करने वाला संवेदनशील उपन्यास माना जाना चाहिए, जिसे इसके नायकों- किसानों और मजदूरों, दलित-पिछड़ों-स्त्रियों- के त्रासद संघर्ष के रूप में पिरोकर बयां किया गया है.
पुण्यतिथि विशेष: कुंवर नारायण का जन्म अयोध्या के उस हिस्से में हुआ था, जिसे तब फ़ैज़ाबाद कहा जाता था. उनके बारे में कहा जाता है कि वे अनुपस्थित रहकर हमारे बीच ज्यादा उपस्थित रहेंगे, पर अपनी जन्मभूमि में उनकी किंचित भी ‘उपस्थिति’ नहीं दिखाई देती.
मार्क्सवादी मुक्तिबोध के लिए आत्म-संशोधन हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है. ज़ाहिर है, यह संशोधन सबके बस की बात नहीं और जो इंसान इससे गुजरता है, वह मामूली नहीं.
पुस्तक अंश: दारा ने इस्लाम का गहरा अध्ययन किया था. उनकी किताबें अल्लाह और मुहम्मद साहब का उल्लेख करती हैं, लेकिन उन्हें विधर्मी और काफ़िर घोषित कर उनकी हत्या कर दी गई.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: वेद हमारे प्रथम काव्यग्रंथ हैं. ‘स्वस्ति’ शीर्षक से रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत सेतु प्रकाशन से प्रकाशित ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 112 सूक्तों का कवि-विद्वान मुकुंद लाठ द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद इसका प्रमाण है.
कला हो या जीवन दोनों ही बस अंततः सफल हो जाने वाले नायकों के गुणगान गाते हैं. मंज़ूर एहतेशाम की कहानी ‘तमाशा’ इसके विपरीत संघर्षों में बीत जाने वाले जीवन की कहानी है, बिना किसी परिणाम की प्राप्ति के.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पांचेक दशक पहले गुंडई को अनैतिक माना जाता था और समाज में उसकी स्वीकृति नहीं थी. आज हम जिस मुक़ाम पर हैं उसमें गुंडई को लगभग वैध माना जाने लगा है- उस पर न तो ज़्यादातर राजनीतिक दल आपत्ति करते हैं, न ही मीडिया.
हिंंदी पखवाड़े के अंतर्गत हमने हिंदी की कुछ लेखिकाओं से हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श को लेकर परिचर्चा की. उनके जवाब हिंंदी साहित्य में
स्त्री की उपस्थिति की मुकम्मल तस्वीर बनाते हैं, नये प्रश्न भी दे जाते हैं.
आज कुंवर नारायण की जन्म तिथि है. पढ़िए कलाकार सीरज सक्सेना का यह खूबसूरत निबंध जो उन्होंने अपने चित्रों और कुंवर नारायण की कविताओं से बुना है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बोलने वालों की संख्या के आधार पर हिंदी संसार की पांच बड़ी भाषाओं में एक है. पर ज्ञान, परिष्कार, विपुलता आदि के कोण से देखें तो तथ्य यह है कि हिंदी, चीनी या जापानी या कोरियाई की तरह ज्ञान-विज्ञान की भाषा नहीं है, न उस ओर अग्रसर ही है.
वीडियो: हिंदी साहित्य में आलोचना विधा में चंद स्त्रियों के नाम ही सामने आते है, साथ ही उनकी आलोचना का दायरा समकालीन लेखिकाओं को बमुश्किल ही छूता है. इसकी क्या वजह है? वरिष्ठ आलोचक डॉ. रश्मि रावत और युवा समीक्षक अदिति भारद्वाज के साथ चर्चा कर रही हैं मीनाक्षी तिवारी.
अपूर्णता का एहसास मनुष्य के होने का सबूत है. समस्त प्राणी जगत में एकमात्र मनुष्य है जिसे अपने अधूरेपन का एहसास है. यह उसे अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने की प्रेरणा देता है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मुक्तिबोध मनुष्य के विरुद्ध हो रहे विराट् षड्यंत्र के शिकार के रूप में ही नहीं लिखते, बल्कि वे उस षड्यंत्र में अपनी हिस्सेदारी की भी खोज कर उसे बेझिझक ज़ाहिर करते हैं. इसीलिए उनकी कविता निरा तटस्थ बखान नहीं, बल्कि निजी प्रामाणिकता की कविता है.
जन्मदिन विशेष: आलोचक नंदकिशोर नवल प्रथमतः और अंततः साहित्य की दुनिया के वासी थे. वही उनका ओढ़ना-बिछौना था. कहा करते थे कि आप किसी के क़रीब जाने पर उसकी गंध से जान सकते हैं कि वह साहित्य का आदमी है या नहीं. उन्हें याद करते हुए इस गंध को महसूस किया जा सकता है.