प्रेम की तरह कविता भी अपना समय रचती है…

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: महान कविता महान साम्राज्यों के लोप के बाद भी बची रहती है. हमारा समय भयानक है, हिंसा-हत्या-घृणा-फ़रेब से लदा-फंदा; समरसता को ध्वस्त करता; विस्मृति फैलाने और संस्कृति को तमाशे में बदलता समय; ऐसे समय में कविता का काम बहुत कठिन और जटिल हो जाता है.

दिल्ली पुलिस प्रमुख ने एफ़आईआर में जटिल उर्दू या फ़ारसी शब्दों का इस्तेमाल न करने का आदेश दिया

दिल्ली पुलिस कमिश्नर ने एक आदेश जारी कर पुलिस कर्मचारियों को एफ़आईआर, डायरी या चार्जशीट दर्ज करते समय जटिल उर्दू और फ़ारसी शब्दों की जगह सरल शब्दों का प्रयोग करने के लिए कहा है. कहा गया है कि निर्देशों का पालन न करने को गंभीरता से लिया जाएगा और उचित अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी.

‘सुंदर के स्वप्न’ हिंदी साहित्य के इतिहास में एक ज़रूरी हस्तक्षेप है

पुस्तक समीक्षा: 'सुंदर के स्वप्न' संत सुंदरदास के जीवन और रचनाओं के ज़रिये भारत की आरंभिक आधुनिकता, उसकी बहु-धार्मिकता और बहु-भाषिकता, हिंदी साहित्य के इतिहास और उसके काल-विभाजन तथा रीतिकाल को लेकर किए गए दुष्प्रचार पर सोचने पर विवश करती है.

आवाज़ों का तुमुल कोलाहल लगातार बढ़ रहा है पर आवाज़ की जगहें कम हो रही हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यह बहुत असाधारण समय है तो ऐसे में नागरिकता के कर्तव्य भी असाधारण होते हैं. ऐसे में हमारी सभ्यता का तकाज़ा है कि हम तरह-तरह से आवाज़ उठाएं, चुप न रहें. व्यापक जीवन, स्वतंत्रता-समता-न्याय के संवैधानिक मूल्यों, समरसता के पक्ष में और घृणा-हिंसा-हत्या-झूठ-अन्याय के विरुद्ध.

पहाड़ों में दलित और स्त्रियों की स्थिति: ‘असल ग़ुलामी राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक है’

वीडियो: उत्तराखंड के पिथौरागढ़ ज़िले के गंगोलीहाट से संबंध रखने वाले कवि और पेशे से वेटनरी डॉक्टर मोहन मुक्त से उनके कविता संग्रह ‘हिमालय दलित है’ के विशेष संदर्भ में उनके रचनात्मक सरोकार, काव्य-भाषा, पहाड़ों में दलित एवं स्त्री के सवाल और मुस्लिम समाज एवं पसमांदा मुस्लिम समाज के हालात पर बातचीत.

मेघालय: राज्यपाल के हिंदी में भाषण देने पर विपक्षी विधायकों ने सदन छोड़ा

मेघालय विधानसभा के बजट सत्र के दौरान राज्यपाल फागू चौहान के हिंदी में अभिभाषण के विरोध में विपक्षी दल वॉइस ऑफ पीपुल्स पार्टी के चार विधायक सदन छोड़कर चले गए. उन्होंने कहा कि यह जनता की भावनाओं के ख़िलाफ़ है और वे राज्यपाल के उन्हें समझ में न आने वाली भाषा में भाषण देने की निंदा करते हैं.

‘असद बज़्मे-तमाशा में, तग़ाफ़ुल पर्दादारी है’

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ग़ालिब ने अपनी शायरी का आलम घर, आग, तमाशे, ग़मेहस्ती, नाउम्मीदी, तमन्ना, बियाबान और उरियानी से रचा-गढ़ा. दिगंबरता को याने उरियानी को उनके यहां जैसे बरता गया है वह पश्चिमी न्यूडिटी की अवधारणा से बिल्कुल अलग है.

सुरेश सलिल: नदी भूमिगत हो गई, स्मृति बची है, मित्र…

स्मृति शेष: बीते 22 फरवरी को प्रसिद्ध कवि, अनुवादक और संपादक सुरेश सलिल का निधन हो गया. विश्व साहित्य के हिंदी अनुवाद के साथ-साथ उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी की रचनावली के संपादन का महत्वपूर्ण काम किया था.

गोरख पांडे: इस दुनिया को जितनी जल्दी संभव हो, बदल देना चाहिए…

पुण्यतिथि विशेष: गोरख पांडे कहते थे कि उनके लिए कविता और प्रेम ही दो ऐसी चीजें थीं, जहां व्यक्ति को मनुष्य होने का बोध होता है. भावनाओं को वे अस्तित्व की निकटतम अभिव्यक्ति मानते थे.

संस्कृत को देश की आधिकारिक भाषा क्यों नहीं बनाया जा सकता: पूर्व सीजेआई एसए बोबडे

संस्कृत भारती द्वारा आयोजित अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन में देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे ने अदालतों में संस्कृत इस्तेमाल करने की बात करते हुए कहा कि संस्कृत को आधिकारिक भाषा बनाने का किसी धर्म से कोई लेना-देना नहीं है.

हिंदी थोपे जाने के ख़िलाफ़ हमारा संघर्ष जारी रहेगा: एमके स्टालिन

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने राज्य में हिंदी विरोधी आंदोलन के दौरान जान गंवाने वालों के सम्मान में आयोजित ‘भाषा शहीद दिवस’ में केंद्र पर बेशर्मी से हिंदी थोपने का आरोप लगाते हुए कहा कि हम किसी भाषा के दुश्मन नहीं हैं. अपने हित के लिए कोई कितनी भी भाषाएं सीख सकता है, पर हम थोपे जाने के किसी भी क़दम का विरोध करेंगे.

हैदराबाद: उस्मानिया यूनिवर्सिटी में उर्दू विभाग की बदहाली की क्या वजह है?

विभिन्न विषयों के लिए उर्दू को शिक्षा के माध्यम के तौर पर अपनाने के लिए ख्यात हैदराबाद की उस्मानिया यूनिवर्सिटी ने बीते दिनों पीएचडी प्रवेश परीक्षा आयोजित की थी, जिसमें उर्दू को छोड़ दिया गया. जहां इसके लिए एक ओर विभाग में स्थायी शिक्षक न होने की बात कही जा रही है, वहीं ख़बरों में राज्य सरकार की उदासीनता को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है.

हिंदी और उसके साहित्य की विडंबनाएं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: विडंबना मनुष्य मात्र की स्थिति का अनिवार्य अंग है, कोई समाज विडंबनाओं में फंसा हो, तो यह अस्वाभाविक नहीं है. हिंदी के सिलसिले में कहूं, तो इस अंचल में जैसे-जैसे शिक्षा, साक्षरता का प्रसार हुआ है वैसे-वैसे उसमें सांप्रदायिकता, धर्मांधता, जातिमूलक कट्टरता भी साथ-साथ बढ़ती गई.

आज हिंदी मध्यवर्ग का असली राजनीतिक प्रतिपक्ष हिंदी साहित्य ही है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: आम तौर पर मध्यवर्ग में प्रवेश ज्ञान के आधार पर होता आया है पर यही वर्ग इस समय ज्ञान के अवमूल्यन में हिस्सेदार है. एक ओर तो वह अपनी मातृभाषा से लगातार विश्वासघात कर रहा है, दूसरी ओर हिंदी को हिंदुत्व की, यानी भेदभाव और नफ़रत फैलाने वाली विचारधारा की राजभाषा बनाने पर तुला है.

क्या ग़ैर हिंदुओं के बारे में न जानकर हिंदू सांस्कृतिक रूप से समृद्ध हैं या दरिद्र

आज के भारत में ख़ासकर हिंदुओं के लिए ज़रूरी है कि वे ग़ैर हिंदुओं के धर्म, ग्रंथों, व्यक्तित्वों, उनके धार्मिक आचार-व्यवहार को जानें. मुसलमान, ईसाई, सिख या आदिवासी तो हिंदू धर्म के बारे में काफ़ी कुछ जानते हैं लेकिन हिंदू प्रायः इस मामले में सिफ़र होते हैं. बहुत से लोग मोहर्रम पर भी मुबारकबाद दे डालते हैं. ईस्टर और बड़ा दिन में क्या अंतर है? आदिवासी विश्वासों के बारे में तो हमें कुछ नहीं मालूम.