स्वतंत्रता एक बार मिल गई स्थिति नहीं है; उसे लगातार समृद्ध करना और बचाना होता है

कभी कभार | अशोक वाजपेयी: स्वतंत्रता के अर्थ में बदलते परिवेश और समय के अनुसार कई और अर्थ जुड़ते रहे. अगर आज विचार करें तो लगेगा कि इस समय का अर्थ प्रमुख रूप से यह है कि हम झूठ-नफ़रत-हिंसा की मानसिकता और राजनीति की ग़ुलामी करने से मुक्त रहें.

‘आज़ादी के सात दशकों में उन सिद्धांतों पर काम नहीं किया गया जिनके बल पर देश आज़ाद हुआ था’

साक्षात्कार: इतिहासकार, शिक्षाविद और नारीवादी उमा चक्रवर्ती देश की आज़ादी के समय छह साल की थीं. शिक्षा, समाज सेवा, फिल्म निर्माण जैसे क्षेत्रों में व्यापक काम कर चुकीं उमा का कहना है कि आज धर्म के आधार पर हो रही लिंचिंग, दंगे आदि स्वतंत्रता आंदोलन और उससे जुड़े वादों के साथ धोखा हैं.

निरंतर विभाजित किए जा रहे भारत में ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ का आयोजन पाखंड है

‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ को राजनीतिक एजेंडा कहना ज़्यादा बेहतर है. जहां इसके सरकारी आयोजन से जुड़ी प्रदर्शनी की सामग्री में विभाजन की त्रासदी में मुसलमानों से जुड़ा कोई दुखद पहलू प्रदर्शित नहीं किया गया है, वहीं आयोजक अतिथियों को 'अखंड भारत' के नक़्शे वाले स्मृति चिह्न भेंट करते दिखे.

आज देश में स्वतंत्रता बची है या महज़ स्वतंत्रता का धोखा?

समानता के बिना स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के बिना समानता पूरी नहीं हो सकती. बाबा साहब आंबेडकर का भी यही मानना था कि अगर राज्य समाज में समानता की स्थापना नहीं करेगा, तो देशवासियों की नागरिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रताएं महज धोखा सिद्ध होंगी.

15 अगस्त 1947 के भारत के मुक़ाबले आज देश कहीं अधिक विभाजित है

हिंदुस्तान में जगह-जगह दरारें पड़ रही हैं या पड़ चुकी हैं. यह कहना बेहतर होगा कि ये दरारें डाली जा रही हैं. पिछले विभाजन को याद करने से बेहतर क्या यह न होगा कि हम अपने वक़्त में किए जा रहे धारावाहिक विभाजन पर विचार करें और उसे रोकने को कुछ करें? 

अब देशभक्ति के नए संस्करण में संवैधानिक मूल्य और लोकतंत्र में निष्ठा शामिल नहीं है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जिन मूल्यों को हमारे संविधान ने हमारी परंपराओं, स्वतंत्रता-संग्राम की दृष्टियों और आधुनिकता आदि से ग्रहण, विन्यस्त और प्रतिपादित किया था वे मूल्य आज धूमिल पड़ रहे हैं. स्वतंत्रता-समता-न्याय-भाईचारे के मूल्य सभी संदेह के घेरे में ढकेले जा रहे हैं.

बुद्धि-आधारित समाज बनाना तो दूर, सारी कोशिश बुद्धि व विवेक शून्य समाज बनाने की है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: देश में घृणा, परस्पर अविश्वास, भेदभाव, अन्याय, झूठ, अफ़वाह सभी में अद्भुत विस्तार हुआ है. राजनीति, मीडिया, धर्म, सामाजिक आचरण सभी मर्यादाहीन होने में कोई संकोच नहीं करते. राजनीति की सर्वग्रासिता, सार्वजनिक ओछापन-टुच्चापन लगभग अनिवार्य माने जाने लगे हैं. 

‘इंडिपेंडेंस’ विभाजन की पृष्ठभूमि में इतिहास और कल्पना का सामंजस्य बिठाने में सफल हुई है

पुस्तक समीक्षा: विभाजन-साहित्य उन असंख्य लोगों का इतिहास है, जिसे शासकीय ब्योरों में भुला दिया गया. चित्रा बनर्जी दिवाकरुनी का उपन्यास 'इंडिपेंडेंस' इसी कड़ी में एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ता है, जहां राष्ट्रों के जन्म, विभाजन की हिंसा, उपद्रव और इसके प्रभावों को आम स्त्रियों की दृष्टि से देखा गया है.

कंगना ने जो कहा वो उनका विचार है या वो महज़ ज़रिया हैं

कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हज़ार भुजाएं और हज़ार-हज़ार मुंह हैं. इन 'हज़ार-हज़ार मुंहों' में भाजपा सांसद वरुण गांधी को छोड़ दें तो कंगना के मामले पर चुप्पी को लेकर गज़ब की सर्वानुमति है. फिर इस नतीजे तक क्यों नहीं पहुंचा जा सकता कि कंगना का मुंह भी उन हज़ार मुंहों में ही शामिल है?

कंगना रनौत: हिंदुत्व की पोस्टर गर्ल

वीडियो:  बीते दिनों अभिनेत्री कंगना रनौत ने एक साक्षात्कार में दावा किया कि भारत को ‘1947 में आज़ादी नहीं, बल्कि भीख मिली थी’ और ‘आज़ादी 2014 में मिली है’, जब नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई. पहले भी विवादास्पद बयान देती रहीं कंगना के इस बयान से एक बार फ़िर नया विवाद खड़ा हो गया है.

कंगना रनौत के ‘2014 में मिली आज़ादी’ बयान पर विवाद, वरुण गांधी बोले- पागलपन कहें या देशद्रोह

कंगना रनौत ने एक चैनल के कार्यक्रम में कहा कि भारत को ‘1947 में आज़ादी नहीं, बल्कि भीख मिली थी’ और ‘आज़ादी 2014 में मिली है' जब नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई. भाजपा सांसद वरुण गांधी समेत कई नेताओं ने इसकी आलोचना की है. कई दलों ने कंगना के ख़िलाफ़ मामला दर्ज करने की मांग उठाई है.

लोकतंत्र और आज़ादी के असल मायने आदिवासी समाज से सीखने होंगे

विश्व आदिवासी दिवस: आदिवासियों की अपनी बोलचाल की भाषा और आम चर्चा में लोकतंत्र या आज़ादी शब्द का कोई स्थान नहीं है. किसी आदिवासी से इन शब्दों के बारे में पूछें तो वो शायद चुप रहे, लेकिन इसके असली मायने का एहसास उन्हें स्वाभाविक रूप से है.

भारत जैसे देश में सिर्फ़ संविधान की सीमाओं में रहकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं

आज़ादी के इतिहास को देखने पर यह पता चलता है कि तत्कालीन नेताओं ने आज़ादी को प्राप्त करने हेतु अपने-अपने मार्गों पर चलने का कार्य किया परंतु एक मार्ग पर चलने वाले ने दूसरे मार्ग पर चलने वाले नेताओं को कभी भी राष्ट्रद्रोही नहीं कहा.

भगत सिंह और नेहरू को लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने जो बोला है, वो ग़लत नहीं बल्कि झूठ है

नेहरू से लड़ते-लड़ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चारों तरफ नेहरू का भूत खड़ा हो गया. नेहरू का अपना इतिहास है. वो किताबों को जला देने और तीन मूर्ति भवन के ढहा देने से नहीं मिटेगा. यह ग़लती ख़ुद मोदी कर रहे हैं.

गांधी का वो उपवास, जो उनके लिए आख़िरी साबित हुआ

वीडियो: आज़ादी के बाद भारत में ख़ूनखराबे का सिलसिला जारी था. इसके विरोध में गांधीजी ने अपना आख़िरी उपवास 13 जनवरी 1948 को शुरू किया था. इस घटना पर इतिहासकार दिलीप सिमीओन से चर्चा कर रहे हैं दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. अपूर्वानंद.