अगर लोक ही नहीं चाहता कि लोकतंत्र बचे और सशक्त हो, तो उसे कौन बचा सकता है?

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यह बेहद चिंता की बात है कि ज़्यादातर लोग लोकतंत्र में सत्तारूढ़ शक्तियों द्वारा हर दिन की जा रही कटौतियों या ज़्यादतियों को लेकर उद्वेलित नहीं हैं और उन्हें नहीं लगता कि लोकतंत्र दांव पर है. स्थिति यह है कि लगता है कि लोक ही लोकतंत्र को पूरी तरह से तंत्र के हवाले कर रहा है.

हबीब तनवीर के रंगमंच में साधारण की महिमा का रंगसंसार प्रगट होता है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हबीब तनवीर का रंगमंच असाधारण रूप से गाता-नाचता-भागता-दौड़ता रंगमंच था. प्रश्नवाचक और नैतिक होते हुए भी वह आनंददायी था. उनके यहां नाटक लीला है और कई बार वह आधुनिकता की गुरुगंभीरता को मुंह चिढ़ाता भी लगता है.

कुमार गंधर्व की जीवन कथा संघर्ष और लालित्य की कथा है…

कुमार गंधर्व पर ध्रुव शुक्ल द्वारा लिखित 'वा घर सबसे न्यारा' संभवतः पहली ऐसी हिंदी किताब है जो उनके जीवन, गायकी, परंपरा और संपूर्ण व्यक्तित्व की बात एक जुदा अंदाज़ में करती है.

कुमार गंधर्व: उनका संगीत बहुत सारी अंतर्ध्वनियों से बुना गया संगीत था…

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कुमार गंधर्व के यहां सौंदर्य और संघर्ष का द्वैत ध्वस्त हो जाता है: वहां संघर्ष है तो सौंदर्य के लिए ही और संघर्ष का अपना सौंदर्य है. उनका सांगीतिक व्यवहार और उनकी सौंदर्य दृष्टि को कई युग्मों के बीच एक अविराम प्रवाह की तरह देखा जा सकता है.

आने वाली नस्लें हम पर रश्क करेंगी कि हमने किशोरी अमोनकर को देखा था

अमोनकर में एक खास कैफ़ियत थी, जिसे समझाया नहीं जा सकता. इसे हम करिश्मा कहते हैं. आप इसे महसूस तो कर सकते हैं, लेकिन इसे समझ या समझा नहीं सकते.