महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के 15 राज्यों के सैकड़ों मज़दूर दिल्ली के जंतर मंतर पर प्रदर्शन कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि जब वे समय पर मज़दूरी की मांग करते हैं तो उन्हें काम नहीं मिलता. साथ ही कार्यस्थल पर किसी मज़दूर के घायल हो जाने या उसकी मृत्यु हो जाने पर मुआवज़ा तक नहीं दिया जाता.
मनरेगा पोर्टल पर उपलब्ध आंकड़ों से पता चला है कि सितंबर महीने में 2.07 करोड़ परिवारों ने इस योजना का लाभ उठाया, जो 2020 में इसी महीने की तुलना में 3.85 फीसदी अधिक है और पिछले गैर-कोविड साल सितंबर 2019 की तुलना में यह 72.30 फीसदी तक अधिक है.
कम वेतन में कड़ी मेहनत करने वाले नरेगा श्रमिकों के लिए जटिल केंद्रीकृत भुगतान प्रणाली दुस्वप्न साबित हुई है. केंद्र को चाहिए कि वह ऐसा सरल, विकेंद्रीकृत तंत्र बनाए जिसमें भुगतानों को मंज़ूरी और भुगतान प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में ग्राम पंचायतों की अहम भूमिका हो. ऐसा तंत्र नरेगा में और अधिक जवाबदेही को बढ़ावा देगा.
ग्रामीण विकास मंत्रालय की सोशल ऑडिट यूनिट द्वारा साल 2017-18 से 2020-21 के दौरान 2.65 लाख ग्राम पंचायतों का सोशल ऑडिट किया गया था, जिसके ज़रिये इस वित्तीय हेराफेरी का पता चला है. इसमें से महज़ एक फीसदी से अधिक यानी कि करीब 12.5 करोड़ रुपये ही वसूल किए जा सके हैं.
मुख्यमंत्री विजय रुपाणी द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि श्रमिक शहरों में जितना कमा रहे थे, उसके मुकाबले मनरेगा की दिहाड़ी काफी कम है, इसके बावजूद कोविड-19 से उत्पन्न संकट के दौरान यह उनके और उनके परिवार के पालन-पोषण में मददगार रही है.
माकपा पोलित ब्यूरो की सदस्य बृंदा करात ने केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को भेजे एक पत्र में केंद्र की ओर से राज्यों को भेजे गए उस परामर्श के पीछे की मंशा को लेकर सवाल खड़े किए, जिसमें कहा गया है कि मनरेगा के तहत अनुसूचित जाति-जनजाति व अन्य के लिए मज़दूरी के भुगतान को अलग-अलग श्रेणियों में रखा जाए.
बीते साल अप्रत्याशित तरीके से लागू लॉकडाउन के चलते करोड़ों दिहाड़ी मज़दूर अपने गांव लौटने को मजबूर हुए थे, जहां ग्रामीण रोजगार योजना मनरेगा उनकी आजीविका का एकमात्र ज़रिया बनी. आंकड़े दर्शाते हैं कि इससे पहले 2013-14 से 2019-20 के बीच 6.21 से 7.88 करोड़ लोगों ने मनरेगा के तहत रोज़गार पाया था.
बीते दो महीनों- दिसंबर और जनवरी में मनरेगा के तहत नौकरी करने वाले परिवारों की संख्या उतनी ही रही, जितनी की पिछले साल अगस्त और सितंबर में थी, जब कोरोना महामारी अपने चरम पर थी.
सामाजिक कार्यकर्ताओं, इंजीनियर्स और डेटा साइंटिस्टों के एक समूह की रिपोर्ट में कहा गया है कि वैसे तो सरकारों में भुगतान व्यवस्था सुधारने के लिए प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) पर ख़ूब ध्यान दिया है, लेकिन मज़दूरों के खाते में पैसे डालने के बाद होने वाली संस्थागत समस्याओं पर बहुत कम ध्यान दिया गया है.
ग्राउंड रिपोर्ट: मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के रत्नौली गांव के रहने वाले 33 वर्षीय संजय साहनी कुढ़नी सीट से निर्दलीय उम्मीदवार हैं. सातवीं तक पढ़े संजय लंबे समय तक प्रवासी कामगार के बतौर दिल्ली में रहे हैं और अब मनरेगा के तहत मज़दूरी करते हुए आसपास के गांवों में मनरेगा के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए जाने जाते हैं.
लोकसभा में पेश जानकारी के मुताबिक़ ऐसे राज्यों में सबसे ऊपर पश्चिम बंगाल है, जहां लगभग 397 करोड़ रुपये की मनरेगा मज़दूरी का भुगतान नहीं हुआ है. यह दस राज्यों में कुल लंबित राशि का क़रीब 50 फीसदी है. इसके बाद उत्तर प्रदेश है, जहां 121.78 करोड़ रुपये की मनरेगा मज़दूरी नहीं दी गई है.
पीपुल्स एक्शन फॉर एम्प्लॉयमेंट गारंटी नाम के एक समूह ने मनरेगा पर एक रिपोर्ट जारी कर तेज़ी से ख़त्म होती आवंटित राशि की ओर ध्यान दिलाते हुए सरकार से आवंटन तथा कार्य दिवस तत्काल बढ़ाने की मांग की है.
मनरेगा पोर्टल पर 24 अगस्त तक तक उपलब्ध आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि 2013-2014 के बाद से मनरेगा में महिलाओं की भागीदारी सबसे निचले स्तर पर आ गई है.
कोरोना महामारी को ध्यान में रखते हुए इस साल मनरेगा का बजट बढ़ाकर एक लाख करोड़ रुपये कर दिया गया था. सरकारी आंकड़े दर्शाते हैं कि अब तक इसमें से 48,500 करोड़ रुपये से अधिक की राशि ख़र्च हो चुकी है. ऐसे में कई ग्राम पंचायतों के पास मनरेगा के तहत काम कराने के लिए पैसे नहीं बचे हैं.
कोरोना महामारी के संकट से पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था क़र्ज़ के दलदल में फंस चुकी थी. अब इस संकट के बाद नए क़र्ज़ बांटने से इसका बुरा हाल होना तय है.