‘जातिविहीनता’ की सुविधा किसे है कि वह अपनी जाति की पहचान की मुखरता के बिना भी जीवन के हर मरहले पार करता जाए? किसे इसकी इजाज़त नहीं है? कविता में जनतंत्र स्तंभ की इक्कीसवीं क़िस्त.
जनतंत्र में दलितों की भागीदारी क्या मात्र संख्या है या वे इस जनतंत्र की शक्ल भी तय कर सकते हैं? मतदान का जो समान अधिकार दलितों को मिला या उन्होंने लिया, वह भी ऐसे जनतंत्र का संसाधन बन गया जो पारंपरिक वर्चस्व को और मज़बूत करता है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की बीसवीं क़िस्त.