हां के बेसुरे कीर्तन में नहीं की दरकार

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय नहीं कहने और करने का आशय है भारतीय सभ्यता, भारतीय परंपरा, भारतीय लोकतंत्र के अपनी प्रतिबद्धता का इसरार करना. जो इस समय नहीं कहने-करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा वह नैतिक चूक का चरित्र होगा. 

भाषा पर ध्यान देना चौकन्ना काम है, वह प्रचलित सामान्यीकरणों के सहारे नहीं हो सकता

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी में ऐसा आलोचनात्मक माहौल बन गया है कि भाषा को महत्व देना या कि उसकी केंद्रीय भूमिका की पहचान करना, उस पहचान को ब्योरों में जाकर सहेजना-समेटना अनावश्यक उद्यम मान लिया गया है.

इमरोज़ की याद में : यूं ही ख़ामोशी से मर जाया करती हैं सच्ची मोहब्बतें…

स्मृति शेष: चित्रकार इमरोज़ नहीं रहे. जिस ख़ामोशी से वे अमृता प्रीतम की ज़िंदगी में रहे, मोहब्बत इतनी ख़ामोश भी हो सकती है, इसे इमरोज़ को जान लेने के बाद ही जाना जा सकता है.

जिस विचार-विरोधी उपक्रम में कई तबके शामिल हैं, उसमें लेखक-कलाकार निश्चिंत नहीं बैठ सकते

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जो हो रहा है और जिसकी हिंसक आक्रामकता बढ़ती ही जा रही है, उसमें लेखकों को साहित्य को एक तरह का अहिंसक सत्याग्रह बनाना ही होगा और यही नए अर्थ में प्रतिबद्ध होना है.

जगदीश स्वामीनाथन की कला आधुनिकता का प्रसन्न क्षण है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जगदीश स्वामीनाथन जैसे आद्यरूपकों का सहारा लेते हुए अपना अद्वितीय आकाश रचते थे, उसके पीछे सक्रिय दृष्टि को महाकाव्यात्मक ही कहा जा सकता है, लेकिन उसमें गीतिपरक सघनता भी हैं. जैसे कविता में शब्द गुरुत्वाकर्षण शक्ति से मुक्त होते हैं, वैसे ही उनके चित्रों में आकार गुरुत्व से मुक्त होते हैं.

रज़ा की कृतियों में आधुनिकता का एकांत है…

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: रज़ा की पचास सालों से अधिक पहले रची गई कृतियों में न सिर्फ़ एकांत है पर एक तरह की सौम्य शास्त्रीय आभा भी है. यह आभा उनके सजग रूप से भारतीय होने भर से नहीं आई है- इसके पीछे अपने को प्रचलित अभिप्रायों से दूर रहकर अपने सच की एकांत साधना करने जैसा कुछ है. 

कुमार गंधर्व: उनका संगीत बहुत सारी अंतर्ध्वनियों से बुना गया संगीत था…

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कुमार गंधर्व के यहां सौंदर्य और संघर्ष का द्वैत ध्वस्त हो जाता है: वहां संघर्ष है तो सौंदर्य के लिए ही और संघर्ष का अपना सौंदर्य है. उनका सांगीतिक व्यवहार और उनकी सौंदर्य दृष्टि को कई युग्मों के बीच एक अविराम प्रवाह की तरह देखा जा सकता है.

रज़ा अपने असंख्य प्रेमियों के पास तो लौटे हैं पर लोकतांत्रिक भारत की राज्य-संस्थाओं में नहीं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: 1948 में सैयद हैदर रज़ा का पूरा परिवार पाकिस्तान चला गया था, वे यह कहकर नहीं गए कि भारत उनका वतन है और वे उसे नहीं छोड़ सकते. अब विडंबना यह है कि उनके कला-जीवन की सबसे बड़ी प्रदर्शनी पेरिस के कला संग्रहालय में हो रही है, भारत के किसी कला संस्थान में नहीं.

पेरिस में सैयद हैदर रज़ा के चित्रों की एकल प्रदर्शनी शुरू हुई

फ्रांस के पेरिस शहर में भारतीय चित्रकार सैयद हैदर रज़ा के चित्रों की प्रदर्शनी आरंभ हो चुकी है. यह किसी भी भारतीय चित्रकार की अब तक की सबसे लंबे समय तक चलने वाली प्रदर्शनी है, जो 14 फरवरी से शुरू होकर 15 मई तक चलेगी.

रज़ा का पुनर्दर्शन: आधुनिक विश्व-कला में भारतीय उपस्थिति

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: रज़ा कहते थे कि चित्र कैसे बनाए जाएं यह कौशल उन्होंने फ्रांस से सीखा पर क्या चित्रित करें यह भारत से. वे दो संस्कृतियों के बीच संवाद और आवाजाही का बड़ा और सक्रिय माध्यम बने. उसी फ्रांस में उनकी अब तक की सबसे बड़ी प्रदर्शनी होना एक तरह से उनकी दोहरी उपस्थिति का एहतराम है.

रज़ा का दूसरा जीवन…

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कुछ लोग, जो एक जन्म को ही मानते हैं और पुनर्जन्म में यक़ीन नहीं कर पाते, उनमें से अधिकांश के लिए एक ही जीवन हो पाता है, अच्छा-बुरा, जैसा भी. पर कुछ बिरले होते हैं जो अपने विचार या सृजन से लंबा मरणोत्तर जीवन पाते हैं जो कई बार उनके भौतिक जीवन से कहीं अधिक लंबा होता है.

भारत के विचार पर व्यापक और समावेशी विचार-विमर्श, संवाद की जगह कहां है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हमारी सभ्यता आरंभ से ही प्रश्नवाचक रही है और उसकी प्रश्नवाचकता-असहमति-वाद-विवाद, संवाद का भारत में पुनर्वास करने की ज़रूरत है. इस समय जो धार्मिक और बौद्धिक, राजनीतिक और बाज़ारू ठगी हमें दिग्भ्रमित कर रही है, उससे अलग कोई रास्ता कौन तलाश करेगा यह हमारे समय का एक यक्षप्रश्न है.

कोलकाता में बना सेक्स वर्कर्स के जीवन और संघर्ष पर समर्पित दुर्गा पूजा पंडाल

उत्तर कोलकाता में तैयार किया गया है पंडाल. आयोजनकर्ताओं के अनुसार, इसके माध्यम से वे इन सेक्स वर्करों की समाज में सहभागिता बढ़ाने और उन्हें वह सम्मान देने की कोशिश कर रहे जिसकी वो हक़दार हैं.