कई बार बांसों में अथाह पुष्प-प्रस्फुटन चूहों की भीड़ ले आता है, जो फसल की बर्बादी का कारण बनता है. बावजूद इसके न बांस उगना छोड़ता है और न ही किसान फसल बोना. यही लेखन प्रक्रिया के दौरान होता है. रचनाकार अपने भीतर बहुत कुछ मरते हुए, नवजीवित होते हुए देखता है. रचनाकार का समय में पढ़िए कवयित्री मंजुला बिष्ट को.
प्रचण्ड प्रवीर की यह कहानी आयरिश लेखक टॉमस मूर के प्रसिद्ध काव्य ‘लाला रूख’ (1817) और उस पर बनी हिन्दी फिल्म ‘लाला-रुख़’ (1958) के संदर्भ में लिखी गई है. प्रसिद्ध गायक तलत महमूद और अभिनेत्री श्यामा की मुख्य भूमिकाओं में अभिनीत यह फिल्म टॉमस मूर की कथा को कुछ बदलती है. प्रवीर की कहानी इस कथा में एक नया मोड़ जोडती है.
अगर मुझे होती हुई या हो चुकी घटना के विवरण को लिखना हो, तो मैं गद्य का सहारा लेती हूं, लेकिन उस घटना से मेरे मन पर क्या प्रभाव पड़ा, उसे मैंने कैसे देखा, यह ज़ाहिर करना हो, तो मैं कविता का सहारा लेती हूं. 'रचनाकार का समय' की इस क़िस्त में पढ़ें लवली गोस्वामी का आत्म-कथ्य.
यह समय औसत के महिमामंडन का समय है. अधीरता को नई मूल्य-संहिता के केंद्र में लाकर नव-औपनिवेशिक सत्ता-प्रतिष्ठानों ने गंभीर एवं दार्शनिक लेखन के प्रति अरुचि का प्रसार किया है. रचनाकार के लिए ज़रूरी है अपने को पूर्वाग्रहों, वैचारिक हदबंदियों, भौतिक लिप्साओं और मानसिक संकीर्णताओं से मुक्त कर औदात्य की सतत साधना करना. 'रचनाकार का समय' में पढ़िए आलोचक रोहिणी अग्रवाल को.
इक्कीसवीं सदी अल्पवयस्क अवस्था में ही शर्म से झेंपी सदी बन रही है. अब क्या करे कोई कवि? बेशर्म होकर झंडा फहराए संविधान की धज्जियां उड़ाने वालों का? या कसीदे लिखे बच्चों के हत्यारों के लिए? या युद्ध के सौदागरों के लिए विज्ञापन लिखे? 'रचनाकार का समय' में पढ़िए अनुज लुगुन को.
रचनाकार को अक्सर यह मुगालता होता है कि वह अपने समय को दर्ज कर रहा है, और दर्ज भी ऐसे कि गोया अहसान कर रहा है. और गोया ऐसे भी कि सिर्फ वही कर रहा है, अगर वह नहीं करेगा तो समय दर्ज हुए बिना ही रह जाएगा. इस चमकीले मुहावरे से खुद को बचा लेना चाहता हूं कि मैं अपने समय को दर्ज करने के महान काम में लगा हुआ हूं.
साठेक बरस पहले तक, नफ़रत, दंगे और हिंसा काफ़ी हद तक रोज़मर्रा की जिंदगी को महफ़ूज़ रहने देते थे. अब तो धार्मिक और वैचारिक भेदभाव, तमाम तबकों और धर्मों के बीच स्थायी नफ़रत और वैमनस्य जगा चुके हैं. महात्मा गांधी के प्रार्थना प्रवचनों से लेकर फेक ख़बरों और बढ़ते प्रदूषण के उदाहरण देते हुए वरिष्ठ कथाकार मृदुला गर्ग एक लम्बे दौर का बड़े आत्मीय स्वर में स्मरण करती हैं.
किसी के पास भी इतना समय नहीं है कि वह पत्तों को पूरी तरह से झरते देख सके. जो झरते हुए को नहीं देख सकता, वह उगते हुए को भी नहीं देख सकता. 'रचनाकार का समय' स्तंभ की चौथी क़िस्त.
बड़े लेखक वे हैं, जो समय से पहले घटनाओं की आहट सुन लेते हैं. जो बीत गया उस पर लिखना दृष्टिकोण है, लेकिन आगामी दौर को लिखना वक़्त को थाम लेना है. भविष्य की संभावना को दर्ज करना ज्यादा महत्वपूर्ण है. क्योंकि कई बार आज को दर्ज करना रचनाओं को कमज़ोर कर देता है. 'रचनाकार का समय' स्तंभ की तीसरी क़िस्त.
यह लेखक के लिए हताश करने वाला समय है, मुश्किल समय है. सच लिखना शायद इतना जोखिम भरा कभी नहीं था जितना अब है. सच को पहचानना भी लगातार मुश्किल होता गया है.
इस सप्ताह से हम एक नई श्रृंखला शुरू कर रहे हैं जिसके तहत रचनाकार समय के साथ अपने संवाद को दर्ज करते हैं. पहली क़िस्त में पढ़िए प्रकृति करगेती का आत्म-वक्तव्य: त्रिकाल जब एक संधि पर आकर ठहर जाता है.