राममनोहर लोहिया को एक चुनावी शिक़स्त उनके निधन के बाद भी हासिल हुई थी

पुण्यतिथि विशेष: डॉ. राममनोहर लोहिया के संसदीय जीवन की विडंबना पर जाएं, तो अल्पज्ञात व अचर्चित होने के बावजूद उनमें सबसे बड़ी यह है कि अपने अंतिम दिनों में वे लोकसभा में जिस कन्नौज सीट का प्रतिनिधित्व करते थे, अपने निधन के बाद आए हाईकोर्ट के फैसले में उसे हार गए थे.

आज की राजनीति बुद्धि-ज्ञान-संस्कृति से लगातार अविराम गति से दूर जा रही है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हमारे लोकतंत्र की एक विडंबना यह रही है कि उसके आरंभ में तो राजनीतिक नेतृत्व में बुद्धि ज्ञान और संस्कृति-बोध था जो धीरे-धीरे छीजता चला गया है. हम आज की इस दुरवस्था में पहुंच हैं कि राजनीति से नीति का लोप ही हो गया है.

जब लोहिया ने दिनकर से कहा, ‘मेरी आयु बहुत कम है इसलिए जो बोलता हूं, उसे बोल लेने दो’

पुण्यतिथि विशेष: रामधारी सिंह 'दिनकर' की निगाह से लोहिया को देखना एक मित्र की निगाह से देखना तो है ही, राष्ट्रकवि की निगाह से देखना भी है, सत्ता में बैठी उस पार्टी के नेता की निगाह से देखना भी, जिसे वे उसके सबसे बड़े नेता समेत उखाड़ फेंकना चाहते थे.

प्रधानमंत्री मोदी ने अपने आंसुओं को राजनीति की कलाबाज़ियों में क्यों बदल दिया है

नरेंद्र मोदी को देश की सत्ता संभाले साढ़े छह साल हो चुके हैं और इस दौरान वे लगभग इतनी ही बार रो भी चुके हैं. हालांकि यह उनकी राजनीति ही तय करती है कि उनके आंसुओं को कब बहना है और कब सूख जाना है.

कांग्रेस की मौत की कामना करना कितना उचित है?

पिछले पांच साल से देश को कांग्रेसमुक्त करने का आह्वान भाजपा नेताओं के द्वारा किया जाता रहा है, लेकिन न सिर्फ यह कि वह अप्रासंगिक नहीं हुई, बल्कि इस चुनाव में भी भाजपा के लिए वही संदर्भ बिंदु बनी रही. जनतंत्र की सबसे अधिक दुहाई देनेवाले समाजवादियों को जनसंघ या भाजपा के साथ कभी वैचारिक या नैतिक संकट हुआ हो, इसका प्रमाण नहीं मिलता.

आम्बेडकरनगर सीट: क्या भाजपा को भी ‘मोदी लहर’ पर भरोसा नहीं रहा?

पूर्वी उत्तर प्रदेश की आम्बेडकरनगर लोकसभा सीट पर भाजपा ने अपने वर्तमान सांसद हरिओम पांडेय का टिकट काटकर प्रदेश सरकार में मंत्री मुकुट बिहारी वर्मा को प्रत्याशी बनाया है.

जब बिना करोड़ों के ख़र्च और वोट मांगे बग़ैर भी चुनाव जीत जाते थे नेता

चुनावी बातें: मौजूदा दौर में जब चुनाव का वास्तविक ख़र्च करोड़ों में होता है, इस बात की कल्पना भी मुमकिन नहीं कि कोई निर्धन प्रत्याशी ख़ाली हाथ चुनाव के मैदान में उतरेगा और जीत जाएगा, पर 1967 में ऐसा हुआ था.

लोहिया को उनके अनुयायियों से कौन बचाए?

समाजवादियों ने उनके समाजवाद का कॉरपोरेटीकरण कर उसे भाई-भतीजावादी पूंजीवाद का सगा बनाकर, उसे अस्मिता, जाति, वंश व परिवार के कॉकटेल में बदल आमजन के लिए वैसे ही निरर्थक कर डाला है, जैसे संकीर्णतावादियों ने गांधी के रामराज्य को.

राम मनोहर लोहिया: सच्चे लोकतंत्र की शक्ति सरकारों के उलट-पुलट में बसती है

लोहिया कहते थे कि किसी शख़्सियत का जन्मदिन मनाने या उसकी मूर्ति लगाने से, उसके निधन के 300 साल बाद तक परहेज रखना चाहिए ताकि इतिहास निरपेक्ष होकर यह फैसला कर पाए कि वह इसकी हक़दार थी या नहीं.

आज अगर लोहिया होते तो गैर-भाजपावाद का आह्वान करते

लोहिया ने नेहरू जैसे प्रधानमंत्री को यह कहकर निरुत्तर कर दिया था कि आम आदमी तीन आने रोज़ पर गुज़र करता है, जबकि प्रधानमंत्री पर रोज़ाना 25 हज़ार रुपये ख़र्च होते हैं.

तमिलनाडु में विरोध हिंदी का नहीं ‘एक देश, एक संस्कृति’ थोपने का है

हिंदी थोपने की कोशिशों को ख़ारिज करना उत्तर की सांस्कृतिक प्रभुता को ख़ारिज करना भी है और अंग्रेज़ी के सहारे आर्थिक गतिशीलता की ख़्वाहिश का इज़हार भी है.