अक्सर हम संस्कृतियों और राष्ट्रों के प्रति इसलिए सहिष्णु नहीं हो पाते कि हम उन्हें जुगलबंदी के बगैर, एकरेखीय ढंग से, एक ही धुन और एक ही सुर में, एक ही आवाज़ में समझने की कोशिश करते हैं.
अक्सर हम संस्कृतियों और राष्ट्रों के प्रति इसलिए सहिष्णु नहीं हो पाते कि हम उन्हें जुगलबंदी के बगैर, एकरेखीय ढंग से, एक ही धुन और एक ही सुर में, एक ही आवाज़ में समझने की कोशिश करते हैं.