आपातकाल के 44 साल बाद इन सेंसर-आदेशों को पढ़ने पर उस डरावने माहौल का अंदाज़ा लगता है जिसमें पत्रकारों को काम करना पड़ा था, अख़बारों पर कैसा अंकुश था और कैसी-कैसी ख़बरें रोकी जाती थीं.
नॉर्थईस्ट न्यूज़पेपर सोसाइटी ने एक प्रेस रिलीज़ जारी कर असम की सर्बानंद सोनोवाल सरकार द्वारा प्रायोजित किसी भी विज्ञापन, समाचार या तस्वीर का इस्तेमाल नहीं करने की घोषणा की. असम के अधिकतर समाचार पत्र इसी सोसाइटी का हिस्सा हैं.
सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने राज्यसभा में बताया कि अखबारों को इनकी प्रसारण संख्या के दावों की पुष्टि के बाद ही विज्ञापन दिए जाते हैं. उनके प्रसारण दावों की भारतीय समाचार पत्र पंजीयक से जांच कराई है.
हमारी राष्ट्रीय राजनीति और भाजपा कांग्रेस विरोधी आंदोलन यानी प्रतिरोध का ही नतीजा हैं, लेकिन इसके बारे में कोई बात नहीं करता. ख़ुद भाजपा भी नहीं. वे चाहते हैं कि हम इमरजेंसी के बारे में जानें लेकिन उतना, जितने से उन्हें नुकसान न पहुंचे.
आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी. आज फिर वैसा ही नज़ारा दिख रहा है. सारे अहम फ़ैसले संसदीय दल तो क्या, केंद्रीय मंत्रिपरिषद की भी आम राय से नहीं किए जाते, सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री की चलती है.
मीडिया मालिक अख़बारों और न्यूज़ चैनलों को सुधारने के लिए कुछ करें या न करें, लेकिन यह तो तय है कि जब तक हर रोज़, हर न्यूज़रूम में प्रतिरोध की आवाज़ें मौजूद रहेंगी, तब तक भारतीय पत्रकारिता बनी रहेगी.
मीडिया बोल की 52वीं कड़ी में उर्मिलेश बीते हफ़्ते देश के प्रमुख हिंदी अख़बारों की सुर्खियों में आए मुद्दों पर दिल्ली विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. विनीत कुमार और वरिष्ठ पत्रकार और कवि मंगलेश डबराल से चर्चा कर रहे हैं.
सोशल मीडिया पर फ़र्ज़ी ख़बरों के प्रसार के बारे में सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने कहा कि सोशल मीडिया कोई ख़तरा नहीं है. अगर वहां कोई ग़लत कंटेंट है, तो लोगों के पास उसे सही करने की ताक़त है.
मीडिया से सवाल पूछने की बात करना बेकार है क्योंकि वह सवाल पूछना भूल चुकी है.
मीडिया मालिकों के संगठन इंडियन न्यूजपेपर सोसायटी ने कहा, नोटबंदी के कारण विज्ञापनों में कमी आने से अख़बार प्रभावित हुए हैं.
टीवी ने लोकतंत्र का मतलब ही बदल दिया है. जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए नहीं. नेता का, नेता के द्वारा और नेता के लिए हो गया है.
दशकों से उत्तर-पूर्व और कश्मीर के मीडिया संस्थान अपनी आज़ादी की लड़ाई राष्ट्रीय मीडिया के समर्थन के बगैर लड़ रहे हैं.
'गाय, ट्रिपल तलाक, सेना, कश्मीर और पाकिस्तान को ज़ेरे-बहस लाकर सरकार अपनी नाकामी को छिपाने की कोशिश कर रही है. सरकार के सभी वादे झूठे साबित हुए हैं. आपको अच्छे दिन के बजाय बुरे दिन दे दिए गए हैं.'