जन्मदिन विशेष: जब कलावादी आलोचकों ने ‘उग्र’ की कहानियों को अश्लील, घासलेटी और कलाविहीन कहा, तब उनका जवाब था कि अगर सत्य को ज्यों का त्यों चित्रित कर देने में कोई कला हो सकती है तो मेरी इन कहानियों में भी कला है
हिंदी कविता में जब कुछ बड़े कवियों की धूम मची थी, अदम गोंडवी अपने श्रोताओं और पाठकों को गांवों की उन तंग गलियों में ले गए जहां जीवन उत्पीड़न का शिकार हो रहा था.
साहित्य सम्मेलनों में फिल्मी हस्तियों की भरमार पर मशहूर कथाकार चित्रा मुद्गल नाराज़.
हाल ही में व्यास सम्मान पाने वाली वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया ने कहा, यह अच्छा संकेत है कि महिलाएं अपनी पीड़ा, संघर्षों और अनुभवों के बारे में खुलकर लिख रही हैं.
पुण्यतिथि विशेष: विद्रोही अभी ज़िंदा हैं. सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लेंगे, सारे तानाशाह और ज़ुल्मी मर जाएंगे, उसके बाद विद्रोही मरेंगे आराम से, वसंत ऋतु में.
कुंवर नारायण के काव्य में अवध की विद्रोही चेतना, गंगा जमुनी तहजीब, नए-पुराने के बीच समन्वय और भौतिकता व आध्यात्मिकता के बीच समन्वय की सोच विद्यमान है.
हिंदी के कुछ लेखकों की भारतीयता वैश्विकता विरोध में चली गई है. कुंवर नारायण के साथ ऐसा नहीं है. वे पूर्व-पश्चिम का कोई द्वंद्व न देखते हैं, न दिखाते हैं. उनके यहां ‘कोई दूसरा नहीं’ है.
ज्ञानपीठ और पद्मभूषण से सम्मानित कुंवर नारायण जुलाई महीने में ब्रेन हेमरेज के बाद से कोमा में थे.
हरिशंकर परसाई ने मुक्तिबोध को याद करते हुए लिखा कि जैसे ज़िंदगी में मुक्तिबोध ने किसी से लाभ के लिए समझौता नहीं किया, वैसे मृत्यु से भी कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे.
अपने जीवन के विषाद, विष, अंधेरे को निराला ने जिस तरह से करुणा और प्रकाश में बदला, वह हिंदी साहित्य में अद्वितीय है.
रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था, ‘मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं. इसलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का है. मेरा विश्वास है कि अंततोगत्वा यही रंग भारत के भविष्य का रंग होगा.’
उर्दू के मशहूर शायर फ़िराक़ गोरखपुरी को याद कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश.
हजारी प्रसाद द्विवेदी सही मायने में पंडित थे. वैसे पंडित नहीं, जो शास्त्र और वेद को पढ़कर जड़ और हिंसक हो जाता है, बल्कि वैसे, जो कबीर की तरह प्रेम या मनुष्यता का ढाई आखर पढ़कर पंडित होता है.
नागार्जुन की कविता राजनीति के चरित्र का पर्दाफ़ाश करती है. जो लोग लोकतंत्र को बचाने और उसे मज़बूत बनाने की लड़ाई लड़ना चाहते हैं, उनके लिए नागार्जुन कभी अप्रासंगिक नहीं होंगे.
आलोचना जगत पर हिंदी के अध्यापकों का कब्ज़ा है लेकिन ये अध्यापक सिर्फ भाषणबाजी कर रहे हैं. दुनिया भर में अच्छी आलोचना अकादमिक संस्थानों में विकसित होती है पर हमारे विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में क्या हो रहा है, ये किसी से छिपा नहीं है.