आंबेडकरवादी प्रतीकों के साथ संघ की सोशल इंजीनियरिंग

सेकुलर शक्तियों को याद रखना चाहिए कि 1974 के बाद से ही संघ परिवार बड़ी होशियारी के साथ दलित और पिछड़े प्रतीकों को हड़प के अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने के कौशल को विकसित करने में लगा हुआ है.

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सेकुलर शक्तियों को याद रखना चाहिए कि 1974 के बाद से ही संघ परिवार बड़ी होशियारी के साथ दलित और पिछड़े प्रतीकों को हड़प के अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने के कौशल को विकसित करने में लगा हुआ है.

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बाबा साहब को फूल चढ़ाते भाजपा अध्यक्ष अमित शाह (फाइल फोटो: bjp.org)

अगर पिछले डेढ़ महीने के घटनाक्रम पर ग़ौर किया जाए तो साफ़ दिखाई पड़ता है कि संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय रणनीतिकारों की देख-रेख में उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने एक जटिल सामाजिक-राजनीतिक योजना पर अमल की शुरुआत कर दी है.

नब्बे के दशक में इस तरह की रणनीतिक योजना पर अमल करने की ज़िम्मेदारी गोविंदाचार्य जैसे नेताओं के हाथ में रहती थी, और उन लोगों ने इसे सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया था.

अगर यह योजना ठीक तरह से चली और बीच में कुछ गड़बड़ नहीं हुई, तो भाजपा 2019 के लोकसभा चुनावों तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देश के पहले पिछड़े वर्ग नेता के रूप में उभरते हुए देखना पसंद करेगी.

ध्यान रहे कि आज तक देश में पिछड़े वर्ग का कोई राष्ट्रीय नेता नहीं हुआ है. जो भी नेता हैं, वे क्षेत्रीय स्तर के हैं और या तो दलित समुदायों के नेतृत्व करने का दावा करते हैं या फिर पिछड़ी किसान जातियों के नेतृत्व का.

संविधान के अनुसार पिछड़ा वर्ग एक ऐसी विराट श्रेणी है जो अनुसूचित जातियां, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों यानी शूद्र वर्ण के तहत आने वाली जातियों को मिला कर बनता है.

योगी को जिस योजना पर अमल करने का दायित्व दिया गया है, उसका लक्ष्य मोदी को इन तीनों सामाजिक वर्गों का एकमेव राष्ट्रीय नेता बनाना है. ख़ास बात यह है कि इस महत्वाकांक्षी योजना का एक खुला पक्ष और एक गोपनीय पक्ष.

इस योजना के खुले पक्ष के दो पहलू हैं. सबसे पहले तो इसके तहत उन दलित और ओबीसी प्रतीक पुरुषों-स्त्रियों की विशाल मूर्तियां स्थापित की जाएंगी जिनकी पिछले बीस-पच्चीस सालों में दलित-बहुजन विमर्श और राजनीति के आंबेडकरवादी आख्यान ने उपेक्षा की है.

दूसरा पहलू यह है कि इन मूर्तियों के साथ उन्हीं की बगल में चतुराईपूर्वक मुसलमान-विरोधी राष्ट्रवाद के प्रतीक बना दिये गए राणा प्रताप जैसे ऊंची जाति के और छत्रपति शिवाजी जैसे निचली से ऊंची जाति में पहुंचे (शूद्र से क्षत्रिय बने) योद्धाओं की भी मूर्तियां लगाई जाएंगी.

ग़ैर-आंबेडकरवादी प्रतीक पुरुषों-स्त्रियों की मूर्तियों में जिन्हे प्राथमिकता दी जाएगी, उनकी सूची में सबसे ऊपर राजा सुहैलदेव का नाम है जो राजभर समुदाय के बीच उनके इतिहास-पुरुष की तरह पूजे जाते हैं.

सुहैलदेव के साथ ही निषादराज गुह्य का नाम है जो इलाहाबाद के इर्द-गिर्द मल्लाह समुदाय की राजनीतिक आकांक्षाओं के प्रतीक बन चुके हैं.

कोई ताज्जुब नहीं होगा कि जल्दी है हमारे सामने झलकारी बाई का नाम भी आ जाए जो लोधी जाति की थीं और जिन्होंने रानी लक्ष्मी बाई के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए ईस्ट इंडिया कम्पनी के ख़िलाफ़ युद्ध लड़ा था.

ध्यान रहे कि लोधी समुदाय साठ के दशक से ही पहले जनसंघ और फिर भाजपा का साथ देता रहा है. उसने भाजपा को कल्याण सिंह जैसे नेता भी दिये हैं.

चूंकि ये प्रतिमाएं उन विशाल पार्कों और भव्य स्मारकों के भीतर लगाई जाएंगी जो मायावती ने अपने मुख्यमंत्रित्व के दौरान बनवाए थे, भाजपा को उम्मीद है कि इससे भी उसे दोहरा फायदा होगा.

पहला लाभ तो यह हो सकता है कि इससे आंबेडकरवादी आंदोलन द्वारा प्रचलित अलगाव की थीसिस को इससे चुनौती मिलेगी. यह थीसिस बाबासाहेब के उस कथन पर आधारित है जिसमें उन्होंने कहा था कि वे हिंदू के रूप में पैदा हुए हैं पर हिंदू के रूप में मरेंगे नहीं.

इस थीसिस के कारण एक ऐसी रैडिकल भावना बनती है जिसके तहत मान लिया जाता है कि अनुसूचित जातियां हिंदू दायरे की अंग नहीं है इसलिए या तो उन्हें धर्मांतरण के ज़रिये या स्वंय को नास्तिक घोषित करके इस दायरे से बाहर निकल जाना चाहिए.

ग़ैर-आंबेडकरवादी दलित और पिछड़े प्रतीकों की प्रतिमाएं जब मुसलमान-विरोधी बताए गए हिंदू योद्धाओं के साथ सह-अस्तित्व में दिखेंगी तो वह सांस्कृतिक और राजनीतिक दावेदारी भी खंडित होगी जो कमज़ोर वर्गों के लिए जीवन के हर क्षेत्र में अलग स्पेस की मांग पर टिकी है.

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फरवरी 2016 में बहराइच (उत्तर प्रदेश) में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने शौर्य सम्मान सभा में राजा सुहेलदेव की प्रतिमा का अनावरण किया था. (फोटो: bjp.org)

दूसरे, भले ही केवल स्मारकों के रूप में ही क्यों न हो, संघ परिवार को इसके ज़रिये हिंदू एकता का वह एकजुट संसार चित्रित करने का मौका मिलेगा जिसके केंद्र में मुसलमान-विरोधी पहलू मौजूद होंगे.

ध्यान रहे कि प्रतिमाओं की राजनीति ऐसी कई गुंजाइशें मुहैया करा सकती है जिसमें इतिहास की कुछ घटनाओं की घटनाओं का मुसलमान विरोधी आख्यानों की स्थापना के लिए दोहन किया जा सके.

राजा सुहैलदेव का प्रतीक भी एक ऐसे ही अवसर का उदाहरण है. संघ परिवार उन्हें सालार मसूद ग़ाज़ी खान को पराजित करने वाले राजा के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहा है.

यह मुसलमान सिपहसालार शताब्दियों की कीमियागरी के बाद आज उप्र के कई हिस्सों में ग़ाज़ी मियां की सूफ़ी दरगाहों पर पूजा जाता है. स्वाभाविक ही है कि इस तरह की गंगा-जमुनी सामासिकता संघ परिवार को रास नहीं आ सकती.

सेकुलर शक्तियों को याद रखना चाहिए कि 1974 के बाद से ही संघ परिवार बड़ी होशियारी के साथ दलित और पिछड़े प्रतीकों को हड़प के अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने के कौशल को विकसित करने में लगा हुआ है.

उसने फुले और आंबेडकर को न केवल शाखाओं में होने वाले अपने प्रातःस्मरण में शामिल कर लिया है, बल्कि उन्हें अपनी तरफ़ से हिंदू सुधारक भी घोषित कर दिया है.

इस सामाजिक-सांस्कृतिक इंजीनियरिंग के लिए बौद्धिक पृष्ठभूमि तैयार करने का काम दत्तोपंत ठेंगड़ी ने किया था. संघ यह काम नहीं कर सकता था अगर 1964 में पुणे की बसंत व्याख्यानमाला में तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहेब देवरस ने अपना वह मशहूर व्याख्यान दिया होता जो आज संघ परिवार का प्रमुख नीतिगत दस्तावेज बन चुका है.

देवरस ने अपने व्याख्यान में कहा था कि आज के ज़माने में वर्ण व्यवस्था हिंदू समाज के लिए कारगर नहीं रह गई है. इसलिए इस मरणोन्मुख प्रणाली को मर जाने देना चाहिए और इसे जिलाने के प्रयास में कोई ऊर्जा खर्च नहीं की जानी चाहिए.

एक तरह से इस बात के ज़रिये देवरस ने उस समय तक संघ में प्रचलित दीनदयाल उपाध्याय की एकात्म मानववाद की थीसिस का खंडन कर दिया था. उपाध्याय ने अपनी थीसिस में वर्ण व्यवस्था को समतामूलकता के स्रोत की तह दिखाया था. दरअसल, सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति देवरस के उस ऐतिहासिक भाषण की ही देन है.

आंबेडकरवादी प्रतिमाओं की प्रतीकात्मक राजनीति को अस्थिर करने वाली संघ परिवार की यह रणनीति तब तक पूरी तरह से नहीं समझी जा सकती जब तक योगी सरकार की योजना के खुफ़िया पहलुओं को न समझ लिया जाए. देखने वाले देख सकते हैं कि सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में जारी जातिगत हिंसा को रोकने में उप्र सरकार की दिलचस्पी क्यों नहीं है.

यह सरकार चाहती है कि शब्बीरपुर के ठाकुर वहां की अनुसूचित जातियों के साथ खून-खराबा करते रहें, ताकि उन पूर्व-अछूतों को एक सबक मिल सके.

ध्यान रहे कि शब्बीरपुर का उत्पीड़ित समुदाय जाटवों का है जो बहुजन समाज पार्टी के समर्थन आधार की रचना करते हैं और भाजपा को वोट देने से लगातार इंकार कर सकते हैं. उप्र के दलित समुदायों में जाटवों की संख्या सबसे ज़्यादा है और वे आंबेडकरवादी राजनीति में रंगे हुए भी हैं.

अगर और कई दलित जातियां वहां ऊंची जातियों का निशाना बनती तो भाजपा ने अभी तक वहां समझौता करा दिया होता, क्योंकि यह पार्टी ग़ैर-जाटव समुदायों (पासी, नाई, खटीक, धोबी, बंसफ़ोर और वाल्मीकि आदि) को अपने जनाधार की तरह देखती है जिनकी वज़ह से उसे 2014 और फिर 2017 में अपना हिंदू वोट बनाने में मदद मिली.

योगी सरकार शब्बीरपुर के आक्रामक ठाकुरों की ज़रिये जाटवों को संदेश देना चाहती है कि उन्हें केवल भाजपा ही बचा सकती है, इसलिए उनके लिए संघ परिवार की हिंदू एकता का जल्दी से जल्दी हिस्सा बन जाना ही बेहतर होगा.

खास बात यह है कि भीम सेना के उभार ने भी इस हिंदुत्ववादी डिज़ाइन को मज़ूबत करने की भूमिका निभाई है. भीम सेना द्वारा द ग्रेट चमार के फिकरे का आक्रामक इस्तेमाल भाजपा के पक्ष में जा रहा है. जितनी ज़ोरदारी के साथ जाटव समुदाय द ग्रेट चमार का अस्मितामूलक नारा लगाएगा उतनी ही तेज़ी के साथ अन्य दलित समुदाय भाजपा की झोली में जाएंगे.

इस अवसर का लाभ भी भाजपा बड़ी चतुराई से उठा रही है. एक तरफ तो वह भीम सेना और उसके नेता चंद्रशेखर रावण पर कानूनी शिकंजा कस रही है जिससे उप्र भर की ऊंची जातियों को गहरा संतोष प्राप्त होगा और दूसरी तरफ़ वह भीम सेना को अपनी गतिविधियां चलाने के लिए इतनी गुंजाइश भी दे रही है कि जाटवों के भीतर मायावती के नेतृत्व को चुनौती मिल सके.

ध्यान रहे कि सामाजिक न्याय की राजनीति ने पिछले पच्चीस साल में दलितों के बीच कुछ प्रभुत्वशाली समुदायों को पैदा किया है. आंध्र में माला, महाराष्ट्र में महार, बिहार में पासवान और उप्र में जाटव खुद को अन्य दलित बिरादरियों से सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतक रूप से श्रेष्ठ मानते हैं और उनका व्यवहार प्रभुत्वशाली समुदायों जैसा ही है. इसी वज़ह से भाजपा पिछले विधानसभा चुनाव मे कामयाबी के साथ जाटव विरोधी प्रचार कर पाई.

कहना न होगा कि पिछले दस साल में विभिन्न कारणों से लोहियावादी और आंबेडकरवादी शैली की सामाजिक न्याय की राजनीति ने अपनी साख लगातार खोई है. संघ परिवार की सोशल इंजीनियरिंग को इसी कारण से कामयाब होने का मौका मिल रहा है.

एक तरफ़ ब्राह्मणवाद विरोधी राजनीति का नारा है, और दूसरी तरफ़ देवरस द्वारा प्रतिपादित बिना जाति संघर्ष को बढ़ावा दिए सभी जातियों को राजनीति में महान और भव्य हिंदू परम्परा के तहत बराबर की भागीदारी का वायदा है.

इस समय हालत यह है कि संघ परिवार का यह वायदा कमज़ोर जातियों को (खासकर उन्हें जो कमज़ोरों में कमज़ोर हैं) रास आ रहा है. अगर यह रुझान आंबेडकरवादी और लोहियावादी पलटना चाहते हैं तो उन्हें अपना रवैया बदलना पड़ेगा. इस समय उनके नेताओं की छवि भ्रष्ट और हड़पू की है. यक्ष प्रश्न ही है कि क्या ये शक्तियां हिंदुत्व के विजय रथ को एक बार और रोक पाएंगी.

(लेखक विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस), दिल्ली में प्रोफ़ेसर और भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक हैं.)

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