‘अगर मकान मालिक बनें तो भूलिएगा नहीं कि आप भी कभी किरायेदार थे’

फिल्मीस्तान और एयरलिफ्ट जैसी फिल्मों में काम कर चुके अभिनेता इनामुल हक़ ने मुंबई में किराये का मकान लेने के संघर्ष को लेकर अपनी आपबीती साझा की है.

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फिल्मीस्तान और एयरलिफ्ट जैसी फिल्मों में काम कर चुके अभिनेता इनामुल हक़ ने मुंबई में किराये का मकान लेने के संघर्ष को लेकर अपनी आपबीती साझा की है.

Mumbai Reuters
(फोटो: रॉयटर्स)

मेरा नाम इनामुल हक़ है और मैं बैचलर नहीं हूं

आप क्या करेंगे? अगर आपको कहा जाए कि आपको किराये पर मकान इसलिए नहीं दिया जा सकता क्योंकि आप ‘फलां धर्म’ से ताल्लुक रखते है. आप शायद आगे बढ़ जाएंगे क्योंकि आप इस सच को नहीं बदल सकते कि आप वाकई ‘फलां धर्म’ से ताल्लुक रखते हैं.

आप क्या करेंगे? अगर आपको कहा जाए कि आपको किराये पर मकान इसलिए नहीं दिया जा सकता क्योंकि आप ‘फिल्म लाइन’ से ताल्लुक रखते हैं. आप शायद आगे बढ़ जाएंगे क्योंकि आप इस सच को नहीं बदल सकते कि आप वाकई ‘फिल्म लाइन’ से ताल्लुक रखते हैं.

आप क्या करेंगे? अगर आपको कहा जाए कि आपको किराये पर मकान इसलिए नहीं दिया जा सकता क्योंकि आप ‘बैचलर’ हैं. आप शायद आगे बढ़ जाएंगे क्योंकि आप इस सच को नहीं बदल सकते कि आप वाकई ‘बैचलर’ हैं.

लेकिन तब आप क्या करेंगे? जब आप वाकई ‘बैचलर’ नहीं हैं, फिर भी आपको मकान इसलिए नहीं दिया जा रहा कि आप ‘बैचलर’ हैं? क्योंकि आपके ‘बैचलर’ न होने का सबूत- आपकी ‘फ़ैमिली’, साल की इकलौती छुट्टी मनाने के लिए महानगर की आपाधापी से दूर अपने उस घर में गई है जिसकी दीवारें, छतें, चबूतरे और आंगन उनके ख़ुद के हैं.

उन्हें ‘शिफ्टिंग’ की भयानकता से दूर रखने के लिए आप फ़ैसला करते हैं कि उनके आने से पहले घर ‘जमा’ लिया जाए ताकि आने के अगले दिन से बच्चा अपने स्कूल जा सके और बीवी अपनी ज़िंदगी वहीं से शुरू करे जहां से वो छोड़कर गई थी.

आप ख़ुद दूसरे शहर में अपने काम के हेक्टिक शेड्यूल से जैसे-तैसे समय निकाल कर मुंबई आते हैं और मकान ढूंढ़ना शुरू करते हैं.

वैसे मुंबई में मकान ढूंढ़ना कोई मुश्किल काम नहीं है. एक कहावत सुनी थी कि ‘मुंबई में आंख बंद करके कहीं भी कंकर फेंकोगे तो एक्टर पर ही गिरेगी.’

ग़लत! आप फेंक कर देखिए एक्टर पर नहीं ब्रोकर पर गिरेगी, ब्रोकर जिसे दलाल कहने से गूगल ट्रांसलेटर भी नहीं हिचकिचाता, आप सभ्यता के मारे उसे प्रॉपर्टी डीलर या एजेंट कहकर आगे बढ़ जाते हैं और मकान ढूंढ़ना शुरू करते हैं.

बजट, स्क्वायर फीट, फर्निश्ड या एम्प्टी का गणित बिठाकर आप एक मकान पर उंगली रखने के बाद, पहले धर्म… फिर पेशे… फिर कुंवारे या शादीशुदा होने से लेकर, घर में कितने लोग रहेंगे… पार्टी तो नहीं करेंगे… कुत्ता तो नहीं पालेंगे… देर से घर तो नहीं लौटेंगे… हाफ पैंट पहनकर बाहर तो नहीं निकलेंगे… शू-रैक और डस्टबिन बाहर तो नहीं रखेंगे?

जैसे अनगिनत सवालों के सैलाब को आग के दरिया के तरह पार करके उस पार पहुंचते है, टोकन-मनी और ज़रूरी दस्तावेज़ देते हैं और ‘संडे’ को एनओसी के लिए सोसाइटी मीटिंग में आने के वादे के साथ शहर के बाहर अपने काम पर या उस घर में वापस लौट जाते हैं जिसमें अब आप कुछ ही दिन के मेहमान हैं.

अगर आप थोड़े इमोशनल टाइप के हैं, तो हो सकता है आप संडे आने तक रोज़ रात को सोने से पहले उस घर की दीवारों या छत से थोड़ा-बहुत बतियाएं कि शायद फिर मुलाक़ात हो ना हो. लेकिन अगर आप दीवारों को सिर्फ़ दीवारें समझते हैं तो आपके जीवन में सीधा ‘संडे’ आता है.

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बॉलीवुड अभिनेता इनामुल हक. (फोटो: फेसबुक)

मुंबई की अधितकर नॉन को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटीज़ के लिए संडे किसी फेस्टिवल से कम नहीं होता. ये वो दिन होता है जब उन्हें ‘भेजा-फ्राई’ की तर्ज पर एक ‘टैलेंट’ मिलता है, मज़े लेने के लिए. बदकिस्मती से एक ‘संडे’ आपका भी आता है.

आपकी मकान मालकिन जो 78 साल की ऐसी महिला है जिसका पति इस दुनिया में और बेटा इस देश में नहीं है और उसकी कमाई का इकलौता ज़रिया इस मकान से आने वाला किराया है, वो लोकल ट्रेन, बस और ऑटो से 27 किलोमीटर का सफ़र तय करके आती है और जो शायद या तो इस बात से ख़ुश है कि पिछली बार की तरह इस बार उसका मकान ज़्यादा दिन ख़ाली नहीं रहा या इस बात से कि उसे मार्केट-रेट से ज़्यादा किराया मिल रहा है.

इस ख़ुशी में वो अपनी उम्र, अपनी शुगर की बीमारी और अपने अकेलेपन को मात देकर सोसाइटी मीटिंग के लिए आई है. खुश आप भी हैं क्योंकि आज आपके कागज़ात पर मोहर लग जाएगी और अगले कुछ साल के लिए आप एक सिरदर्दी से मुक्त हो जाएंगे.

लेकिन तब आप क्या करेंगे? अगर सोसाइटी आपको कुछ भी उल्टा-सीधा कारण बताकर मिलने से मना कर दे कि आज नहीं, मीटिंग अगले संडे होगी. आप बात बिगाड़ना नहीं चाहते और ‘सिर्फ एक हफ्ते की ही तो बात है’ सोचकर वापस आ जाते हैं.

समय का सदुपयोग करने के लिए या फिर अपने मौजूदा घर को ख़ाली करने के प्रेशर में आप संडे आने तक के वक़्त का इस्तेमाल अपने सामान की पैकिंग करने में करते हैं. फिर संडे आता है और आपको ये कहकर इनकार कर दिया जाता है की हम ‘बैचलर’ को घर नहीं देते.

आप और मकान मालकिन इस बात का सबूत देना शुरू करते है कि आप ‘बैचलर’ नहीं हैं, परिवार शहर से बाहर है, और जल्दी ही आ जाएगी. जब आप अपने सच को साबित कर रहे होते हैं, ठीक उसी पल आप चुपके से कब उनका ‘संडे-टैलेंट’ बन जाते हैं आपको पता भी नहीं चलता.

वो आपसे खेलना चाहते हैं इसलिए उनमें से कोई एक आपको अगले संडे काम हो जाने की दिलासा देकर रुख़सत करता है. आप फिर ‘एक हफ्ते की ही तो बात है’ सोचकर वापस आ जाते हैं.

अगला पूरा हफ़्ता आप ये साबित करने में लगा देते हैं की आप ‘बैचलर’ नहीं हैं. सबूत के तौर पर आप दस्तावेज़ का ढेर लगा देते हैं और बदले में आप सिर्फ़ इतना चाहते हैं कि आपको सामान रखने की इजाज़त दे दी जाए, क्योंकि आपके मौजूदा मकान पर कोई और रुमाल रख चुका है.

उसे आपको ज़ल्दी ही ख़ाली करना है और दूसरे आप नए सिरे से मकान ढूंढ़ने की प्रक्रिया दोहराना नहीं चाहते इसलिए आप न चाहते हुए भी ‘रिकवेस्ट-मोड’ पर अटके रहते है. और क्योंकि आप ‘संडे-टैलेंट हैं इसलिए आपको पूरी तरह इनकार भी नहीं किया जाता और फिर से अगले ‘संडे’ बुलाया जाता है.

आप पीछे हट नहीं सकते. आगे बढ़ना आपके हाथ में नहीं है. इसलिए सिर्फ़ ‘एक हफ्ते की बात’ कब ‘पांच हफ़्तों’ में बदल जाती है आपको पता भी नहीं चलता.

आपको पता तब चलता है जब एक दिन सोसाइटी वाले आपसे ये कहकर मिलने से भी मना कर देते हैं कि वो आपसे नहीं मकान मालकिन से बात करेंगे. आप मकान मालकिन को बुलाते हैं. आपको मीटिंग में आने की मनाही है इसलिए आप ब्रोकर के ऑफिस में इंतज़ार करते है.

कुछ देर बाद 78 साल का एक शरीर डर से कांपते हुए सरकता हुआ सा आता है और आंखों में आंसू लिए बिना मोहर लगे आपके कागज़ात ये कहकर लौटा देता है कि आपको मकान देने से मना कर रहे हैं. अपने पैसे वापस ले लो. उस वक़्त आप औरत के चेहरे पर सिर्फ़ एक चीज़ पढ़ पाते हैं- बेबसी.

Inaamul Haq
(मुंबई मिरर में प्रकाशित ख़बर)

आप अपने दस्तावेज़ और वापस किए हुए पैसे हाथ में लिए चौराहे पर खड़े हैं. अचानक आपकी आंखें बंद होती हैं और आप, अपने आपको, अपने शुभचिंतको, दोस्तों और जानकरों से घिरा हुआ पाते हैं जो नुक्कड़ नाटक की तरह आपके चारों तरफ़ घेरा बनाकर घूम रहे हैं उनकी उंगलियां आपकी तरफ उठी हुई हैं और वो घूमते हुए कोरस में एक ही बात दोहरा रहे है.

‘*तिये तुझे पहले ही कहा था खुद का मकान ख़रीदने की सोच.’

आप क्या करेंगे? अगर किराये के मकान में रहना आपकी मजबूरी नहीं है आपकी इच्छा है, क्योंकि आप अपने आपको ईएमआई के चंगुल से मुक्त रखकर अपने मन का काम करना चाहते हैं. लेकिन किराये का मकान आपको सिर्फ़ उस वजह से नहीं मिल पाया हो जिस वजह का अस्तित्व ही नहीं.

आप क्या करेंगे?

मुझे नहीं पता आप क्या करेंगे? लेकिन आगे बढ़ जाने के विकल्प को नज़रअंदाज़ करके मैंने लड़ने का फैसला किया है. हालांकि लड़ाई के अपने ख़तरे हैं. ख़ासतौर पर तब जब लड़ाई सिस्टम से हो.

एक बात तो तय है कि अपने घर से 1500 किलोमीटर दूर मैं इस शहर में झंडा उठाने या सिस्टम सुधारने नहीं, एक लक्ष्य लेकर आया हूं. लेकिन ‘एक्टर’ होने से पहले एक इंसान और एक नागरिक हूं इसलिए मात्र स्वार्थी होकर आगे नहीं बढ़ सकता.

कभी-कभी लड़ना ज़रूरी हो जाता है. एक की लड़ाई दूसरे के लिए तमाशा होती है. आज के अख़बार की ये कतरन आपके लिए तमाशे की शुरुआत है.

इतना ‘बैचलर’ मैंने आपने आपको शादी से पहले भी महसूस नहीं किया जितना पिछले डेढ़ महीने में किया. ये सुख आपको मुंबई की नॉन को-ऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटीज़ ही दे सकती हैं.

मुंबई में रहने के दस साल के दौरान एक बात बहुत गहराई से महसूस की है कि इस शहर में जब आप किरायेदार होते हैं तो पता नहीं क्यूं आप बहुत पीछे पहुंच जाते हैं. एक अदृश्य सी झाड़ू आपके पिछवाड़े बंधी होती है जो आपके क़दमों के निशानों को मिटाती चलती है.

यहाँ एक तरफ़ किरायेदार हैं और दूसरी तरफ़ मकान-मालिक और हाउसिंग सोसाइटीज़. कई मामलों में मकान मालिक वो लोग होते हैं जिन्होंने कई साल पहले वो मकान कौड़ियों के भाव ख़रीदा होता है और उनका एक किरायेदार उस मकान की कीमत से कई गुनी रकम एक दो साल में ही किराये के रूप में दे देता है.

इसके बावजूद हिकारत की नज़रों से देखा जाना उसकी नियति है. कई मामलों में हाउसिंग सोसाइटीज़ के कुर्सी-धारी वे लोग होते हैं जिन्हें ज़िंदगी में कभी सम्मान नहीं मिला होता है, इसलिए वहां बैठकर वो सम्मान की हफ़्ता वसूली करते हैं. और उनके सॉफ्ट-टारगेट होते हैं हम यानी किरायेदार.

छोटे शहरों के बड़े अहातों के पौधों को छोड़कर हम सिर्फ़ इसलिए आते हैं ताकि अपने सपनों को पानी दे सकें. पौधों को पानी देने से पेड़ बनते हैं, सपनों को पानी देने से ‘हायली पेड’.

हमारे सपने पलते हैं महानगरों के हवा में लटकते इन दड़बों में, जिनकी छतें, ऊपर वालों की फ़र्श होती है और फ़र्श, नीचे वालों की छतें. तीन दीवारें आजू-बाजू वालों की. अपनी होती है तो बस सामने वाली एक बड़ी-सी खिड़की जिसमें से अपने से हिस्से के थोड़े से आसमान के अलावा रोज़ सिर्फ़ एक ही नज़ारा दिखता है, आपकी पसंद ना पसंद को ठेंगा सा दिखता हुआ.

और विडंबना ये है कि ‘हायली पेड’ हो जाने के बाद, इन दड़बों में बैठे-बैठे हम एक दूसरे सपने को पानी देने लगते हैं- और वो सपना होता है छोटे शहर के बड़े अहाते के पौधों को पानी देने का सपना.

कहने का मतलब सिर्फ़ इतना सा है कि जीवन एक चक्र है. दुनिया बहुत छोटी है और गोल भी. …और टेबल के उस तरफ़ हम सब आते हैं कभी न कभी.

ये लेख आपके लिए है- अगर आप किरायेदार हैं तो. ख़ुदा करे अगर आप कभी मकान मालिक बनें तो भूलिएगा नहीं कि आप कभी किरायेदार थे.

ट्रेन की वेटिंग लिस्ट में हम सब ने सफ़र किया है कभी न कभी. ‘कन्फर्म’ टिकट मिल जाने पर वेटिंग वाले को हिकारत की नज़र से देखने वालों को सिर्फ़ इतना याद रखना ज़रूरी है कि ये सफ़र है, मंजिल नहीं.

ये पोस्ट आपके लिए है- अगर आप मकान मालिक या किसी हाउसिंग सोसाइटी के कुर्सी-धारी हैं तो. टेबल का रंग अलग हो सकता है लेकिन उस पार आप भी होते हैं कभी न कभी.

ख़ुदा न करे आप अस्पताल में किसी अपने की जान की भीख मांग रहे हैं और मुंह से हरे रंग का मास्क उतारने वाला डॉक्टर आपका पुराना ‘संडे-टैलेंट’ यानी किरायेदार निकले तो?

नज़रें मिलाने का ‘स्कोप’ बचाकर रखिएगा. शर्म से झुके हुए सिर से बड़ी सज़ा आज तक नहीं बनी है.

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