नीतीश मिट्टी में मिल जाने के बजाय भाजपा से क्यों मिले?

चार साल पहले भाजपा से अलग होने के बाद नीतीश ने कहा था, ‘मिट्टी में मिल जाऊंगा लेकिन अब कभी भाजपा के साथ नहीं जाऊंगा.’

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चार साल पहले भाजपा से अलग होने के बाद नीतीश ने कहा था, ‘मिट्टी में मिल जाऊंगा लेकिन अब कभी भाजपा के साथ नहीं जाऊंगा.’

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फोटो: पीटीआई

पटना के भव्य राजभवन में गुरुवार की सुबह नई सरकार के शपथ ग्रहण के दौरान नीतीश कुमार के खेमे में वैसा उत्साह नहीं था, जैसा उनके नये सहयोगी दल-भाजपा के खेमे में था. राजनीतिक उत्साह उस वक्त अराजकता और सांप्रदायिक लंपटता को छूने लगा, जब भाजपा समर्थकों ने संवैधानिक शपथ-प्रक्रिया के दौरान ही ‘जयश्री राम’ और ‘भारत माता की जय’ जैसे नारे लगाने लगे.

नीतीश की पार्टी जद(यू) के ज्यादातर विधायकों और नेताओं के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं कि ये क्या से क्या हो गया! लेकिन नीतीश कुमार मंच पर आसानी अपने नये डिप्टी चीफ मिनिस्टर सुशील कुमार मोदी के साथ मंद-मंद मुस्कराते हुए वार्तालाप का सिलसिला चलाते रहे ताकि माहौल को सहज बनाया जा सके.

यह ऐसा शपथग्रहण था, जिसमें नीतीश की पार्टी के पूर्व अध्यक्ष शरद यादव, राज्यसभा सांसद अली अनवर सहित अनेक प्रमुख नेता शामिल तक नहीं हुए. इनमें कइयों को मालूम तक नहीं चला कि आखिर नीतीश ने भाजपा को फिर से अपना गठबंधन सहयोगी कैसे बना लिया? क्या सिर्फ अपने उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के खिलाफ बेनामी सम्पत्ति के मामले में एक प्राथमिकी दर्ज होने के चलते यह सब हुआ या इसके पीछे कुछ और कहानी है?

महागठबंधन सरकार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी के खिलाफ बेनामी सम्पत्ति मामले में प्राथमिकी दर्ज होने से पहले ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सितम्बर, 2016 में मोदी सरकार द्वारा सरहद पार की गई कथित सर्जिकल स्ट्राइक के लिए प्रधानमंत्री मोदी और तत्कालीन रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर को बधाई दी थी.

फिर नोटबंदी के सवाल पर नीतीश ने तमाम विपक्षी दलों ने अलग लाइन लेते हुए उसे सही कदम बताया. इसके लिए डा. लोहिया को उद्धृत किया कि वह भी नोटबंदी जैसे कदम के पक्ष में थे. मोरार जी भाई की जनता पार्टी सरकार ने भी ऐसा कदम उठाया था. पर लालू यादव की पार्टी ने पटना में नोटबंदी के खिलाफ जुलूस तक निकाला.

इसके बाद नीतीश ने राष्ट्रपति पद के चुनाव में संपूर्ण विपक्ष से अलग लाइन लेते हुए भाजपा के प्रत्याशी रामनाथ कोविंद का समर्थन किया, जबकि विपक्ष ने उनके अपने राज्य की मूल निवासी मीरा कुमार को अपना प्रत्याशी बनाया था. कोविंद के मुकाबले वह राजनीतिक-प्रशासनिक तौर पर ज्यादा अनुभवी भी थीं.

मतलब साफ है कि तेजस्वी पर प्राथमिकी दर्ज होने या भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके कथित ‘जीरो-टॉलरेंस’ को महागठबंधन के विघटन या नीतीश-लालू टकराव का कारण मानना गलत होगा. सन 2015 के विधानसभा चुनाव के लिए जिस वक्त नीतीश और लालू प्रसाद ने कांग्रेस से मिलकर महागठबंधन खड़ा किया, उससे काफी पहले ही लालू प्रसाद करप्शन के मामले में ‘एफआईआर-याफ्ता’ नहीं, बाकायदा सजायाफ्ता हो चुके थे.

लेकिन तब नीतीश को भ्रष्टाचार के मामले के एक कन्विक्टेड नेता से कोई परेशानी नहीं रही. चुनाव जीतने के लिए करप्शन को लेकर उनका ‘जीरो टॉलरेंस’ बिहार के बागों में लालू-नीतीश के चुनावी बहार की बांसुरी बजाने लगा था.

प्रशांत किशोर ने कुछ इसी तर्ज पर उनके लिए काव्यमय नारे की तलाश की थी. लेकिन 2017 में उन्होंने अपने उपमुख्यमंत्री पर दर्ज एफआईआर को मुद्दा बना दिया कि वे पद से हटें, तभी सरकार चल पाएगी. इसलिए यह मानना कोई गलत नहीं होगा कि अपने तत्कालीन उपमुख्यमंत्री पर एफआईआर तो एक बहाना था, महागठबंधन तोड़ने और 2015 के जनादेश के खिलाफ भाजपा के साथ सरकार बनाने का फैसला नीतीश पहले ही कर चुके थे.

इस सियासी खेल में लालू जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञ ने कुछ कम ब्लंडर्स नहीं किए. नीतीश के दबाव और मांग के बावजूद उन्होंने एफआईआर-याफ्ता अपने बेटे तेजस्वी का इस्तीफा नहीं कराया. यह उनकी सियासी मूर्खता थी. तेजस्वी इस्तीफा दे भी देते, तब भी नीतीश महागठबंधन में टिकने वाले नहीं थे. तब वह कोई अन्य मुद्दा बनाते.

आखिर नीतीश ने ऐसा क्यों किया? बिहार में बुधवार और गुरुवार को हुए जनादेश के सियासी पलटकांड का सबसे बड़ा यक्षप्रश्न यही है. नीतीश 17 सालों तक भाजपा के साथ रहे. केंद्र में मंत्री और राज्य में मुख्यमंत्री.

अब से चार साल पहले भाजपा से अपना सम्बन्ध तोड़ने के कुछ ही दिनों के अंदर नीतीश ने 18 फरवरी, 2014 की एक सभा में कहा, ‘मिट्टी में मिल जाऊंगा लेकिन अब कभी भाजपा के साथ नहीं जाऊंगा.’

उन्होंने मोदी की अगुवाई वाली भाजपा को अटल-आडवाणी की भाजपा से अलगाते हुए यह भी कहा कि जब हम एनडीए में शामिल हुए थे, तब भाजपा ऐसी सांप्रदायिक पार्टी नहीं थी. इसलिए उन्होंने मोदी की ‘सांप्रदायिक-फासीवादी भाजपा’ से किनारा कर लिया. फिर नीतीश मिट्टी में मिल जाने के बजाय भाजपा में क्यों मिले?

पटना में जनादेश के सियासी-अपहरण का बेहद शर्मनाक और खौफनाक दृश्य क्यों उपस्थित कराया? वैसे ही जैसे कोई संगठित गिरोह वक्त लगाए बगैर बड़े स्मार्ट ढंग से ‘अपना काम’ कर जाता है. वह संजीदगी के साथ विधानसभा भंग करने का या किसी नये नेता को सरकार गठित करने का मौका देने का भी राज्यपाल से आग्रह कर सकते थे.

पर उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया? बिहार में यकायक गठबंधन-बदल का यह सियासी राज अब भी बरकरार है. बिहार के सियासी हलकों में यह चर्चा सरगर्म है कि नीतीश काफी दिनों से भारी दबाव और तनाव में थे.

वह विपक्षी नेताओं से सियासी मसलों पर मुलाकात और बैठक करने से भी बचने लगे थे. लेकिन केंद्र की मौजूदा सरकार और सत्ताधारी पार्टी से उनके चैनल खुले हुए थे. इसमें उनकी पार्टी के सिर्फ दो ही नेताओं को संवादी के तौर पर रखा गया था. दोनों राज्यसभा के सदस्य हैं. अन्य नेताओं को कुछ भी नहीं मालूम था.

कहा ये भी जा रहा है कि तेजस्वी पर एफआईआर दर्ज कराने का फैसला भी नीतीश को महागठबंधन से हटने का रास्ता बनाने के लिए ही किया गया. बेनामी सम्पत्ति की ब्यौरेवार जानकारी भी राज्य स्तर से ही केंद्र को भेजी गई.

इसमें लालू यादव के एक अत्यंत निकटस्थ व्यक्ति ने खास भूमिका निभाई, जिसके परिवार के कुछ सदस्य स्वयं एक बड़े घोटाले के आरोपी हैं. बहरहाल, नीतीश के राजनीतिक-हृदयांतरण की असल कहानी अब तक बयां हुई कहानी से कहीं ज्यादा दिलचस्प होगी.

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