पितृसत्ता को चुनौती देने वाले समाज सुधार आंदोलनों को मज़बूत बनाना ज़रूरी

पितृसत्ता का प्रभाव देश के ज़्यादातर नागरिकों पर ही नहीं, बल्कि सरकार, प्रशासन और न्यायपालिका जैसे संस्थान भी इसके असर से बचे हुए नहीं हैं, जिन पर लैंगिक न्याय स्थापित कराने का दायित्व है.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

पितृसत्ता का प्रभाव देश के ज़्यादातर नागरिकों पर ही नहीं, बल्कि सरकार, प्रशासन और न्यायपालिका जैसे संस्थान भी इसके असर से बचे हुए नहीं हैं, जिन पर लैंगिक न्याय स्थापित कराने का दायित्व है.

Indian Women Reuters
(फोटो: रॉयटर्स)

‘तीन तलाक़’ के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत एक सही दिशा में उठाए गए कदम के तौर पर किया जाना चाहिए, जो सभी धार्मिक समुदायों और उससे भी बढ़कर समाज में लैंगिक न्याय को आगे बढ़ाएगा. इस क्रूर और अमानवीय प्रथा की शिकार हुईं बेहद हिम्मतवाली मुस्लिम औरतों के समूह को भी सलाम, जो इस मामले को सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट के सामने लेकर आईं.

लैंगिक न्याय के सवाल को अक्सर ‘कॉमन सिविल कोड’ (समान नागरिक संहिता) का नारा लगा कर भटका दिया जाता है. ऐसी कोई संहिता आकर्षक नज़र आ सकती है, लेकिन जिस तरह से इसका लगातार ज़िक्र हर तरह की औरतों के लिए एक रामबाण के तौर पर किया जाता है, वह एक साथ कई समस्याएं खड़ी भी करता है और कई समस्याओं को नज़रअंदाज़ भी कर देता है.

इस संहिता के भीतर किन चीज़ों को शामिल किया जाएगा, यह स्पष्ट करने की अब तक कोई कोशिश नहीं हुई है. न ही किसी ने यह बताया है कि इसमें शादी, तलाक़, गुज़ारा भत्ता, बच्चों के संरक्षण (कस्टडी) उत्तराधिकार, वैवाहिक संपत्ति (मेट्रिमोनियल प्रॉपर्टी : शादी के बाद पति-पत्नी की संपत्ति) का हक़ आदि को लेकर क्या प्रावधान किया जाएगा.

ये वैसे सवाल हैं, जिनको लेकर सभी समुदायों के भीतर बहस चल रही है. इस बात की गुंजाइश काफी कम दिखती है कि कोई भी समुदाय अपने अटूट क़ानूनों का त्याग करने के लिए राज़ी होगा, जिनका धर्म और रीति-रिवाज़ों द्वारा निर्माण किया गया है और ‘पवित्र चीज़’ होने का दर्जा दिया गया है.

मिसाल के लिए, क्या हिंदू समुदाय के सदस्य हिंदू अविभाजित परिवार क़ानून का त्याग करने के लिए तैयार होंगे, जिनसे उन्हें करों में भारी छूट मिलती है? यह कई सवालों में से बस एक सवाल है. किसी भी सूरत में बहुत दूर भविष्य में एक दोषरहित समान नागरिक संहिता का वादा, जो शायद कभी दिन का सूरज न देख पाए, लैंगिक न्याय और सामाजिक सुधार के लिए अभियानों और संघर्षों को शुरू करने के आड़े नहीं आ सकता है.

एआईडीडब्ल्यूए (ऑल इंडिया वुमंस डेमोक्रेटिक एसोसिएशन), जिस स्त्री संगठन की मैं सदस्य हूं, के अलावा स्त्री आंदोलन में लगे कई दूसरे संगठन लंबे अरसे से सभी समुदायों के भीतर लैंगिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए समान अधिकार और समान क़ानून की वकालत करते रहे हैं.

साथ ही हम औरतों को विभिन्न अधिकार और सुरक्षा की गारंटी देने वाले और सभी औरतों पर समान रूप से लागू होने वाले सेकुलर क़ानूनों के दायरे को बढ़ाने की भी मांग करते रहे हैं. हमने पूरी तरह से उन पक्षपातपूर्ण कानूनों को हटाने के लिए भी व्यापक अभियान चलाया है, जो विभिन्न समुदायों को प्रभावित करते हैं.

हमने सीरियाई ईसाई समुदाय को उत्तराधिकार का अधिकार दिलाने के लिए मैरी रॉय द्वारा चलाए के अद्भुत संघर्ष को भी समर्थन दिया और हम ईसाई पादरियों और ईसाई समुदाय के बड़े तबके द्वारा तलाक़ और उत्तराधिकार आदि से संबंधित क़ानूनों में बदलाव के लिए चलाए गए संघर्ष के साथ भी खड़े हुए.

हमने तीन तलाक़, हलाला, बहु-विवाह आदि के ख़िलाफ़ हस्ताक्षर अभियान चलाया, जिसमें लाखों मुस्लिम पुरुषों और महिलाओं ने हिस्सेदारी की. हमने ज़बरदस्त साहस के साथ इन मुद्दों को उठाने वाले मुस्लिम महिला संगठनों को भी अपना समर्थन दिया.

हम और नारीवादी आंदोलन से जुड़े कई दूसरे लोगों ने जिन चंद सेकुलर क़ानूनों के लिए लड़ाई लड़ी है और जीत हासिल की है, वे हैं- घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ क़ानून, कार्यस्थल पर यौन हमलों के ख़िलाफ़ क़ानून, संशोधित दहेज निषेध क़ानून और बलात्कार विरोधी क़ानून आदि.

इन सारे कानूनों को भारी विरोध के बाद पारित किया गया. आज ये क़ानून भले लागू हो चुके हैं, लेकिन हम इन कानूनों के प्रावधानों के पालन से ज़्यादा इनके उल्लंघन के मामले देख रहे हैं. गहरे तक जड़ जमाई हुई पितृसत्ता श्रेष्ठ से श्रेष्ठ तरीके से बनाए गए क़ानूनों को लागू करने के रास्ते में भी बार-बार रुकावट की तरह आ खड़ी होती है.

पितृसत्ता का प्रभाव सिर्फ देश के ज़्यादातर नागरिकों पर ही नहीं है, बल्कि सरकार, प्रशासन और न्यायपालिका जैसे संस्थान भी इसके असर से बचे हुए नहीं हैं, जिन पर इन और दूसरे क़ानूनों को लागू कराने का दायित्व है.

एक तरफ बलात्कार, दहेज संबंधी हिंसा, घरेलू हिंसा और कार्यस्थलों पर यौन हिंसा के मामलों में कई गुना बढ़ोतरी देखी जा रही है, वहीं दूसरी तरफ कुछ मामलों में इनसे जुड़े कानूनों की या तो धज्जियां उड़ाई जा रही हैं या दूसरे मामलों में इन्हें लागू ही नहीं किया जा रहा है.

हाल ही में हमने ख़ुद सुप्रीम कोर्ट को दहेज निषेध अधिनियम (डाउरी प्रिवेंशन एक्ट) की धारा 498 ए के तहत झूठे मुकदमे दायर किए जाने के बारे में बात करते और इस संबंध में दिशा-निर्देश जारी करते देखा. इन निर्देशों से लाखों पीड़ित औरतों को थोड़ी सी राहत देने वाली यह धारा हाथी के दिखावटी दांत जैसी होकर रह जाएगी.

यह तब है, जब पुलिस रिकॉर्ड ख़ुद हमें यह बताते हैं कि इस धारा के तहत दायर किए गए मुकदमों में सिर्फ 8 प्रतिशत ही झूठे पाए गए हैं. सच्चाई ये है कि वैवाहिक और घरेलू हिंसा के ज़्यादातर मामले आज भी दर्ज ही नहीं किए जाते हैं, इन मामलों में अभियोजन काफी धीमी गति से और ढीले-ढाले तरीके चलता है और दोष सिद्धि की दर भी काफी कम है.

घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ क़ानून के तहत औरतों को सुरक्षा दी गई है, लेकिन ज़्यादातर सरकारों ने इस अधिनियम के तहत निर्देशित किए गए प्रोटेक्शन ऑफिसरों की नियुक्ति नहीं की है और न्याय की मांग करने वाली औरतों के प्रति पुलिस थानों का रवैया काफी गैर-दोस्ताना है.

कार्यस्थलों पर यौन हिंसा के ख़िलाफ़ अधिनियम के साथ न सिर्फ नियोक्ताओं के द्वारा, बल्कि ख़ुद सरकार के द्वारा किसी अनचाहे अनाथ जैसा व्यवहार किया जाता है. दोनों के द्वारा इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के सख्त दिशा-निर्देशों का लगातार उल्लंघन किया जाता है और कई मामलों में, जैसा कि हाल ही में दिल्ली के एक पांच सितारा होटल से जुड़े मामले में देखा गया, शिकायत करने वाली को ही अपनी नौकरी गंवानी पड़ी.

सम्मान के नाम पर किए जाने वाले अपराधों के ख़िलाफ़ क़ानून सरकारी विभागों में धूल फांक रहा है. इसे महिला संगठनों द्वारा महिला और बाल-कल्याण मंत्रालय के साथ सलाह-मशविरा करके तैयार किया गया था और करीब पांच साल पहले सरकार के पास भेजा गया था.

यह कितना ज़रूरी क़ानून है, इसका अंदाजा इस तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि कुल हत्याओं में ‘सम्मान के नाम पर किए जाने वाले अपराधों’ का हिस्सा करीब 30 प्रतिशत बताया जाता है. लेकिन दबंग समुदायों के वोटों पर निर्भर सरकारों में इस ज़रूरी क़ानून को पारित और लागू करने की कोई इच्छा नहीं दिखाई देती.

दरअसल, सरकार में बैठे लोगों का लैंगिक न्याय का हिंसक विरोध करने का इतिहास काफी पहले, संविधान सभा के समय से ही शुरू होता है. आज जो लोग, तीन तलाक़ पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के लिए अपनी पीठ थपथपा रहे हैं और इसे ‘अपनी’ जीत बता रहे हैं, वे डॉ. आंबेडकर द्वारा तैयार किए गए हिंदू कोड बिल के ख़िलाफ़ विद्वेषपूर्ण अभियान चलाने वालों में सबसे आगे थे.

और कोई नहीं, देश के पहले राष्ट्रपति ने बिल को पारित किए जाने की सूरत में इस्तीफा देने की धमकी दी थी. इसे कई दशकों में टुकड़े-टुकड़े में ही पारित किया जा सका और हिंदू औरतों के अधिकारों की रक्षा करने और उसमें विस्तार करने के लिए हिंदू क़ानून में सुधार का काम आज तक पूरा नहीं हुआ है.

सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला भी उम्मीदों पर पूरी तरह से खरा नहीं उतरता. यह ठीक है कि एक बार में तीन तलाक़ कहने की घृणित प्रथा को ‘असंवैधानिक’ घोषित कर दिया गया है (जो यह निस्संदेह है), लेकिन यह साफ नहीं है कि इस मामले पर कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने वाली पीड़ित महिलाओं को क्या राहत दी गई है?

अभी तक जो बात समझ में आई है, उसके मुताबिक ‘तीन तलाक़’ कहने वाले के ख़िलाफ़ कोई दंडात्मक कार्रवाई की भी व्यवस्था नहीं की गई है. सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ये है कि तीन तलाक़ से जुड़ी हुई ‘हलाला’ की बर्बर प्रथा को गैरक़ानूनी नहीं क़रार दिया गया है.

अगर माननीय न्यायधीशों ने यह व्यवस्था दी होती कि यदि दंपत्ति तीन तलाक़ के बाद समझौता करना चाहता है, तो उसे हलाला जैसी शर्त के बगैर ऐसा करने का अधिकार होगा, तो यह फैसला कइयों को असली वास्तविक राहत देने वाला साबित होता.

ऐसा कहने का मकसद कहीं से भी इस फैसले की अहमियत को कम करके आंकना नहीं है. पिछले कुछ वर्षों में अदालतों ने हिंदू, ईसाई और मुस्लिम समुदायों की औरतों द्वारा झेली जाने वाली कई मुश्किलों को दूर किया है. विभिन्न समुदायों के अन्यायपूर्ण और असमान क़ानूनों में सुधार लाने और उन्हें समाप्त करने की इस प्रक्रिया को और आगे बढ़ाए जाने की ज़रूरत है.

साथ ही लैंगिक न्याय के लिए सेकुलर क़ानूनों को विस्तार देने और उन्हें मज़बूत किए जाने की भी ज़रूरत है. उन्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे कानून सही तरीके से अपने पूरेपन में लागू किए जाएं न कि उनके कठोर प्रावधानों को कमज़ोर किया जाए. दुर्भाग्यजनक ढंग से जैसा उन्होंने करना शुरू कर दिया है.

हालांकि, सबसे ज़्यादा अहम दकियानूसी विचारों और पितृसत्ता को चुनौती देने वाले समाज सुधार आंदोलनों को मज़बूत बनाना और उन्हें प्राथमिकता में शामिल करना है. लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट ख़ुद दूसरे समुदाय वाले व्यक्ति से शादी करने वाली एक 26 साल की औरत को सुरक्षा देने में नाकाम रहता है, तो ऐसा होने की कोई सूरत नज़र नहीं आती.

ऐसा तब नहीं किया जा सकता है जब केंद्र और ज़्यादातर राज्यों की सत्ता में बैठे हुए लोगों द्वारा सबसे ज्यादा प्रतिगामी और स्त्री-विरोधी विचारों को प्रोत्साहन दिया जाए. ऐसा तब भी नहीं किया जा सकता है, जब अक्षय तृतीया जैसे ‘पवित्र’ मौकों पर लाखों बाल विवाहों की इजाज़त दी जाए.

यह तब भी नहीं किया जा सकता है, जब मैरिटल रेप को पवित्र क़रार दिया जाए. यह उन लोगों द्वारा भी सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है, जो अनुच्छेद 377 को बचाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं. यह उस सूरत में भी नहीं किया जा सकता, जब ‘एंटी रोमियो स्क्वाड’ सड़कों पर खुला घूमे और नैतिकता के दारोगा संवैधानिक पदों पर विराजमान हों.

यह उनके द्वारा भी नहीं किया जा सकता है, जो औरतों को उनके घरों, दफ्तरों और सार्वजनिक जगहों पर सुरक्षा देने वाले कानूनों को लागू करने इनकार करें. यह तब तक नहीं किया जा सकता है, जब तक मनु की प्रतिमा एक हाईकोर्ट की शोभा बढ़ाए.

(लेखिका कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ इंडिया की सदस्य और आॅल इंडिया डेमोक्रेटिक वुमेंस एसोसिएशन की अध्यक्ष है.)