कोविड-19 से हुईं मौतें आम मौत नहीं हत्याएं हैं, जिसकी ज़िम्मेदार मोदी सरकार है

अगर भाजपा सरकार को कोविड की दूसरी लहर के बारे में पता नहीं था, तब यह लाखों को इकट्ठा कर रैली कर रही थी, या संक्रमण के प्रकोप को जानते हुए भी यह रैली कर रही थी, दोनों ही सूरतें बड़ी सरकारी नाकामी की मिसाल हैं. पता नहीं था तो ये इस लायक नहीं है कि गद्दी पर रहें और अगर मालूम था तो ये इन हत्याओं के लिए सीधे ज़िम्मेदार हैं.

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(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

अगर भाजपा सरकार को कोविड की दूसरी लहर के बारे में पता नहीं था, तब यह लाखों को इकट्ठा कर रैली कर रही थी, या संक्रमण के प्रकोप को जानते हुए भी यह रैली कर रही थी, दोनों ही सूरतें बड़ी सरकारी नाकामी की मिसाल हैं. पता नहीं था तो ये इस लायक नहीं है कि गद्दी पर रहें और अगर मालूम था तो ये इन हत्याओं के लिए सीधे ज़िम्मेदार हैं.

(फोटो: पीटीआई)
(फोटो: पीटीआई)

इनके ऐसे कुतर्कों से इस बार चुप मत होना-

1. वो कहेंगे, अमेरिका, इटली, फ्रांस, ब्राज़ील में भी कोरोना से मौतें हुई हैं.
2. वो कहेंगे, वहां भी वेंटिलेटर, दवाई की कमी से लोग मरे हैं.
3. वो कहेंगे, सिर्फ मोदी ही नहीं, सब चुनावी रैली कर रहे थे.

आइए, अब हर पॉइंट से एक-एक करके निपटते हैं.

1. बिल्कुल सही, कोरोना से मौतें हर देश में हुईं. अभी तक औपचारिक आंकड़ों के हिसाब से अमेरिका और ब्राज़ील में हिंदुस्तान से ज़्यादा मौतें हुई हैं, लेकिन हिंदुस्तान वाली ज़्यादातर मौतें कोरोना से नहीं, बदइंतज़ामी से हुई हैं.

ये ऑक्सीजन की कमी हुई हैं, दवाइयां, बेड और अस्पताल सुविधाएं न मिलने से हुई हैं. तो ये मौतें नहीं हत्याएं हैं, सरकारी हत्याएं हैं. अगर ये सब सुविधाएं होती तो ये हत्याएं नहीं कहलाती, मौतें कहलाती.

अगर मां-बाप की लापरवाही से बच्चे की मौत हो जाए, तो वो भी भारत के कानून के तहत अपराध है.

मरने वाले सब जीते-जागते लोग थे, जिनसे हम बात करते थे. वो हमारे दोस्त थे, रिश्तेदार थे, हमारे सुख-दुख के साथी थे, जिनकी सरकारी हत्याएं हमारी आंखों के सामने हुई हैं, जिनको हमने तड़प-तड़पकर, एक-एक सांस के लिए लड़ते हुए, मरते हुए देखा है.

और हम सबको पता है ये बस औपचारिक आंकड़े हैं. हम सब को मालूम है कि हर जगह मौतें छुपाई जा रही हैं. अमेरिका में मौतें छुपाना मुश्किल है, मगर भारत में हमें मौतें छुपाने का सालों का अनुभव है.

तो ये मौतें नहीं सरकारी हत्याएं हैं.

2. ये भी सही है बाहर के देशों में लोग वेंटिलेटर, दवाइयों आदि की कमी से मरे. लेकिन कोरोना की पहली लहर में.

मोदी सरकार के पास पूरे एक साल का समय था, उसने लोगों से अरबों रुपये पीएम केयर्स फंड के नाम पर इकट्ठा किए. बच्चों ने अपने गुल्लक तक तोड़कर इनको पैसे दिए, लेकिन मोदी सरकार ने क्या किया?

जनवरी में अपना सीना ठोंकना शुरू कर दिया था, खुद अपनी पीठ थपथपानी शुरू कर दी थी, की हमने कोरोना पर विजय पा ली है. इन्होंने दुनिया भर के विशेषज्ञों पर उंगली उठानी शुरू कर दी. हमेशा की तरह इन लोगों ने पढ़े-लिखे लोगों को नीचा दिखाना शुरू कर दिया.

सोचिये, इन लोगों को दूसरी लहर के बारे में पता ही नहीं था, तभी तो ये बंगाल में लाखों लोगों को इकट्ठा करके रैलियां कर रहे थे. या पता था और ये फिर भी, रैलियां कर रहे थे. दोनों ही सूरतें बहुत बड़ी सरकारी नाकामी की मिसाल हैं.

पता नहीं था तो ये इस लायक नहीं है कि गद्दी पर बैठें, और अगर पता था तो ये इन हत्याओं के सीधे-सीधे ज़िम्मेदार हैं.

हद तो यह भी है इन्होंने किसी गली के गुंडे की तरह टीकों को भी अपने कब्ज़े में ले लिया, राज्यों की सरकारें इनसे टीकों की भीख मांग रही थी. आज भी भारत की दो प्रतिशत जनता का भी पूरी तरह से टीकाकरण नहीं हुआ है.

ये ऑक्सीजन प्लांट बना सकते थे, दवाइयों का इंतज़ाम कर सकते थे, राज्य सरकारों की बेड बढ़ाने में मदद कर सकते थे क्योंकि पीएम केयर्स का अरबों रुपया इनके पास था. पर इन्होंने नहीं किया. एक साल से ये उस पैसे पर नाग बनकर बैठे हैं.

तो ये मौतें, आम मौत नहीं हत्याएं हैं, और मेरे हिसाब से मोदी सरकार पर आईपीसी के तहत आपराधिक लापरवाही का मुक़दमा चलना चाहिए. उन्हें इन हत्याओं की सज़ा मिलनी चाहिए.

3. ये भी सही है कि चुनावी रैलियां सबने कीं, लेकिन एक फर्क है. सरकारी तंत्र किसके पास है? आपको पता है भारतीय सरकार कितना विशाल जीव है. किसी ऑक्टोपस की तरह इसकी पहुंच आपके जीवन के हर क्षेत्र में है.

आप क्या खाते हैं, कितना कमाते हैं, क्या देखते हैं और क्या बेचते हैं, इनको सब पता है. और आप मुझे कह रहे हैं इनको कोरोना की दूसरी लहर के बारे में पता नहीं था?

या तो आप मासूम बन रहे हैं या मासूम बनकर इन कोरोना हत्याओं को ढकने की कोशिश कर रहे हैं. इन्हें सब कुछ पता था. लेकिन इन्हें बंगाल जीतना था. सैंकड़ो रैलियां करनी थी.

इसीलिए इन्होंने बंगाल जैसे राज्य जहां एक चरण में मतदान हो सकता था, वहां आठ चरण में मतदान करवाए. इन्हें हर क्षेत्र में वक़्त चाहिए था. रैलियां जो करनी थी, प्रोपगैंडा करना था. इनके मुंह खून लगा है, इन्हें चुनाव जीतने की हवस है. चाहे लोग जिएं या मरें.

आप कहेंगे चुनाव जीतना हर पार्टी का मक़सद है. जी नहीं, देश के लिए काम करना, देश को आगे बढ़ाना, देश के ठीक करना. ये हर पार्टी का मकसद है. और जब महामारी का प्रकोप सर पर हो, तब देश को बचाना हर पार्टी का मकसद है.

तो बात ये है, इन्हें सब कुछ पता था, और इन्होंने जानबूझकर के देश को इस मौत के कुएं में फेंक दिया. जो बाक़ी दल हैं, उनके पास भारत सरकार का तंत्र नहीं है. उन्होंने बस इनका अनुसरण किया.

जैसा कहते हैं, जैसा राजा, वैसा देश. और मैंने राजा शब्द का इतेमाल इसलिए किया क्योंकि गणतंत्र में राजा होता नहीं है, पर हमारा वाला अपने आप को राजा ही समझता है.

इस बार इनके कुतर्कों का मुंहतोड़ जवाब देना. चुप मत होना. ये चिल्ला-चिल्लाकर सबको चुप करा देते हैं. अर्थियां हमने अपने कंधों पर उठाई हैं. इन चिताओं की रोशनियां हमें आगे का रास्ता दिखा रही हैं. और आगे का रास्ता साफ़ है, हमें मिलकर इनकी हेकड़ी निकालनी है, इनका अभिमान, इनका घमंड तोड़ना है.

(दाराब फ़ारूक़ी पटकथा लेखक हैं और फिल्म डेढ़ इश्किया की कहानी लिख चुके हैं.)