देश जब कोविड- 19 से जूझ रहा है तब ओडिशा के माली पहाड़ के लोग कंपनी और सरकार से जूझ रहे हैं. वे सरकार से पूछ रहे हैं कि महामारी में लोगों की आवाजाही तो प्रतिबंधित हो गई है, पर कंपनियों का आदिवासी इलाकों में प्रवेश कब बंद किया जाएगा?
जब आदमी मिट्टी, पानी, पेड़ को मारना शुरू करता है तब इसके बाद उसके खुद के मरने का समय आ जाता है. देश में ज़मीन, जंगल, नदी की हत्या के साथ आम लोगों के मरने की व्यवस्था भी लंबे समय से हो रही थी. बहुतोंं ने कुछ महसूस नहीं किया, पर आदिवासियों ने इस माटी, पानी और पेड़ों को गहराई से समझा है.
वे समझते हैं कि जीवन वास्तव में ज़मीन या माटी से जुड़ा है. आदमी के स्वस्थ रहने के लिए माटी का जिंदा और स्वस्थ रहना जरूरी है क्योंकि वहीं से जीवन की शुरुआत होती है. माटी में बैक्टीरिया और कृमि के होने से वह जीवित और स्वस्थ रहती है. ये मिट्टी में पोषक तत्वों को तैयार करते हैं जो पेड़-पौधों तक पहुंचते हैं और फिर पेड़ पौधों से मनुष्य तक.
आदिवासी इस प्रक्रिया को समझते और जीते हैं. उनके इस अंतरसंबंध की चर्चा एंथ्रोपोलॉजिस्ट फेलिक्स पडेल और फिल्मकार समारेंद्र दास अपनी किताब ‘आउट ऑफ दिस अर्थ’ में प्रमुखता से करते हैं.
इस संबंध को वे लोग कभी नहीं समझ सकते जो जंगल, ज़मीन, नदी और पेड़ पौधों से कटे हैं. जो मिट्टी के संपर्क से दूर हैं, जो कुछ उपजाना और उन्हें बचाना भूल चुके हैं. जो हर चीज मुनाफे के हिसाब से देखते हैं.
प्रकृति के साथ इस संबंध को भूलने और इससे कटी हुई एक जीवनशैली देने में कंपनी, औद्योगिक समाज और सरकारें अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. इस तरह बहुत पहले से किसी जनसंहार की एक धीमी तैयारी होती है.
आज एक देश को, जो विश्व गुरु बनकर पूरी दुनिया को सांस लेने के बाद सांस छोड़ने का तरीका सिखा रहा था, उसे सांस लेने में खुद परेशानी हो रही है. जीवन, देश, लोकतंत्र से ऑक्सीजन वैसे ही गायब होने लगा जैसे नदियों से गायब था. आदमी के मरने से पहले वे ऑक्सीजन की कमी से मर रही थीं.
इस बीच, जिन पर व्यवस्था दुरुस्त रखने की ज़िम्मेदारी है वे फिर से धरती की और खुदाई करने में व्यस्त हैं. बाकी लोग जिनके मुंह में मुनाफा कमाने का खून लगा है और जो मुनाफा बनाते रहने को अभिशप्त हैं, वे कालाबाजारी करने में व्यस्त हैं. ये सब मिलकर मनुष्य और मनुष्यता की ही कब्र खोद रहे हैं.
वर्चस्ववादी संस्कृतियों के सबकी कब्र खोदने की इस कुसंस्कृति के खिलाफ ओडिशा के माली पहाड़ के लोग 19 सालों से निरंतर लड़ रहे हैं. माली पहाड़ का क्षेत्र बॉक्साइट से भरा है. इसीलिए कंपनियों की गिद्ध दृष्टि इस पर है.
देश जब कोविड- 19 से जूझ रहा है तब ओडिशा के माली पहाड़ के लोग कंपनी और सरकार से जूझ रहे हैं. वे सरकार से पूछ रहे हैं कि कोविड में लोगों का बाहर निकलना तो बंद कर दिया जाता है पर कंपनियों का आदिवासी इलाकों में घुसना कब बंद किया जाएगा?
वे ऐसी कंपनी, सरकार और औद्योगिक समाज खिलाफ लड़ रहे हैं जो किसी देश को महामारी के मुंह तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाती है. फेलिक्स पडेल और समारेंद्र दास अपनी पुस्तक में ओडिशा में लोगों के ऐसे संघर्ष को और बॉक्साइट खनन को एक व्यापक नजरिये से देखते हैं.
वे कहते हैं कि सुरक्षा के नाम पर दुनिया के जितने भी देश हथियार बनाते और उनका संग्रह करते हैं, वे ही एल्यूमीनियम के सबसे बड़े खरीददार हैं. बॉक्साइट खनन वाले इलाकों में वे निवेशक के रूप में बड़ी भूमिका निभाते हैं. खनन और मेटल टेक्नोलॉजी का संबंध हथियारों के इतिहास से है.
दूसरे विश्व युद्ध के समय जब ब्रिटेन के हथियार उद्योग को आपूर्ति के लिए एल्यूमीनियम की मांग काफी बढ़ी, तब अलकन ने अपने भारतीय सहयोगी के रूप में इंडाल (एल्यूमीनियम कंपनी ऑफ इंडिया) की स्थापना की. उसी अलकन के साथ इंडाल कंपनी के संयुक्त सहयोग से 1950-56 में ओडिशा में पहली बार बॉक्साइट का व्यवसाय शुरू हुआ.
हथियारों की होड़ के इस सामूहिक पागलपन ने न सिर्फ पर्यावरण और संसाधनों को बर्बाद करने में, बल्कि इंसानों का जीवन स्तर नीचे ले जाने, महामारी लाने में भी बड़ी भूमिका निभाई है. इस होड़ ने ही ओडिशा के आदिवासी इलाकों में लोगों का जीवन तबाह किया है.
आज भी ओडिशा में बॉक्साइट खनन के खिलाफ जब कई गांव एक साथ संघर्ष करते हैं तो वे सिर्फ़ अपने लिए ही नहीं, बल्कि हथियारों की इस होड़ के एक वैश्विक पागलपन के खिलाफ भी लड़ रहे हैं, जिसके विध्वंस का शिकार सिर्फ़ आदिवासी ही नहीं बल्कि देश-दुनिया के सभी लोग होते हैं. आदिवासी ही असल अर्थ में शांति स्थापित करने के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे हैं.
ओडिशा में 5 मई से 15 दिनों के लिए लॉकडाउन लगा हुआ है. पर लॉकडाउन शुरू होने से पहले माली पर्वत सुरक्षा समिति, कोरापुट के नेतृत्व में 44 गांव के लोग खनन कंपनियों के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज़ करने के लिए, प्रतिरोध का पर्व मनाने के लिए माली पहाड़ पर एकजुट हुए.
वे माली पहाड़ पर स्थित एक विशाल गुफा में पाकुली देवी (पहाड़ की देवी) की पूजा करने के लिए जुटे. यह गुफा अभी तक किसी तरह के शोध और शहरी लोगों के प्रवेश से बची हुई है. यह गुफा इतनी बड़ी है कि इसमें हजार से भी अधिक लोग एकत्र हो सकते हैं. बाहर तेज धूप पर अंदर ठंड थी.
लोगों के अनुसार कई सालों से इस गुफा में ‘पाकुली देवी’ की पूजा हो रही है. पहले सिर्फ एक गांव के लोग ही यहां नियमित रूप से पूजा करते थे, लेकिन लॉकडाउन शुरू होने से पहले माली पर्वत सुरक्षा समिति के नेतृत्व में यहां सामूहिक रूप से पहाड़ की पूजा शुरू की गई. लोगों ने तय किया है कि इसे हर साल नियमगिरि पर्व की तरह ‘प्रतिरोध के पर्व’ के रूप में मनाया जायेगा.
माली पहाड़ पर ‘पाकुली देवी’ की कोई मूर्ति या तस्वीर नहीं है. उसका कोई चेहरा नहीं है. पहाड़ ही उसका चेहरा है. इसलिए गुफा के मुहाने पर और अंदर महिलाएं पूजा करती हैं.
गुफा के भीतर एक और संकरी गुफा है. यहां पूजा करने के लिए कोई पुजारी नहीं, बल्कि हर गांव से एक गुरु मां और बेजुनी आतीं हैं. वे ही पूजा के बाद घंटों पहाड़ की आत्मा से बात करती हैं. वे प्रकृति से आह्वान करती हैं कि लोगों को तबाह होने से बचा लो. कोई रास्ता, कोई तरीका सुझाओ कि हम भविष्य की तबाही से बच सकें.
कई गांवों से आई गुरु मां और बेजुनी एक साथ बैठकर, सामने चावल के ऊपर रखे दीये की रोशनी में लगातार गुहार लगती हैं. एक साथ रोती हैं और जब शांत होती हैं तब चावल के दाने उठाकर हाथ आगे बढ़ाती हैं. उनकी मदद के लिए बैठी दूसरी मांएं और कुछ सहयोगी पुरुष उनके हाथ से चावल के दाने ले लेते हैं और कपड़ों पर उन्हें बिखेर कर उनकी गिनती करते हैं.
इन सबके माध्यम से वे कोई संदेश ढूंढते हैं जो प्रकृति उन्हें देना चाहती हैं. इस वर्ष महामारी को देखते हुए बड़े जुटान को स्थगित कर दिया गया. लेकिन 16 गांव की 16 गुरु मां और बेजुनियों ने ‘पाकुली देवी’ की पूजा की और उससे संवाद स्थापित किया. इसमें आदिवासी ही नहीं उनके साथ लंबे समय से रहने वाले अन्य समुदाय के लोग भी शामिल हुए.
ओडिशा में आदिवासियों के साथ दलित और अन्य लोग भी साथ मिलकर प्रतिरोध कर रहे हैं. यहां कई आदिवासी आंदोलन का नेतृत्व दलित समुदाय के लोग करते दिखाई पड़ते हैं. यहां दलित और आदिवासियों के एक साथ संघर्ष का परिदृश्य देश के बाकी हिस्सों से अलग है.
आदिवासियों की संस्कृति, जीवनशैली सबकुछ सिर्फ़ खनन से ही नहीं, बल्कि बड़े बांध की परियोजनओं से भी ध्वस्त हुए हैं. खनन और बड़े बांधों का निर्माण कैसे साथ-साथ चलता है, इसका अंतर्संबंध कैसा है, कैसे इन दोनों का संबंध वैश्विक संघर्षों में अपनी बड़ी भूमिका तय करता है? इसका उदाहरण ओडिशा में देखने को मिलता है, जिसकी चर्चा फेलिक्स पडेल और समारेंद्र दास आगे करते है.
ओडिशा में बड़े बांधों के आस पास बॉक्साइट रिफाइनरी मिलेंगे और स्मेल्टर भी. कोरापुट की दामनजोड़ी एल्यूमीनियम रिफाइनरी एशिया की सबसे बड़ी रिफाइनरी है. यहां 1970 के सर्वे में पाए गए सबसे बडे़ बॉक्साइट डिपोजिट क्षेत्र कोरापुट के पंचपत माली से खनन होकर बॉक्साइट आता था. इसके खनन के वक्त एक नई सरकारी कंपनी बनाई गई, जो नाल्को (नेशनल एल्युमिनियम कंपनी) कहलाई.
जब 1976 में अपर कोलाब बांध का निर्माण शुरू हुआ तो इसे उसी सीडब्ल्यूपीसी (सेंट्रल वाटर एंड पॉवर कमीशन) ने शुरू किया, जिसने हीराकुंड बांध को भी शुरू किया था. इसे बनाने के समय इसके बहुत फायदे गिनाए गए थे, पर इस दौरान करीब 14,000 लोग विस्थापित हुए.
दामनजोड़ी के एल्यूमीनियम, अंगुल में स्थित स्मैल्टर तक जाता है जिसे नाल्को ने ओडिशा में बनाया था, जहां सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 4,000 लोग विस्थापित हुए थे. ओडिशा में ही वर्ल्ड बैंक के फंड से निर्मित इंद्रावती बांध से 40,000 से अधिक और बालीमेला बांध से 60,000 लोग विस्थापित हुए थे.
नााल्को ने सिर्फ पंचपत माली ही नहीं देवमाली पहाड़ को भी लीज पर भी ले रखा था. देवमाली पहाड़ में और कई पहाड़ियां शामिल हैं, जिनमें माली पहाड़ भी एक है. माली पहाड़ पर बॉक्साइट के खनन से 44 गांव प्रभावित होंगे, 23 जीवित जल स्रोत भी नष्ट होंगे.
लोगों की संस्कृति और प्रकृति दोनों पर पड़ने वाले प्रभाव की व्याख्या शब्दों में संभव नहीं है. इस मुद्दे पर ही माली पहाड़ के 44 गांव 2002 से ही लगातार संघर्ष कर रहे हैं.
माली पर्वत सुरक्षा समिति के अध्यक्ष दासी नंदी बाली कहते हैं, ‘2002 में केंद्र सरकार द्वारा माली पहाड़ पर हिंडालको को बॉक्साइट खनन की अनुमति दी गई थी. खनन के लिए पर्यावरण एसेसमेंट रिपोर्ट में कहा गया कि इस पहाड़ के आसपास कोई गांव नहीं है, किसी तरह की खेती नहीं होती और यहां कोई पूजास्थल भी नहीं है, कोई जंगल भी नहीं है. जब लोगों को इसकी जानकारी मिली तब 44 गांव के लोगों ने बैठक की. लोगों ने अपर कोलाब डैम का विस्थापन देखा था. वे दामनजोड़ी क्षेत्र के हालात भी देख रहे हैं. वे ऐसी स्थिति खुद के लिए और अपने बच्चों के लिए नहीं चाहते थे, इसलिए सर्व सहमति से विरोध शुरू हुआ. दस साल के लगातार विरोध के कारण खनन को काफी हद तक रोक दिया गया. लेकिन पहले जहां सिर्फ 0.1 मिलियन टन बॉक्साइट खनन का प्रोजेक्ट था उसे अब आठ गुना बढ़ा दिया गया है. उधर, इलाके में नए सिरे से कंपनियों का प्रवेश जारी है और वहीं लोगों का प्रतिरोध भी जारी है.’
लोग देख रहे हैं कि कैसे आज दामनजोड़ी का पूरा इलाका लाल मिट्टी, पानी और फैक्ट्री के धुएं से प्रदूषित हो चुका है. दामनजोड़ी में बांस के पेड़ों के झुंड के भीतर जिस झाकरी देवी की आदिवासी व अन्य स्थानीय लोग मिलकर पूजा करते थे, वहां धीरे-धीरे मंदिर बन गया.
कंपनियों के साथ मंदिरों का संबंध कैसे बनता और मजबूत होता है, यह आदिवासी इलाकों में बड़ी स्पष्टता से देखा जा सकता है. प्रकृति के बीच जंगल, पहाड़, नदी, चट्टान, बांस, फूल, पत्तों के बीच सहज भाव से रहने वाले आदिवासियों के देवा, देवी अचानक मंदिरों में स्थापित कर हिंदू धर्म का हिस्सा घोषित कर दिए जाते हैं.
इन देवा, देवी को जंगल से उठाकर मंदिरों के भीतर डालने और उनके लिए मंदिर निर्माण का प्रस्ताव भी कंपनी ही देती हैै. आदिवासी जब प्रस्ताव नहीं मानते, तो आरएसएस जैसे कई हिंदू संगठन आदिवासी इलाकों में कंपनी के प्रस्तावों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी लेते हैं. यह सब दिखाता है कि कैसे खनन, बांध परियोजना और संगठित धर्मों का व्यवसाय सब एक साथ चलता है.
इस विषय में सामाजिक कार्यकर्ता शरण्या नायक कहती हैं, ‘दुनिया में कोई भी संगठित धर्म वस्तुत: प्रकृति को बचाने वाला धर्म नहीं है. उसमें प्रकृति को एक प्रतीक में समेट दिया गया है. उस प्रतीक की पूजा करते रहने का अर्थ ही उनके लिए प्रकृति की पूजा है. इसलिए सरकार और कंपनियों की पूरी कोशिश रहती है कि आदिवासी प्रकृति की पूजा छोड़ दें. वे प्रकृति के रूप में किसी प्रतीक की पूजा करने लगें. ऐसे प्रतीकों के लिए मंदिर बनवाने का प्रस्ताव भी रखा जाता है. इस तरह शायद एक दिन कोई डोंगर देव, पाकुली देवी का मंदिर बना दिया जाएगा और तब पहाड़ का उत्खनन करना भी आसान होगा. पहाड़ों, जंगलों की पूजा करने, उनके बीच पर्व मनाने की आदिवासी आस्था खनन के रास्ते में बाधक बनती है. यही कारण है कि उनके आस्था स्थलों को नकारा जाता है. उन्हें जबरन हिंदू धर्म का हिस्सा बताकर अपने हिसाब से ढालने की कोशिश की जाती है. माली पहाड़ के लोगों के बीच भी उनकी संस्कृति को खत्म करने और कंपनी का रास्ता तैयार करने में हिंदू और ईसाई धर्म भी अपनी भूमिका निभाते हैं. औद्योगिक समाज की भी यही सोच रहती है क्योंकि आदिवासी जितना प्रकृति से दूर होंगे ऐसे समाज के गठन के रास्ते ही साफ होते हैं. ‘
आदिवासी आंदोलनों के छात्र और स्वतंत्र शोधार्थी राजा रमण कहते हैं, ‘विकास के जिस मॉडल पर दुनिया बहुत आगे बढ़ गई है, आज उसी का नतीजा यह महामारी है, जिसमें लाखों लोग एक साथ जान गंवा रहे हैं. यह प्राकृतिक आपदा नहीं है, बल्कि कुछ लोगों द्वारा पैदा किया गया संकट है. इसमें ज़िम्मेदार लोग खुद आंख मूंदकर बैठे हुए हैं. आदिवासी इस मॉडल के खिलाफ हमेशा लड़ता रहा है और आज भी लड़ रहा है. दूसरी अहम बात है कि आज कंपनियों के सहयोग से जो शिक्षा आदिवासियों की नई पीढ़ी को दी जा रही, वे उसी समझ को मजबूत करते हैं जो आदिवासी और प्रकृति के खिलाफ काम करती है.’
ओडिशा के गोंड आदिवासी कवि हेमंत दलपति लंबे समय से यहां के लोगों के संघर्ष से जुड़े हुए हैं. वे कहते हैं, ‘प्रकृति और प्रतिरोध दो ही बातें आदिवासियों के लिए महत्वपूर्ण हैं. प्रकृति के साथ जीना और उसे नष्ट करने वाली शक्तियों के खिलाफ निरंतर लड़ना. इसी से आदिवासियों की दुनिया बचेगी और उनके बचने से ही दुनिया के बचने के रास्ते भी खुलेंगे.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)