अगर अपशब्दों के स्कूल में वे पास हो जाएंगे तो हमारा समाज फेल हो जाएगा

समाज की नैतिकताएं कमज़ोर हुई हैं. उन्हें कमज़ोर किया गया है. क्योंकि इन्हीं कमज़ोरियों ने जाने कितनों को मज़बूत किया हुआ है.

/

समाज की नैतिकताएं कमज़ोर हुई हैं. उन्हें कमज़ोर किया गया है. क्योंकि इन्हीं कमज़ोरियों ने जाने कितनों को मज़बूत किया हुआ है.

parliyamen aliza
(इलस्ट्रेशन: एलिज़ा बख़्त)

प्रधानमंत्री को अपशब्द कहना बुरा है. किसी को भी अपशब्द कहना बुरा है. तुलनाएं वैसे भी उतनी सटीक नहीं होती. चाहे गधे की इंसान से की जाए या इंसान की गधे से. गालियां तो और भी ठीक नहीं होतीं. चाहे छोटी हों या बड़ी. समाज की बुरी चीजें इनसे ठीक नहीं होती.

बुरा इंसान भी इससे ठीक नहीं होता. कोई मंत्री और प्रधान भी इससे ठीक नहीं होता. ऐसा करने से उसकी विचारधाराएं भी ठीक नहीं होती. उन्हें ठीक करने की उलझन में हम ही बेठीक होने लगते हैं. वही रास्ता अपना लेते हैं जिससे हमारा कोई वास्ता नहीं होना चाहिए था.

ये प्रवृत्तियां लगातार बढ़ रही हैं और बढ़ाई जा रही हैं. क्योंकि शासन में आने से पहले जिस समझ को बीजेपी ने बनाया था. जिस समझ को बीजेपी ने बढ़ाया. समाज बहुत कम लौटा रहा है अभी उन्हें और बाकियों को भी. अभी बहुत कुछ बकाया है.

अभी कितना कम तो लोगों ने चुकाया है. उन्माद जो भरा जा रहा है. हत्याओं तक के बाद जैसा-जैसा कहा जा रहा है. वह हमारी संवेदना और नैतिकता दोनों को कमजोर कर रहा है. वह हमारे समाज को आदमख़ोर कर रहा है.

भाजपा ने शासन में आने से पहले जो शुरू किया था कांग्रेस उसे अब आगे बढ़ा रही है. जैसे शासन में आने का रास्ता बना रही है. अब उनकी नकल कर रही है कांग्रेस. अकल कम लगा रही है. कि धीरे-धीरे बीजेपी होने जा रही है, कांग्रेस. जब बीजेपी हो जाएगी कांग्रेस.

बीजेपी कुछ और हो जाएगी. थोड़ा उससे बढ़कर जो वह थी अब तक. फिर लोगों को दो बीजेपी में से किसी एक को चुनना पड़ेगा. यही विकल्प बचेगा. दो बुराइयों में से किसी एक को चुनना होगा. ज़्यादा नफ़रत और बड़ी गाली नहीं सुन सकते तो छोटी सुनना होगा. यह सब हमें अभ्यस्त बना देगा. हम इसके आदी हो जाएंगे.

कुछ भी सुनकर चौंकने की आदत आधी हो जाएगी. उन्माद की राजनीति समाज की आदत बदल देगी. हमें पता भी न चलेगा कि हम बदल गए. हम विकास कर गए या फिसल गए. बुलेट ट्रेन से पहले बुलेट थ्योरी वे ला चुके हैं. बगैर किसी घोषणा के वे दुष्प्रचार को प्रचार में बदल दे रहे हैं.

बेबात को समाचार में बदल दे रहे हैं. इस बहाने वे अपने वादों से कहीं और निकल ले रहे हैं. सवा अरब से अधिक की आबादी वाला जो मुल्क है हमारा. जिसका समाज एक बरस में दो-दो बार हप्ते भर गधे पर बहस कर रहा है. उसका कितना कुछ तो मर रहा है.

महंगाई से वह खुद भी मर रहा है. पर वह गधे पर बहस कर रहा है. उसने गाय पर बहस की. उसने मुर्गों पर बहस की. उसने ट्रोल और गुर्गों पर बहस की. उसकी बहस में वह गायब है जिन कारणों से वह खुद गायब हो रहा है. ये बहसें कहां से आ रही हैं? क्यों आ रही हैं? कौन इन्हें बना रहा है? कौन किसे सुना रहा है. इसे समझने की जरूरत है.

सत्ता में आने से पहले यह बीजेपी का सफल आयोजन था. दुष्प्रचार का प्रचार करना. मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की तरह-तरह की तस्वीरें बनाना. नैतिकता की किसी भी लकीर को मिटाना.

कांग्रेसी नेताओं को किसी और फ्रेम में लगाना. लोगों का इन तस्वीरों पर हंसना-हंसाना. लोगों का इन तस्वीरों पर चिढ़ना-चिढ़ाना. जैसे को तैसा करना. ऐसे को वैसा करना. वे सफल हुए थे. दूसरे हार गए थे. जो सफल हुए हार वे भी गए हैं.

दुष्प्रचारों और अनैतिकताओं की जो गंदगी उन्होंने फैलाई है. वह उन्हीं की ज़िंदगी के आसपास बिखरी पड़ी है. उसकी ठोकरें उन्हें भी लगनी हैं और लग रही हैं. जबकि उनकी सफलता के कारण सिर्फ दुष्प्रचार नहीं थे. पुरानी सरकार के अपने किए धरे भी थे. पर दुष्प्रचार के प्रचार में वे सफल माने गए.

सफल हो जाने के इस फार्मूले का कांग्रेस अब नकल कर रही है. इस नकल में और बेहतर प्रदर्शन के लिए और ज़्यादा गिरना होगा उसे. नैतिकता में गिरने के लिए अगर बीजेपी ने थोड़ी भी जमीन नहीं छोड़ी है तो कांग्रेस को गड्ढे बनाकर गिरना होगा.

ख़ामियों को ठीक ढंग से न ला पाने की नाकामी में चीजों को और विद्रूप करके दिखाना होगा. परेशानियों और बदहालियों को किसी नफ़रत से ढंक देना होगा. बीजेपी की नकल में बीजेपी हो जाना होगा या बीजेपी से कुछ और ज़्यादा.

ऐसे में अगर वे हार भी गए तो भी वे सफल होंगे जो नफरत के लिए मेहनत कर रहे थे. जो अभी भी नफरत के लिए मेहनत कर रहे हैं. जो विद्रूप ढंग से सारी नैतिकताओं को ताक पर धर रहे हैं.

नफ़रत का जो रजिस्टर है. वहां बहुत कम जगह बची है. उन्होंने बहुत कम जगह बचने दी है. वही उनके आंकड़ों का स्रोत है. वही उनका वोट है. इसी में वे लगातार आंकड़े भर रहे हैं. लोग गाय के नाम पर मर रहे हैं. लोग तेल के दाम पर चूं भी नहीं कर रहे हैं.

एक अच्छे समाज के लिए जिस रजिस्टर को खाली होना चाहिए था. वहां उन सबका ख़ून बिखरा पड़ा है जो नफ़रत नहीं चाहते. जो असहमति जताने का हक़ चाहते हैं. जो बोलने की आज़ादी चाहते हैं. जो सबके लिए मुल्क को उतना ही मानते हैं. जितना सरकारें जुल्म को मानती हैं.

सबकी गरिमा मिट रही है. कुछ चिंतित हैं, कुछ मिटाने की चिंता में हैं. प्रधानमंत्री की गरिमा, मंत्री की गरिमा और संत्री की गरिमा के ख़याल उसी समाज से आएंगे, जिसे आप बनाएंगे. आने वाले प्रधानमंत्री की भी गरिमा बचेगी जब पुराने प्रधानमंत्री की गरिमा बचाएंगे.

पदों की गरिमा चुनिंदा नहीं हो सकती. भक्ति चुनिंदा हो सकती है. सरकारें बदलने के साथ भक्त बदल जाएंगे और अपने-अपने प्रधानमंत्री की गरिमा बचाने के लिए चिल्लाएंगे. अपने नेताओं की गरिमा बचाने के लिए वे और नीचे गिर जाएंगे.

समाज की नैतिकताएं कमजोर हुई हैं. उन्हें कमजोर किया गया है. क्योंकि इन्हीं कमजोरियों ने जाने कितनों को मजबूत किया हुआ है. वे मजबूत होने के लिए इन्हीं कमजोरियों को अपना रहे हैं. जब हम इसे और कमजोर करेंगे वे और गिरेंगे.

वहीं समाज भी गिरेगा अपनी आदतों और समझदारियों के साथ. समाज के गिरने की जमीन को हमें बचाना चाहिए. अंधेरे में घेरे जाने की मुहिम से हमें बचना चाहिए. बचना उन्हें भी चाहिए जो फिलवक्त इसे बेचने में लगे हैं.

संघ के स्कूलों में एक नैतिक शिक्षा की किताब होती थी. शायद अब भी होती है. बीजेपी को उसे और छपवानी चाहिए और अपने भक्तों के बीच बंटवानी चाहिए. कांग्रेस को भी अपनी एक नैतिक शिक्षा की किताब बनानी चाहिए.

अगर अपशब्दों और विद्रूपताओं और अनैतिकता के स्कूल में ये पास हो गए तो हमारा समाज फेल हो जाएगा. जय-हिन्द जो बोलते हैं उनके लिए भी यह मुल्क जेल हो जाएगा.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq