भारत को ख़ुद को ऊर्जा बाज़ार में लंबे व्यवधान और मुद्रा की कमज़ोरी का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए, क्योंकि इनका आर्थिक विकास, आजीविका और रोज़गार पर गंभीर असर होगा.
नरेंद्र मोदी सरकार की एक आलोचना यह कहकर की जाती है कि इसके पास राज्य चुनावों के बीच शासन करने का बिल्कुल समय नहीं होता है. पिछले कुछ दिनों में जब रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते कच्चे तेल की वैश्विक कीमतें 120 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई और रुपया कमजोर होकर 77 रुपये प्रति डॉलर तक गिर गया, उस समय सरकार के आधा दर्जन मंत्री दिल्ली की जगह वाराणसी में डेरा जमाए हुए थे.
अगर भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) ने रुपये की कीमत को और गिरने से रोकने के लिए अपने भंडार से डॉलर की बिक्री नहीं की होती, तो रुपया और निचले स्तर पर पहुंच सकता था. कुछ दिन पहले तक भारत का केंद्रीय बैंक रुपये का समर्थन करने के लिए दो अरब डॉलर बिक्री कर चुका था. विशेषज्ञों ने पूर्वानुमान लगाया है कि निकट भविष्य में रुपया प्रति डॉलर 80 रुपये तक गिर सकता है.
मुद्रा की कीमतों में उतार-चढ़ाव का सीधा संबंध वैश्विक तेल बाजार और कच्चे तेल की कीमतों से है. यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि मुद्रा में 10 से 15 फीसदी अवमूल्यन बहुमुखी मुद्रास्फीति को बढ़ावा देगा क्योंकि इससे आयात की जाने वाली सभी वस्तुएं उतनी महंगी हो जाएंगी.
भारत पर जोखिम इसलिए ज्यादा है क्योंकि इसका विदेशी मुद्रा भंडार, भले ही 630 अरब डॉलर के राहत भरे उच्च स्तर हो, चीन या दक्षिण कोरिया की तरह मुख्य तौर पर निर्यात से होने वाली कमाई पर निर्भर नहीं है.
डॉलर भंडार मुख्यतौर पर विदेशी कर्ज और इक्विटी पोर्टफोलियो धन जैसी देनदारियों से बना है. यानी यह डॉलर भंडार वास्तव में हमारा नहीं है, बल्कि यह विदेशी निवेशकों पर हमारी देनदारी है. यह कमजोरी अभी जैसे हालात में खासतौर पर काफी उभर कर सामने आ जाती है.
आर्थिक सर्वेक्षण का आकलन है कि वैश्विक कच्चे तेल की कीमत में हर दस डॉलर वृद्धि जीडीपी में 0.3 प्रतिशत अंकों में गिरावट लाने का काम करती है और चालू खाते के घाटे को 10 अरब डॉलर से बढ़ा देती है. यानी, अगर कच्चा तेल वर्तमान स्तर पर बना रहता है, तो जीडीपी में अच्छी-खासी गिरावट आ सकती है और चालू खाते का घाटा जीडीपी के करीब 2 फीसदी तक बढ़ सकता है.
यह रुपये को और ज्यादा दबाव में ले आएगा, ब्याज दरों में वृद्धि का दबाव बनेगा. यह एक ऐसे दुष्चक्र का निर्माण करेगा जिसमें विनिमय दर के स्थिर होने तक विदेशी निवेश में भी कमी आ सकती है. अभी तक वित्त मंत्री की तरफ से इस बाबत कोई बयान नहीं आया है कि कि ज्यादातर बजट अनुमानों की समीक्षा की जरूरत होने की स्थिति में आर्थिक प्रबंधन किस तरह से ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो जाएगा?
आर्थिक सर्वेक्षण और बजट में 2022-23 में वैश्विक कच्चे तेल की कीमतों के 70 से 75 डॉलर रहने का अनुमान लगाया गया था.
केंद्र सरकार ने 4 नवंबर 2021 को वैश्विक कच्चे तेल की 75 डॉलर प्रति बैरल कीमत को घरेलू कीमतों से समायोजित किया था और यूपी चुनावों के कारण इसे तीन महीने तक उसी स्तर पर स्थिर रखा. अब बाजार मूल्यों के हिसाब से समायोजित करने के लिए डीजल-पेट्रोल की कीमतों में 60 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी करने की जरूरत होगी.
सैद्धांतिक तौर पर अगर तेल की घरेलू कीमतों को वैश्विक कच्चे तेल के साथ जोड़ने की मार्केट-लिंक नीति के अनुसार 4 नवंबर के बाद की पूरी मूल्य वृद्धि की वसूली उपभोक्ताओं से करनी है, तो पेट्रोल ओर डीजल की कीमतें 150 रुपये प्रति लीटर से ज्यादा होनी चाहिए. लेकिन एक बार में कीमतों को इतना ज्यादा बढ़ाना राजनीतिक आत्महत्या के समान होगा.
पर अगर कीमतों को बढ़ाया नहीं जाता है तो इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन, एचपीसीएल, बीपीसीएल आदि जैसी तेल मार्केटिंग कंपनियों को इस नुकसान का बोझ उठाना पड़ेगा. अतीत की तरह सरकार इन कंपनियों के नुकसान की भरपाई करने के लिए ऑयल बॉन्ड जारी करने का विकल्प अपना सकती है, लेकिन यह समस्या का समाधान न होकर बस समस्या को स्थगित करने जैसा है.
ऐसे में सरकार के पास क्या विकल्प हैं? संभावना इस बात की है कि सरकार किस्तों में कीमतों में वृद्धि करेगी और रूस-यूक्रेन संघर्ष के जल्द से जल्द किसी तरह के कूटनीतिक समाधान निकलने की उम्मीद लगाएगी.
अगर अस्थायी युद्धविराम के रूप में कुछ आंशिक कूटनीतिक सफलता मिलती भी है, तो भी रूस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों को निकट भविष्य में तुरंत हटाए जाने की संभावना कम है. भारत को खुद को ऊर्जा बाजार में लंबे व्यावधान और मुद्रा की कमजोरी का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए, क्योंकि इनका आर्थिक विकास, आजीविका और रोजगार पर गंभीर असर होगा.
वर्तमान संकट ने उभर रही अर्थव्यवस्थाओं के लिए ज्यादा खतरा पैदा किया है, क्योंकि ऐसी स्थितियों में वैश्विक धन अमेरिकी ट्रेजरी की सुरक्षा की शरण लेना चाहता है. यह डॉलर को और मजबूत करता है और अमेरिकी बॉन्ड से होने वाली कमाई को कम करता है.
जैसा कि एसबीआई समूह की मुख्य आर्थिक सलाहकार सौम्या कांति घोष ने इंडियन एक्सप्रेस में (9 मार्च, 2022) को कहा है, यह अपने आप में विरोधाभासी है. वे कहती हैं, ‘यह विरोधाभासी इसलिए है, क्योंकि अमेरिका का चालू खाते का घाटा दुनिया में सबसे ज्यादा- भारत से 23 गुना ज्यादा है, लेकिन फिर भी मुद्रा के अवमूल्यन और ब्याज दरों के बढ़ने के तौर पर इन हालातों की मार सबसे ज्यादा भारत जैसी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ती है.’
यह प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के स्वाभाविक वैश्विक वित्तीय वर्चस्व का नतीजा है. हर आर्थिक संकट में वित्तीय धन अमेरिकी ट्रेजरी बॉन्डों में सुरक्षा खोजता है. यह स्थिति तब तक नहीं बदलेगी, जब तक अन्य बड़ी बाजार अर्थव्यवस्थाएं एक बड़ा आकार ग्रहण न कर लें और अपनी मुद्राओं में एक वैश्विक विश्वास पैदा न करें.
वर्तमान संकट में भारत को वैश्विक वित्त की वर्तमान संरचना के भीतर, जिस पर अमेरिका का दबदबा है, खुद को मजबूती के साथ खड़ा करना होगा. इस बात का दुख मनाना बेमानी है कि सबसे ज्यादा चालू खाते का घाटा होने के बावजूद हर संकट में अमेरिकी मुद्रा ओर मजबूत हो जाती है.
यूक्रेन के मौजूदा हालात के मद्देनजर भारत की मुद्रास्फीति के 7-8 फीसदी तक पहुंच जाने और जीडीपी वृद्धि के 4 फीसदी तक रहने का अनुमान लगाया जा सकता है. इन परिस्थितियों में भारत को अपने संसाधनों को बचाना चाहिए और सबसे पहले और सबसे बढ़कर अपनी खाद्य सुरक्षा का निर्माण करना चाहिए.
भारत को बाहर से आने वाली ऊर्जा जोखिमों को कम से कम करने के लिए अपने कोयला और गैस उत्पादन को भी चाकचौबंद करना होगा. इसके अलावा इसे अपने इंफ्रास्ट्रचर पाइपलाइन परियोजनाओं को भी इस तरह से प्राथमिकता में लाना होगा कि ज्यादातर इनपुट का इंतजाम स्थानीय स्तर पर ही हो जाए और आयातों पर निर्भरता कम से कम हो.
मुद्रा पर पड़ रहे दबाव के मद्देनजर आयातों की प्राथमिकता तय करना भी महत्वपूर्ण है. इन कदमों से भारत कुछ हद तक वैश्विक आर्थिक उठा-पटक से खुद को बचाकर रख पाने में कामयाब हो सकता है.
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