फेसबुक ने कई सरोगेट विज्ञापनदाताओं को भाजपा के प्रचार अभियान को गुप्त तरीके से फंड करने दिया, जिससे बिना किसी जवाबदेही के ज़्यादा लोगों तक पार्टी की पहुंच मुमकिन हुई.
यह द रिपोर्टर्स कलेक्टिव और एड वॉच द्वारा की जा रही चार लेखों की श्रृंखला का दूसरा भाग है. पहला भाग यहां पढ़ें.
नई दिल्ली: फेसबुक ने बड़ी संख्या में गुमनाम (घोस्ट) और सरोगेट विज्ञापनदाताओं को गुप्त तरीके से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के चुनाव अभियानों पर पैसे खर्च करने और भारत के सत्ताधारी दल को और अधिक दृश्यता (विजिबिलिटी) बढ़ाने की इजाजत दी. इस बात का खुलासा इस सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर 22 महीने और 10 चुनावों के दौरान दिए गए विज्ञापनों के विश्लेषणों से हुआ है.
इन विज्ञापनदाताओं ने मुख्य तौर पर भारत के सत्ताधारी दल या उसके नेताओं का प्रचार करने वाले विज्ञापन को दिखाने के लिए फेसबुक को दसियों लाख रुपये का भुगतान किया. इन विज्ञापनदाताओं ने या तो अपनी पहचान छिपाई या भाजपा के साथ अपने रिश्तों को छिपाया.
इन गुमनाम या सरोगेट विज्ञापनों को लगभग उतनी ही बार देखा गया, जितनी बार भारत की सत्ताधारी पार्टी द्वारा दिए गए विज्ञापनों को व्यूज मिले. हालांकि इन सरोगेट विज्ञापनों से इनके कंटेंट या उन पर हुए खर्च की जिम्मेदारी लिए बगैर ही पार्टी की विजिबिलिटी दोगुनी हो गई.
पिछले एक साल में भारत के एक गैर-लाभकारी मीडिया संगठन द रिपोर्टर्स कलेक्टिव (टीआरसी) और सोशल मीडिया पर राजनीतिक विज्ञापनों का अध्ययन करने वाले एड.वॉच ने फेसबुक पर फरवरी, 2019 से नवंबर, 2020 तक राजनीतिक विज्ञापनों पर 5,00,000 रुपये (6,529 डॉलर) खर्च करने वाले सभी विज्ञापनदाताओं की पड़ताल की.
इस पड़ताल के लिए मेटा (फेसबुक) के सभी प्लेटफॉर्मों पर राजनीतिक विज्ञापनों के डेटा को हासिल करने की इजाजत देने वाले पारदर्शी उपकरण एड लाइब्रेरी एप्लिकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफेस (एपीआई) का इस्तेमाल किया गया. लोकसभा चुनावों के अलावा इस अवधि के दौरान दिल्ली, ओडिशा, बिहार, हरियाणा, महाराष्ट्र जैसे कई राज्यों के भी चुनाव हुए.
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने पाया कि भाजपा और इसके उम्मीदवारों ने आधिकारिक तौर पर 26,291 विज्ञापन दिए, जिसके लिए कम से कम 10.4 करोड़ रुपये (1.36 मिलियन डॉलर) खर्च किए गए, जिससे इन्हें फेसबुक पर 1.36 अरब व्यूज मिले. इसके अलावा 23 गुमनाम और सरोगेट विज्ञापनदाताओं ने भी फेसबुक पर 34,884 विज्ञापन दिए, जिसके लिए उन्होंने फेसबुक को उन्होंने 5. 83 करोड़ रुपये (761,246 डॉलर) से ज्यादा का भुगतान किया.
इन विज्ञापनदाताओं ने अपनी असली पहचान या पार्टी के साथ अपने संबंधों को प्रकट किए बगैर मुख्य तौर पर भाजपा का प्रचार करने या इसके विरोधियों का दुष्प्रचार करने वाले वाले विज्ञापन दिए. इन विज्ञापनों को जबरदस्त तरीके से 1.31 अरब से ज्यादा व्यूज मिले.
इसकी तुलना में भाजपा की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के लिए गुमनाम या सरोगेट विज्ञापनदाताओं की संख्या काफी कम थी. कांग्रेस और इसके उम्मीदवारों ने आधिकारिक तौर पर 6.44 करोड़ रुपये खर्च करके 30,374 विज्ञापन दिए, जिससे उन्हें 1.1 अरब व्यूज मिले.
सिर्फ दो सरोगेट विज्ञापनदाताओं (विज्ञापनों पर 500,000 रुपये (6,529 डॉलर) से ज्यादा खर्च करने वाले) ने कांग्रेस पार्टी के साथ अपने संबंधों को उजागर किए बगैर कांग्रेस समर्थक पेजों पर 3,130 विज्ञापन देने के लिए 23 लाख रुपये खर्च किए, इन विज्ञापनों को 7.38 करोड़ व्यूज मिले.
एक अन्य पेज ने मुख्य तौर पर पिछले साल अप्रैल में पश्चिम बंगाल चुनावों में मोदी के खिलाफ नकारात्मक अभियान के लिए 1,364 विज्ञापनों पर 49.5 लाख रुपये खर्च किए, जिन्हें 6.24 करोड़ से ज्यादा व्यूज मिले.
कांग्रेस के लिए सरोगेट विज्ञापन करने वालों की संख्या इतनी कम होने का एक कारण शायद यह रहा कि 2019 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले फेसबुक ने पार्टी का प्रचार करने वाले विज्ञापनदाताओं पर बड़ी कार्रवाई की थी. उस समय फेसबुक ने कांग्रेस आईटी सेल से जुड़े और अपनी पहचान गुप्त रखकर पार्टी का प्रचार करने वाले 687 पेजों को हटाने की घोषणा की थी.
इस कार्रवाई के दौरान फेसबुक ने अपनी पहचान और भारतीय जनता पार्टी के साथ अपने संबंधों को छिपाने वाले सिर्फ एक पेज और 14 एकाउंट्स को हटाया था.
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव की एक साल लंबी पड़ताल से अब यह संकेत मिलता है कि इस कार्रवाई ने जहां कांग्रेस को अनुचित तरीके से फेसबुक उपयोगकर्ताओं को प्रभावित करने से रोका है, वहीं भाजपा के खिलाफ ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया और बड़ी संख्या में सरोगेट विज्ञापनदाताओं ने भारत के सत्ताधारी दल का प्रचार करना जारी रखा है.
हालांकि, इनमें से कुछ तथ्यों की रिपोर्टिंग पहले की जा चुकी है, लेकिन सरोगेट विज्ञापनों और इसके प्रभाव के असली आकार का अभी तक आकलन और खुलासा इससे पहले नहीं हुआ है.
भारतीय कानून प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सरोगेट विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाते हैं. इनका मकसद राजनीतिक पार्टियों और इनके उम्मीदवारों को इन व्यापक पहुंच वाले माध्यमों पर प्रदर्शित सामग्री के लिए जिम्मेदार ठहराना और यह सुनिश्चित करना है कि उम्मीदवारों द्वारा किया जाने वाला चुनावी खर्चा तयशुदा कानूनी सीमा के भीतर रहे.
लेकिन जैसा कि हमने इस श्रृंखला की पहली कड़ी में बताया था कि भारत के चुनाव आयोग ने इस खामी के बारे में अवगत होते हुए भी इन नियमों का विस्तार सोशल मीडिया तक नहीं किया है.
फेसबुक ने इस उद्योग के प्रतिनिधि इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया से भारत के चुनाव आयोग में इस बात की लॉबीइंग करने का दबाव बनाया कि आयोग चुनावों के दौरान सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर कठोर नियम न लगाए. इस बात की जानकारी हाल ही में फेसबुक की ह्विसिलब्लोअर फ्रांसिस हॉगेन द्वारा द्वारा लीक किए गए दस्तावेजों से हुई है.
इसके चलते फेसबुक पर सरोगेट विज्ञापनदाताओं को फलने-फूलने का मौका दिया, जिसका फायदा भाजपा को मिला.
सरोगेट विज्ञापन समेत राजनीतिक विज्ञापनों को लेकर ईमेल पर भेजी गई विस्तृत प्रश्नों की एक सूची के जवाब में मेटा ने कहा, ‘हम अपनी नीतियां किसी व्यक्ति की राजनीतिक स्थिति या पार्टी संबद्धता को केंद्र में रखे बिना समान रूप से लागू करते हैं. इंटेग्रिटी वर्क या कंटेंट को बढ़ावा देने के निर्णय किसी एक व्यक्ति द्वारा एकतरफा तरीके से नहीं किए जा सकते हैं और न ही किए जाते हैं; बल्कि, इनमें कंपनी में मौजूद सभी विभिन्न विचारों को शामिल किया जाता है.’
इसमें यह भी कहा गया है, ‘कोऑर्डिनेटेड इनऑथेंटिक बिहेवियर के खिलाफ हमारी कार्रवाई कभी नहीं रोकी गई और अप्रैल 2019 के चुनावों के बाद भी जारी है.’ मेटा की पूरी प्रतिक्रिया यहां पढ़ी जा सकती है.
इस बारे में भाजपा के मुख्य प्रवक्ता अनिल बलूनी और आईटी और सोशल मीडिया प्रमुख अमित मालवीय ने द रिपोर्टर्स कलेक्टिव द्वारा भेजे गए सवालों का कई बार रिमाइंडर भेजने के बावजूद जवाब नहीं दिया. चुनाव आयोग की तरफ से भी कोई जवाब नहीं मिला.
भाजपा का ‘सरोगेट इकोसिस्टम’
चुनावों को कथित तौर पर प्रभावित करने के लिए अमेरिका में फटकार खाने के बाद फेसबुक ने अपने मंचों पर राजनीतिक विज्ञापन देने वाले लोगों की पहचान और पते का सत्यापन करने के लिए 2018 में एक नीति बनाई. इसकी तरफ से सभी विज्ञापनदाताओं से यह स्वघोषणा करने के लिए भी कहा जाता है कि विज्ञापनों के लिए पैसा कौन दे रहा है.
पारदर्शिता का दावा करते हुए फेसबुक ने इन फंडिंग संबंधी जानकारी को राजनीतिक विज्ञापनों के साथ देना शुरू कर दिया. लेकिन यह प्रणाली विज्ञापनदाताओं को राजनीतिक उम्मीदवारों की तरफ से, उनसे अपने संबंधों को छिपाते हुए, प्रचार करने से नहीं रोकती.
कई विज्ञापनदाताओं ने ऐसी वेबसाइटों का पता दिया, जिनका या तो यूआरएल काम नहीं कर रहा था या यह एक महज एक शुरुआती पेज था, जिसमें इसके मालिकों के बारे में कोई जानकारी या इनकी फंडिंग करने वालों के कॉन्टैक्ट का कोई ब्योरा नहीं दिया था.
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव को भाजपा के साथ किसी प्रकार के संबंध का खुलासा किए बगैर पार्टी का प्रचार करने वाले जिन 23 विज्ञापनदाताओं का पता चला, उनमें से छह विज्ञापनदाताओं का संबंध भाजपा से जोड़ा जा सका.
मायफर्स्टवोटफॉरमोदी डॉट कॉम, नेशनविद नमो, नेशनविदनमो डॉट कॉम, भारत के मन की बात (myfirstvoteformodi.com, Nation with Namo, Bharat Ke Man kiBaat) (नमो यहां नरेंद्र मोदी का संक्षिप्त नाम है) अपने फेसबुक पेजों या वेबसाइटों पर भाजपा के साथ किसी औपचारिक संबंध को प्रकट नहीं करते हैं, लेकिन उन्होंने फेसबुक के एड प्लेटफॉर्म पर दिल्ली में भाजपा के मुख्यालय को अपने पते के तौर पर दर्ज किया है.
इन चार विज्ञापनदाताओं ने मिलकर 12,328 से ज्यादा भाजपा समर्थक विज्ञापनों पर 3.2 करोड़ रुपये (423,060 डॉलर) खर्च किए.
ब्लूक्राफ्ट डिजिटल, जिसने भाजपा समर्थक विज्ञापनों पर 13.3 लाख रुपये (17,366 डॉलर) खर्च किए, के निदेशक और चीफ एग्जीक्यूटिव अतीत में भाजपा के लिए काम कर चुके हैं. जबकि विज्ञापनदाता श्रीनिवासन श्रीकुट्टन, जिन्होंने भाजपा समर्थक विज्ञापनों पर 13.9 लाख रुपये (18,150 डॉलर) खर्च किए, दक्षिणपंथी सोशल मीडिया टिप्पणीकार अभिनव खरे के फेसबुक पेज पर भी विज्ञापन देते हैं.
खरे ने अतीत में एशियानेट न्यूज नेटवर्क के सीईओ के तौर पर काम किया था, जिसकी पेरेंट कंपनी ज्यूपिटर कैपिटल की स्थापना भाजपा सांसद राजीव चंद्रशेखर द्वारा की गई है.
एड लाइब्रेरी पर अन्य 17 विज्ञापनदाताओं के ब्योरे अब या तो बंद पड़े वेबसाइटों तक ले जाते हैं या समाचार और विश्लेषण की शक्ल में भाजपा समर्थक सामग्री का उत्पादन करने वाले पोर्टलों तक, जिनके मालिकों के बारे में अक्सर कोई जानकारी नहीं मिलती.
इस सीरीज के पहले भाग में हमने यह बताया था कि कैसे रिलायंस द्वारा फंड किए गए एक मीडिया फर्म ने ऐसे विज्ञापनों का प्रकाशन किया, जिनमें भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रचार करने और उनके विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए असत्यापित या तोड़ी-मरोड़ी गईं सूचनाओं को समाचार सामग्री के तौर पर पेश किया गया. कंपनी ने 55.70 लाख (72,730 डॉलर) से ज्यादा अपने विज्ञापनों पर खर्च किए.
हमें ‘द-पल्स’ नाम का एक और पोर्टल मिला, जो खुद को ‘मीडिया/न्यूज कंपनी’ बताता है और जिसने फेसबुक विज्ञापनों के लिए 9,05,000 रुपये (11,817 डॉलर) खर्च किए, जिनमें से ज्यादातर भाजपा और मोदी का गौरवगान करने वाले थे, जिनमें बीच-बीच में मतदाताओं से मतदान करने की अपील की गई थी.
द पल्स का फेसबुक पेज और उसकी वेबसाइट, दोनों ही जगहों पर इसके मालिक या इसमें पैसा लगाने वालों के बारे में कोई ब्योरा नहीं मिलता है.
इसी तरह एक फेसबुक पेज ‘दिसतोय फरक शिवशाही परत’ (DistoyFarakShivshahiParat) (जिसका मराठी से अनुवाद होगा: फर्क साफ है, शिवाजी का शासन वापस लौट आया है) ने मुख्य तौर पर 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के दौरान भाजपा का प्रचार करने वाले 1,748 विज्ञापन प्रकाशित किए.
इन विज्ञापनों पर 22.40 लाख रुपये (29,249 डॉलर-) खर्च करने वाला विज्ञापनदाता डीएफएसपी 2019 (संभवतः पेज के नाम का संक्षिप्ताक्षर) के तौर पर इससे संबंधित व्यक्ति या संगठन के बारे में किसी ब्योरे के बगैर सूचीबद्ध है. इसके डिस्क्लोजर में सूचीबद्ध ‘शिवशाहीपरत डॉट कॉम’ नहीं खुलता.
कई अन्य भाजपा-समर्थक विज्ञापनदाताओं के लिए फंड देने वालों के तौर पर जिनका उल्लेख किया गया है, वह एड के आर्काइव डेटा में डेड या निष्क्रिय वेबसाइटों तक लेकर जाते हैं, जबकि उनके फेसबुक पेज सक्रिय हैं.
इनमें घरघररघुवर डॉट कॉम (इसने झारखंड चुनावों के दौरान 9,54,000 रुपये (12,457 डॉलर) खर्च किए, मैंहूंदिल्ली डॉट कॉम और पलटूआमआदमीपार्टी डॉट कॉम (दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान क्रमशः 7,59,000 रुपये (9,911 डॉलर) और 10.50 लाख रुपये (13,710 डॉलर) खर्च किए), फिरएकबारईमानदारसरकार डॉट कॉम (इसने हरियाणा चुनावों में 28 लाख रुपये (36,561 डॉलर) खर्च किए) और अघाड़ीबिगाड़ीडॉट कॉम (इसने महाराष्ट्र चुनावों में 15 लाख रुपये (19,586 डॉलर) खर्च किए).
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव इनमें से कुछ वेबसाइट के आर्काइव किए गए पेजों को खोजने में सफल रहा, जिसका मतलब है कि अतीत में ये पेज सक्रिय थे. लेकिन यह सुनिश्चित नहीं कर पाया कि क्या इनका पार्टी के साथ किसी औपचारिक संबंध की घोषणा की गई थी.
हमें कई अन्य भाजपा समर्थक विज्ञापनदाता भी मिले. इनमें मोदीपारा डॉट कॉम (इसने 7,17,000 रुपये (9,362डॉलर) खर्च किए), 2020 मोदीसंगनीतीश (इसने 7,05,000 रुपये (9,206डॉलर) खर्च किए), निर्ममता डॉट कॉम (इसने 18 लाख रुपये (23,503 डॉलर) खर्च किए), दफ़्रस्ट्रेटेडबंगाली डॉट कॉम (इसने 11.50 लाख रुपये (15,016 डॉलर) खर्च किए), राष्ट्रीय जंगल दल (इसने 10.70 लाख रुपये (13,971 डॉलर) खर्च किए) और भक बुड़बक (685,000 रुपये (8,944 डॉलर) खर्च किए) की फंडिंग करने वाले व्यक्ति या संगठन के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है.
फेसबुक का कहना है कि वह तथ्यात्मक तरीके से अपनी पहचान और संबंधों को नहीं उजागर करने वाले विज्ञापनदाताओं के बारे में पता लगने पर उन पर कार्रवाई करती है, जिसमें उनके विज्ञापनों को बंद करना या उनके पोस्टों या पेजों को हटाना. लेकिन ऊपर वर्णित सभी विज्ञापनदाताओं में से इसने सिर्फ कुछ पेजों के विज्ञापनों को बंद किया, वह भी तब जाकर ये विज्ञापन, कुछ मामलों में तो 10 दिनों तक चल चुके थे.
जब तक माय फर्स्ट वोट फॉर मोदी, भारत के मन की बात, दिसतोय फरक शिवशाही परत और राष्ट्रीय जंगल दल के पेजों को बंद किया गया, तब तक उन्हें क्रमश: 16.19 करोड़, 14.57 करोड़ और 1.53 करोड़ बार देखा जा चुका था.
कांग्रेस के साथ अपना किसी भी तरह का संबंध उजागर किए बगैर पार्टी के लिए प्रचार करने वाले दो विज्ञापनकर्ता थे- करण गुप्ता और निशांत एम. सोलंकी, जिन्होंने क्रमश: 1,798 विज्ञापनों पर 14.80 लाख रुपये (19,325 डॉलर) और 1,332 विज्ञापनों पर 8,00,000 रुपये (10,446 डॉलर) खर्च किए.
एक अन्य पेज खोटीकरोक मोदी ने मुख्य तौर पर बंगाल चुनावों में मोदी के खिलाफ नकारात्मक प्रचार के लिए 1,364 विज्ञापनों पर 49 लाख रुपये (63,981 डॉलर) खर्च किए. इन विज्ञापनों को 6.2 करोड़ व्यूज मिले. और टीएनडिज़र्वबेटर डॉट इन ने तमिललाडु में भाजपा के सहयोगी ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्रकड़गम (अन्नाद्रमुक) के खिलाफ अभियानों में 839 विज्ञापनों पर 29 लाख रुपये (37,867 डॉलर) खर्च किए. इन विज्ञापनों को 5.25 करोड़ व्यूज मिले.
ये 5,00,000 रुपये (6,529 डॉलर) से ज्यादा खर्च करने वाले विज्ञापनदाता थे. ऐसे सरोगेट विज्ञापनदाता भी हो सकते हैं, जिन्होंने इससे छोटी राशियां खर्च की हैं, लेकिन ऐसे विज्ञापनों की वास्तविक संख्या तब तक नहीं जानी जा सकती है, जब तक कि फेसबुक और चुनाव आयोग गहराई से विज्ञापनदाताओं के विज्ञापनों और उनकी पहचान की जांच नहीं करते हैं.
डेटा हासिल करने और उसके विश्लेषण का तरीका
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव और एड.वॉच ने एड लाइब्रेरी एप्लिकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफेस (एपीआई) का इस्तेमाल किया जो फेसबुक द्वारा विज्ञापनदाताओं, रिसर्चरों और बाजार विशेषज्ञों को मुहैया कराया जाता है, ताकि वे इसके राजनीतिक विज्ञापनों के आर्काइव डेटा का विश्लेषण-परीक्षण कर सकें.
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव और एड वॉच ने सबसे पहले 18 नवंबर 2020 तक दिए गए सभी राजनीतिक विज्ञापनों के बारे में डेटा को डाउनलोड किया. इस दौरान कुल 5,36,070 विज्ञापन दिए गए थे.
कुल 8,359 विज्ञापनदाताओं (व्यक्ति और संगठन) ने 4,54,297 राजनीतिक विज्ञापनों पर 61.373 करोड़ रुपये (8.01 मिलियन डॉलर) खर्च किए. बाकी के विज्ञापन फंडिंग के स्रोत की जानकारी दिए बगैर प्रकाशित किए गए थे. फेसबुक का कहना है कि इसने बाद में ऐसे विज्ञापनों को हटा दिया.
अपने विश्लेषण के लिए हमने 5,00,000 रुपये (6,529 डॉलर) से ज्यादा खर्च करने वाले सभी विज्ञापनदाताओं की पहचान की. ऐसे विज्ञापनदाताओं की कुल संख्या 145 थी. इन्होंने मिलकर उस समय तक सभी राजनीतिक विज्ञापनों पर हुए खर्चे का दो तिहाई से ज्यादा खर्च किया था.
इस आंकड़े से हमने पार्टियों और उम्मीदवारों से अपने संबंध की घोषणा करने वाले विज्ञापनदाताओं को ऐसी घोषणा न करने वाले विज्ञापनदाताओं से अलग किया. घोषणा न करने वाले वर्ग के भीतर हम उनके घोषित पते या कॉरपोरेट रिकॉर्डों जैसी सूचनाओं के आधार पर बस कुछ का ही संबंध राजनीतिक पार्टियों से स्थापित कर पाए.
इस विश्लेषण का अंतिम निष्कर्ष यह था कि भाजपा न सिर्फ राजनीतिक विज्ञापनों के मामले में फेसबुक पर सबसे बड़ी विज्ञापनदाता थी, बल्कि इसके लिए सरोगेट विज्ञापनदाताओं ने प्लेटफॉर्म पर पार्टी की विजिबिलिटी को दोगुना कर दिया और दूसरी सबसे बड़ी विज्ञापनदाता कांग्रेस को काफी पीछे छोड़ दिया.
(कुमार संभव और श्रीगिरीश जलिहल रिपोर्टर्स कलेक्टिव के सदस्य हैं. नयनतारा रंगनाथन एड वॉच से जुड़ी शोधार्थी हैं.)
यह रिपोर्ट मूल रूप से अंग्रेज़ी में अल जज़ीरा पर प्रकाशित हुई है.