उत्तर प्रदेश में ‘एनकाउंटर राज’ पर उठते सवाल

बीते दस महीनों में उत्तर प्रदेश पुलिस ने औसतन प्रतिदिन 4 एनकाउंटर किए हैं. द वायर ने ऐसे 14 परिवारों से मुलाक़ात की, जिनका कोई सदस्य इस दौरान पुलिस एनकाउंटर में मारा गया.

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बीते दस महीनों में उत्तर प्रदेश पुलिस ने औसतन प्रतिदिन 4 एनकाउंटर किए हैं. द वायर ने ऐसे 14 परिवारों से मुलाक़ात की, जिनका कोई सदस्य इस दौरान पुलिस एनकाउंटर में मारा गया.

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शामली (उत्तर प्रदेश):  8 अक्टूबर, 2017 को जब फुरकान अचानक और सबको हैरत में डालते हुए अपने घर पहुंचा, तब उसके 12 और 10 साल के बेटे उसे पहचान नहीं पाए. उसके बेटों ने पिछले सात सालों से उसे नहीं देखा था, क्योंकि वह गांव के एक झगड़े के सिलसिले में विचाराधीन कैदी (अंडरट्रायल) के तौर पर मुजफ्फरनगर जेल में बंद था.

फुरकान को जब शामली जिले के तीतरवाड़ा गांव में गिरफ्तार किया गया उस वक्त उसकी उम्र 33 साल थी और वे आरी मशीन की एक स्थानीय इकाई में काम करता था. उसकी पत्नी नसरीन कहती है, ‘हमारे पास उसे रिहा कराने के लिए न पैसे थे न कोई जमानत देने वाला था, इसलिए उसे जेल से छूटा देखकर हम सब चकित रह गए.’

गांव वालों ने उसे बताया कि एक सप्ताह पहले फुरकान के मामले में सुलह कराने के लिए पुलिस शिकायतकर्ताओं से बातचीत करने आयी थी. यह रिहाई इसके बाद ही हुई. दो सप्ताह बाद, 23 अक्टूबर, 2017 को फुरकान एक ‘एनकाउंटर’ में पुलिस की गोली से मारा गया.

पुलिस का दावा था कि वह सहारनपुर, शामली और मुज़फ्फ़रनगर में कई डकैतियों में शामिल था. नसरीन कहती हैं, ‘मैं दो सवाल पूछना चाहती हूं. पहला, वह सात साल से जेल में था, फिर वह इन डकैतियों में कैसे शामिल हो सकता है? दूसरा, आखिर पुलिसवाले खुद से उसकी रिहाई के लिए बातचीत करने के लिए क्यों आए थे, जब वे उसका एनकाउंटर ही करना चाहते थे? क्या वे कोई बलि का बकरा खोज रहे थे?’

यूपी सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, जनवरी 2018 तक पुलिस ने 1,038 एनकाउंटर किए थे. इनमें 32 लोग मारे गए थे और 228 घायल हुए थे. इनमें पुलिस के चार जवानों को भी अपनी जान गंवानी पड़ी.

इन एनकाउंटरों में मारे जानेवालों में सबसे ज्यादा लोग पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चार जिलों- शामली, मुज़फ्फरनगर, सहारनपुर और बागपत के हैं. इन आरोपों के मद्देनजर कि इन एनकाउंटरों में से कुछ वास्तव में हिरासत में की गई न्यायेतर हत्याएं हो सकती हैं.

द वायर  ने मारे गए 14 लोगों के परिवार वालों से मुलाकात की और इन एनकाउंटरों से परिचित कई पुलिस अधिकारियों और आधिकारिक स्रोतों से बातचीत की. इस छानबीन से जो तस्वीर सामने निकलकर आती है, वह इन हत्याओं को लेकर जताए जा रहे सबसे बुरे संदेहों की पुष्टि करती है.

1. ‘आपराधिक परिवार’

जून, 2017 में इंडिया टीवी को दिए गए एक इंटरव्यू में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने कहा था, ‘अगर अपराध करेंगे, तो ठोक दिए जाएंगे.’ भले यह एक बड़बोलेपन से भरा हुआ बयान हो, लेकिन आदित्यनाथ के मन में पक रहा विचार उन कानूनों की धज्जियां उड़ानेवाला था, जिसकी रक्षा करने की उन्होंने शपथ ली थी.

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2012 के एक ऐतिहासिक केस में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था:

‘सिर्फ इसलिए कि कोई आरोपी खतरनाक अपराधी है, पुलिस को उसे जान से मार देने का अधिकार नहीं मिल जाता. पुलिस का काम आरोपी को गिरफ्तार करना और उन पर मुकदमा चलाना है. इस अदालत ने बार-बार बंदूक का ट्रिगर दबाने में आनंद पानेवाले पुलिस वालों चेतावनी दी है, जो अपराधियों को मार गिराने के बाद घटना को एनकाउंटर का नाम दे देते हैं.

ऐसी हत्याओं की निश्चित तौर पर भर्त्सना की जानी चाहिए. इन्हें हमारी आपराधिक न्याय की प्रशासनिक व्यवस्था में कानूनसम्मत नहीं माना जाता है. यह राज्य-प्रायोजित आतंकवादी के बराबर है.’

ऐसे स्पष्ट निर्देशों को ठेंगा दिखाते हुए मुख्यमंत्री ने दरअसल पुलिस को संदेश देने का काम किया. मुठभेड़ों की जिस तरह से झड़ी लगा दी गई, उससे यह बात साफ होती है.

जिस फुरकान का ‘एनकाउंटर’ किया गया, उसकी हड्डियां भी टूटी हुई थीं

मुज़फ्फ़रनगर पुलिस के मुताबिक, फुरकान पर 36 मामले थे और उस पर 50,000 रुपये का इनाम था. बुढ़ाना पुलिस स्टेशन के इंचार्ज चमन सिंह चावरा ने दावा किया कि 23 अक्टूबर, 2017 को रूटीन नाकाबंदी के दौरान दो मोटरसाइकिलों ने रुकने से मना इनकार कर दिया और इसकी जगह पुलिस पर गोलियां बरसाने लगे.

जवाबी गोलीबारी में फुरकान को चार गोलियां लगीं और वह घटनास्थल पर ही मारा गया, जबकि उसके दो साथी भागने में कामयाब हो गए. पुलिस ने फुरकान के पास से कई बंदूकें और गोलियां मिलने का भी दावा किया है.

नसरीन का कहना है कि 22 अक्टूबर को वह और फुरकान उसके भाई से मिलने के लिए बागपत के बड़ौत गया था. उसके बाद नसरीन की तबीयत ठीक नहीं थी, तो वह उसके लिए सेब खरीदने बाहर गया था और फिर कभी वापस नहीं लौटा.

वह पूछती है, ‘रिहाई के बाद दो हफ्ते तक उसने सारा वक्त हमारे साथ ही बिताया. तब उसने डकैतियां कब कीं? एनकाउंटर के बाद अखबारों ने भी उसकी 12 साल पुरानी फाइल फोटो छापी, जबकि दूसरे एनकाउंटरों में वारदात स्थल की तस्वीर छापी जाती है.’

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फुरकान की पत्नी नसरीन (फोटो: नेहा दीक्षित)

पुलिस ने फुरकान का शव और पोस्टमार्टम रिपोर्ट सौंपने के लिए नसरीन से 1,400 रुपए ऐंठे जिसका इंतजाम उसे अपनी पड़ोसी से उधार मांगकर करना पड़ा.

फुरकान के शरीर पर गोलियों के चार जख्म थे- एक सिर पर, एक सीने पर, एक रीढ़ की हड्डी में और एक हाथ पर. नसरीन ने बताया कि उसकी ज्यादातर हड्डियां टूटी हुई थीं. नसरीन कहती है, ‘इसका मतलब है कि गोली मारने से पहले उसकी पिटाई की गयी थी.’

जिस कथित एनकाउंटर में फुरकान मारा गया, वैसे एनकाउंटरों को आधिकारिक तौर पर पुलिस द्वारा आत्मरक्षा में की गयी गोलीबारी के तौर पर पेश किया जाता है. आत्मरक्षा का अधिकार जो हर नागरिक के पास है.

लेकिन, सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, जिसके मुताबिक आत्मरक्षा का अधिकार या निजी रक्षा का अधिकार एक अलग चीज है और जरूरत से ज्यादा और बदले की भावना से बल प्रयोग दूसरी चीज है.

इसलिए, भले किसी हमले के पीड़ित को जरूर निजी ढंग से रक्षा या आत्मरक्षा करने का अधिकार है, लेकिन अगर वह जरूरत से ज्यादा या गैर अनुपातिक बल का प्रयोग करता है या बदले की भावना के तहत काम करता है, और इस तरह से निजी रक्षा या आत्मरक्षा से आगे चला जाता है, तो वह आक्रमणकारी बन जाता है और एक दंडनीय अपराध करता है.

फुरकान के सभी पांच भाई अभी चोरी और डकैती के विभिन्न आरोपों में जेल में हैं. सबसे छोटे फरमीन ने शारीरिक यंत्रणा दिए जाने का आरोप लगाया है- मुज़फ्फ़रनगर जेल में उसके गुप्तांगों में बिजली का करंट लगाए जाने के बाद वह बीमार पड़ गया है.

अब परिवार में एकमात्र कमानेवाले मीर हसन यानी इनके पिता हैं, जो रिक्शा चलाने का काम करते हैं. नसरीन सवाली पूछती है, ‘अगर हमारे परिवार में ऐसे कुख्यात अपराधी भरे हुए हैं, तो हमारे पास दो वक्त पेट भरने लायक पैसा भी क्यों नहीं है. हम अब भी कच्चे घर में क्यों रह रहे हैं?’

चूंकि उसके परिवार के ज्यादातर सदस्य जेल में हैं, इसलिए वह अपने पति की हत्या की स्वतंत्र जांच की मांग करने में भी सक्षम नहीं है. वह कहती है कि परिवार को यह डर है कि अगर वे पुलिस के खिलाफ शिकायत करेंगे, जो दूसरे भाइयों का भी वही अंजाम होगा, जो फुरकान का हुआ है.

वह कहती है, इससे भी बड़ी बात है कि मेरे ससुर किसी तरह से महीने में 3,000 रुपये कमा पाते हैं और मेरे घर में खाने वाले छह लोग हैं, ऐसे में हम यह करने की स्थिति में नहीं हैं.’

एक ही परिवार के कई लोगों को विभिन्न अपराधों में आरोपी बनाने के चलन के पीछे कई लोग बलि के बकरों की एक फौज तैयार करने की पुलिस की रणनीति के तौर पर देखते हैं.

शामली के बंटा गांव में चाउमिन और समोसा बेच कर गुजारा करनेवाला असलम 9 दिसंबर, 2017 को नोएडा के दादरी में पुलिस की गोली से मारा गया. दादरी के सर्किल ऑफिसर अनंत कुमार के अनुसार असलम बड़े अपराध की योजना बना रहा था और दोतरफा गोलीबारी में गोली लगने से उसकी मौत हो गयी उसके पांच भाइयों में से चार अभी जेल में हैं.

असलम की विधवा इसराना, जो 9 महीने की गर्भवती है, कहती है कि आसपास के इलाके में कोई भी अपराध होने पर पुलिस उसके घर पर आ धमकती है.

‘हम पुलिस के लिए आसान निशाना बन गए हैं. कानून व्यवस्था को काबू में करने के लिए अपनी कोशिशों की सफलता को दिखाने के लिए वे हमारे परिवार का इस्तेमाल संदिग्धों के तौर पर करते हैं, ठीक उसी तरह से जैसे असलम का किया गया था.’

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असलम की मां वरीसा (फोटो: नेहा दीक्षित)

2. एनकाउंटर की राजनीति

13 जून, 2016 को तत्कालीन भाजपा सांसद और मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपी हुकुम सिंह ने दावा किया था कि कुल मिलाकर 346 परिवारों को ‘एक खास समुदाय’ द्वारा जबरन वसूली और धमकियां दिए जाने के चलते कैराना छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा.

उनका अप्रत्यक्ष इशारा उस इलाके के मुसलमानों की तरफ था. बाद में वे पलायन की सांप्रदायिक प्रकृति की बात से पलट गए और इसके लिए ‘अपराध’ को जिम्मेदार ठहराया. 2011 की जनगणता के मुताबिक कैराना की 68 फीसदी आबादी मुस्लिम है और शहर के अपराधों को यहां की धार्मिक आबादी से जोड़ना बांटने की राजनीति करनेवालों वालों का पुराना प्रोपगेंडा रहा है.

फरवरी, 2017 में भाजपा ने ‘कैराना’ पलायन का इस्तेमाल उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुनाव प्रचार के दौरान किया और बदतर कानून-व्यवस्था की स्थिति- कैराना को जिसके प्रतीक के तौर पर पेश किया गया था- को ठीक करने का वादा किया.

403 सीटों वाली उत्तर प्रदेश विधानसभा में मुस्लिमों की नुमाइंदगी कभी भी उनकी आबादी के अनुपात में नहीं रही है. ताजा गठित विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या महज 24 है.

विधानसभा में मुस्लिमों की उपस्थिति 2012 में अपने सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंची थी, जब समाजवादी शासन के दौरान उनकी संख्या 67 तक पहुंच गयी थी. हिलाल अहमद के अध्ययन के मुताबिक भारतीय विधानसभाओं में मुस्लिमों की नुमाइंदगी रस्म अदायगी से ज्यादा नहीं रही है.

यहां तक कि जीतने में कामयाब रहनेवाले भी अपने अभिभावकों की विरासत के बल पर ऐसा कर पाते हैं और संसद, विधानसभाओं या सरकार में मुस्लिम हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, 31 फीसदी के करीब या कहें एक तिहाई भारतीय मुस्लिम गरीबी रेखा से नीचे रह रहे थे. मुस्लिमों की स्थिति में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया है.

द वायर  ने एनकाउंटर में मारे गए जिन 14 लोगों के परिवारवालों से बात की, वे इस नगरपालिका के आसपास ही रहते हैं. मारे गए 14 लोगों में से 13 मुस्लिम थे.

नवंबर, 2017 में आदित्यनाथ ने कहा था कि भाजपा सरकार ने उत्तर प्रदेश में कानून का शासन कायम कर दिया है और ‘कैराना जैसी घटना’ अब फिर नहीं होगी:

‘कुशासन और गुंडाराज से त्रस्त होकर जो व्यापारी राज्य छोड़कर चले गए थे, उन्होंने वापस आना शुरू कर दिया है… आप इस तथ्य को कैराना, कंधाला और आसपास के इलाकों में देख सकते हैं. जिन माफियाओं को पिछली सरकार के दौरान संरक्षण मिला हुआ था और जिन्होंने व्यापारियों की दुकानों और अन्य प्रतिष्ठानों पर कब्जा जमा लिया था, उन्होंने व्यापारियों को इन्हें लौटा दिया है और सरकार की कार्रवाई से बचने के लिए भाग खड़े हुए हैं.’

2014 के लोकसभा चुनाव में दिए गए हलफनामे के मुताबिक आदित्यनाथ पर 15 के करीब आपराधिक मामले चल रहे थे, जिनमें हत्या की कोशिश, आपराधिक धमकी और दंगे कराने के अपराध शामिल हैं.

रिहाई मंच (आतंकवाद के नाम पर जेलों में बंद बेकसूर मुस्लिमों की रिहाई के लिए फोरम) के अध्यक्ष मोहम्मद शोएब कहते हैं, ‘योगी आदित्यनाथ कहते हैं कि सभी अपराधियों को उत्तर प्रदेश छोड़ देना चाहिए, इसकी पहल उन्हें खुद से करनी चाहिए, क्योंकि राज्य के सभी विचाराधीन आरोपियों को अपराधी घोषित कर दिया गया है और वे भी इनमें से ही आते हैं.’

3. एनकाउंटरों की बरसात क्यों?

16 सितंबर, 2017 को यूपी पुलिस ने राज्य में आदित्यनाथ सरकार के छह महीने पूरे के मौके पर आधिकारिक आंकड़े जारी किए. पुलिस ने कहा कि इसने कथित अपराधियों के खिलाफ 420 एनकाउंटरों को अंजाम दिया, जिसमें 15 लोग मारे गए.

पुलिस महानिदेशक द्वारा जारी आंकड़े दिखाते हैं कि 20 मार्च से सितंबर महीने के अंत तक एक सब-इंस्पेक्टर और 88 पुलिसकर्मी एनकाउंटर में जख्मी हुए. इन आंकड़ों से पता चलता है कि इन कथित अपराधियों में से दस 14 सितंबर से पहले के महज 48 दिनों में मारे गए थे.

इसी दिन एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में योगी आदित्यनाथ ने कहा, ‘आज जनता भयमुक्त और सुरक्षित है. पहले पुलिस अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करने में डरती थी. उन्हें डर रहता था कि अगर वे अपराधियों के खिलाफ कदम उठाएंगे, तो बदले में उन पर कार्रवाई हो जाएगी. हमने इसे बदल दिया है. पुलिस आज नेतृत्वकारी भूमिका में है.’ राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति को नियंत्रित करने में एनकाउंटरों को एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा गया.

द वायर  ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 4 जिलों में पुलिस एनकाउंटर में हत्याओं के जिन 14 मामलों की पड़ताल की, उनमें से 11 का पैटर्न एक जैसा था. इनमें पीड़ित 17 से 40 आयुवर्ग के थे. वे कई मामलों में विचाराधीन आरोपी थे.

इनमें से हर एनकाउंटर से ठीक पहले, पुलिस को उनकी किसी जगह मौजूदगी का सुराग मिला था. इन सबमें वे या तो बाइक पर थे या कार में. जैसे ही पुलिस उनको रोकने की कोशिश करती है, वे गोलियां चलाना शुरू कर देते हैं. जवाबी गोलीबारी में आरोपी गोली से जख्मी हो जाता है और अस्पताल पहुंचने पर उन्हें मृत घोषित कर दिया जाता है.

ज्यादातर मामलों में पुलिस ने 32 बोर पिस्तौल और जिंदा कारतूसों को बरामद किया है. जिन 14 परिवारों से द वायर  ने मुलाकात की, उनमें से 13 ने कहा कि पुलिस ने एनकाउंटर के बाद ही यह कहा कि मारे जानेवाले ‘वॉन्टेड’ अपराधी थे और उनके माथे पर इनाम था.

हकीकत यह है कि मारे गए इन लोगों में से कोई भी यूपी पुलिस के आईजी क्राइम ऑफिस द्वारा जारी किए गए ‘मोस्ट वॉन्टेड’ की सूची में नहीं था. इन विरोधाभासों ने ‘एनकाउंटर’ के इन सभी मामलों में अनायास ढंग दोतरफा गोलीबारी के अलावा भी कुछ अैर होने की संभावना को जन्म दिया है. वास्तव में मारे गए लोगों के परिवारों का आरोप है कि ये घटनाएं पूर्वनियोजित थीं.

इकराम एक फल विक्रेता, जो ऐसे गैंग का सदस्य था जिसका अस्तित्व ही नहीं है

10 अगस्त, 2017 को बागपत के बड़ौत इलाके के 40 वर्षीय फल विक्रेता इकराम की मृत्यु शामली में पुलिस की गोली लगने से हो गयी. पुलिस का दावा है कि उन्हें यह सूचना मिली थी कि वह एक मोटर साइकिल, 8,700 रुपए, एक सोने की चेन और एक सोने की अंगूठी लेकर भागा था.

जब उन्होंने, इकराम को शामली के बंजारा बस्ती के पास रोकने की कोशिश की, तब उसने उन पर गोलियां बरसानी शुरू की दी. जवाब में, पुलिस की तरफ से भी गोलियां चलायी गयीं.

मेरठ मेडिकल कॉलेज लेकर आने पर उसे मृत घोषित कर दिया गया. पुलिस ने इकराम के पास से एक 32 बोर पिस्तौल और सात जिंदा कारतूस बरामद करने का भी दावा किया.

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इकराम की पत्नी हनीफा (फोटो: नेहा दीक्षित)

इकराम की पत्नी हनीफा कहती है, ‘वह (इकराम) मोटरसाइकिल पर कैसे मिल सकता है, जब वह मोटरसाइकिल चलाना जानता ही नहीं था.’ वह बताती है कि एनकाउंटर से एक दिन पहले, 9 अगस्त, 2017 की दोपहर को वह अपने दोस्त कल्लू के बेटे को देखने गया था, जो बागपत के आस्था अस्पताल में भर्ती था.

हनीफा ने कहा, ‘अगले दिन हमें व्हाट्सएप्प से हनीफ के एक एनकाउंटर में मारे जाने की खबर मिली. हमें इस पर यकीन नहीं हुआ. कौन-सा पुलिस स्टेशन हमें उसका शव देगा यह पता करने में 7-8 घंटे लग गए.’

पुलिस एनकाउंटरों से संबंधित पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के मुताबिक, ‘मृत्यु की सूरत में, कथित आरोपी/पीड़ित के नजदीकी संबंधी को जल्द से जल्द सूचना देना अनिवार्य है.’

इकराम को चार बच्चे हैं. उसका शव उसके 16 वर्षीय बेटे साजिद को रात के 10 बजे सुपुर्द किया गया. पुलिस के दावों का झूठ इस तथ्य से सामने आता है कि इकराम के शरीर पर गोलियों के निशान से ज्यादा निशान थे. हनीफा के मुताबिक, गोली के जख्मों के अलावा, उसकी पसलियां भी टूटी हुई थीं और और उसके माथे के पिछले हिस्से में भी बड़े जख्म का निशान था.

हनीफा पूछती है, ‘इसका मतलब है कि गोली मारे जाने से पहले उसकी पिटाई की गयी थी. हमें उसका चप्पल भी आस्था अस्पताल से मिला. तो क्या इसका मतलब ये है कि वह नंगे पांव बाइक चला रहा था. कोई यह कैसे पता लगा सकता है कि उसे कहां से पकड़ा गया था? क्या इसका मतलब है कि यह एनकाउंटर पहले से सुनियोजित था?’

पुलिस का दावा है कि इकराम एक आपराधिक गैंग का सदस्य था, जिसके तीन सदस्य थे- इकराम, उसका भाई अखलाक़ और लोनी निवासी जाक़िर. हनीफा पूछती है कि 1998 में एक पुलिस एनकाउंटर में अखलाक और जाकिर दोनों मारे गए थे. तो फिर वे किस गैंग की बात कर रहे हैं?’

पुलिस का यह भी दावा है कि इकराम के खिलाफ 13 आपराधिक मामले थे. उनके बेटे साजिद का कहना है कि सच्चाई यह है कि उनके खिलाफ सिर्फ दो मामले थे, वे भी 20 साल पुराने थे, जब इकराम के भाई को पुलिस ने मार गिराया था.

हनीफा पूछती है, ‘क्या सिर्फ इस कारण से कि हमारा एक रिश्तेदार किसी जमाने में पुलिस एनकाउंटर में मारा गया था, हमारे साथ भी वैसा होना चाहिए. आखिर, पुलिस एक बाइक, 8,700 रुपए और एक सोने की चेन की चोरी करने के आरोप में किसी व्यक्ति की जान कैसे ले सकती है?’

किशोर उम्र का साजिद अब इस परिवार का एकमात्र कमानेवाला है. वह बागपत में फेरी लगाकर कपड़े बेचने का काम करता है. उसका कहना है, ‘अगर आप किसी व्यक्ति और उसके परिवार के साथ लगातार खराब चीजें करते रहेंगे, जो वे क्या करेंगे? उन्हें भी खराब चीजें करने पर मजबूर होना पड़ेगा. हमारे पास चारा क्या है?’

16 सितंबर, 2017 को एडीजी (कानून और व्यवस्था) आनंद कुमार ने कहा कि एनकाउंटर ‘सरकार की इच्छा, लोगों की उम्मीदों और पुलिस को दी गयी संवैधानिक और कानूनी शक्ति को ध्यान में रखकर’ किए जा रहे हैं.

उसी दिन यूपी पुलिस के कम्युनिकेशन डिपार्टमेंट ने पुलिस के मनोबल को बढ़ाने के लिए यह घोषणा कर दी कि यूपी पुलिस ने अपराधियों को पकड़ने पर विभिन्न रैंकों के पुलिस कर्मियों/अधिकारियों के लिए इनाम की राशि को बढ़ा दिया है.

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मुख्य सचिव गृह एवं पुलिस रैंक के लिए इनाम को 2,50,000 से बढ़ाकर 5,00,000 रुपए प्रति गिरफ्तारी, पुलिस अधीक्षक के लिए इसे 50,000 से बढ़ाकर 2,50,000 रुपये कर दिया गया. इसी तरह अन्य रैंकों के लिए इनाम राशि को बढ़ा दिया गया.

एनडीटीवी की रिपोर्ट के अनुसार सरकार ने ‘जिला पुलिस प्रमुख को एनकाउंटर को अंजाम देनेवाली पुलिस टीम के लिए 1 लाख रुपए तक का इनाम देने की घोषणा करने की अनुमति भी दी है.’

एनएचआरसी (राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग) द्वारा 2010 में एनकाउंटरों को लेकर जारी किए गए दिशा-निर्देशों, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने भी 2014 में दोहराया, के मुताबिक ऐसी घटना (एनकाउंटर) के तत्काल बाद संबंधित अधिकारी को कोई आउट ऑफ टर्न यानी असमय प्रमोशन या तत्काल कोई वीरता पुरस्कार नहीं दिया जाएगा.

इस बात को किसी भी कीमत पर सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ऐसे पुरस्कार तभी दिए जाएं/या उनकी सिफारिश तभी की जाए, जब संबंधित अधिकारी की वीरता किसी भी तरह के संदेहों के परे हो. लेकिन आदित्यनाथ के नेतृत्व में इस दिशा-निर्देश की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं.

सुमित, एक गलत पहचान का मामला

20 वर्षीय सुमित गुर्जर को पुलिस ने 30 सितंबर, 2017 को बागपत के चिरचिटा गांव से उठा लिया. उसके पिता करन सिंह का कहना है कि उनके बेटे को ‘नगद इनाम और प्रमोशन के लिए’ मार दिया गया.

उन्होंने द वायर  को बताया, ‘2 अक्टूबर को हमें नोएडा पुलिस को 3.5 लाख रुपये देने के लिए कहा गया. उन्होंने कहा कि वे चालान काटेंगे और उसे जाने देंगे.’

जब वे नोएडा में इकोटेक पुलिस स्टेशन पहुंचे, जहां जानकारी के मुताबिक सुमित को रखा गया था, तब पुलिस अपनी बात से पलट गयी. तब तक उन्हें इन अफवाहों का पता लग गया था कि सुमित को जल्द ही एक एनकाउंटर में मार दिया जाएगा.

परिवार ने बिना समय गंवाए, डीआईजी यूपी पुलिस, एनएचआरसी (मानवाधिकार आयोग), मुख्यमंत्री कार्यालय का दरवाजा ठकठकाया, लेकिन उसकी गुहार कहीं नहीं सुनी गयी.

उसी शाम, नोएडा पुलिस ने सुमित पर 25,000 रुपये का इनाम रखा, जिसे कुछ घंटों के भीतर ही बढ़ाकर 50,000 रुपये कर दिया गया.

अगली शाम ग्रेटर नोएडा पुलिस ने ऐलान किया कि सुमित द्वारा चलाई जा रही एक गाड़ी को रोकने की कोशिश के दौरान दोतरफा गोलीबारी में सुमित की मौत हो गयी. ग्रेटर नोएडा के एसएसपी लव कुमार ने कहा कि पुलिस डकैती और जबरन वसूली के कई मामलों में सुमित की तलाश कर रही थी.

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सुमित की मां श्यामवती (फोटो: नेहा दीक्षित)

करन पूछते हैं, ‘पुलिस ने 8 बजे एनकाउंटर किया और शवगृह को उसका शव 10 बजे सौंप दिया. आखिर इतनी तेजी में यह सब कैसे किया गया? क्या इसका कारण यह था कि उन्होंने पहले ही उसकी हत्या कर दी थी और उसे बाद में एनकाउंटर के तौर पर दिखा दिया.’

पुलिस की कहानी भी कई अंतर्विरोधों से भरी हुई है. सुमित के खिलाफ कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं था. गांव में एक और सुमित गुर्जर है, जो शीशराम का बेटा है. उसके खिलाफ 2011 में छह मामले चल रहे थे. राज पूछते हैं, ‘ये ठीक वही मामले हैं, जिनका आरोप एनकाउंटर के बाद मेरे भाई पर लगाया गया. तो क्या इसका मतलब है कि पुलिस ने सुमित को कोई और तो नहीं समझ लिया.’

विरोध में परिवार ने सुमित के शव का तीन दिन तक अंतिम संस्कार नहीं किया. गुर्जर महापंचायत ने इस मामले की जांच सीबीआई से कराने और पुलिस के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की है. एनएचआरसी ने इस मामले का संज्ञान लेते हुए, उत्तर प्रदेश सरकार और उत्तर प्रदेश पुलिस को नोटिस जारी किया और चार दिनों के भीतर जवाब देने के लिए कहा.

इस बात को चार महीने बीत जाने के बाद भी अभी तक जवाब का इंतजार ही किया जा रहा है. इसी बीच पुलिस ने सुमित के दो भाइयों राज सिंह और कमल सिंह के खिलाफ बलात्कार का मामला दर्ज कर दिया. राज कहते हैं, ‘हमें पुलिस के खिलाफ अपनी शिकायत वापस लेने के लिए कहा गया है. अगर हम केस वापस ले लेंगे, तो वे हमारे खिलाफ बलात्कार का मामला वापस ले लेंगे.’

कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव में कोऑर्डिनेटर (पुलिस रिफॉर्म्स) देविका प्रसाद कहती हैं, ‘राज्य सरकार और यूपी पुलिस इन घटनाओं के दौरान हुई हर मौत और गिरफ्तारी के लिए जिम्मेदार है. अत्यधिक बल प्रयोग और गैरकानूनी होने के आरोपों से इनकार करने के लिए इन एनकाउंटरों की वैधानिकता की तत्काल जांच की जानी चाहिए.’

4. विचाराधीन आरोपी बनते हैं आसान शिकार

नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो के 2015 के जेल संबंधी आंकड़ों के मुताबिक, जेल में बंद दो तिहाई कैदी विचाराधीन अपराधी यानी अंडरट्रायल हैं. देशभर में 55 प्रतिशत विचाराधीन कैदी या तो मुस्लिम हैं या दलित हैं या आदिवासी हैं.

चूंकि मुस्लिम, दलित और आदिवासी मिलाकर देश की आबादी का 39 प्रतिशत ही हैं, इसलिए यह साफ दिखाई देता है कि विचाराधीन कैदियों में उनकी संख्या उनकी आबादी के हिसाब से गैर-आनुपातिक ढंग से ज्यादा है.

मुस्लिमों में, दोषसिद्ध आरोपियों में उनका अनुपात 15.28% है, जो कि कुल आबादी में उनके हिस्से से थोड़ा सा ही ज्यादा है, लेकिन विचाराधीन कैदियों में उनका हिस्सा 20.9 प्रतिशत है, जो कहीं ज्यादा है.

इसी आंकड़े से यह भी पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में कुल दोषी करार दिए गए अपराधियों में मुस्लिमों की हिस्सेदारी 19 प्रतिशत है, जो राज्य में उनकी आबादी के अनुपात के बराबर ही है. लेकिन, विचाराधीन आरोपियों में, मुस्लिमों की हिस्सेदारी 27 प्रतिशत है, जो कि आबादी में उनके अनुपात की तुलना में काफी ज्यादा है.

सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में कहा गया है कि संविधान का अनुच्छेद 21 कैदियों को उनके प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के मूल अधिकार के तहत निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई का अधिकार देता है. लेकिन, विचाराधीन कैदियों की एक बहुत बड़ी संख्या सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखते हैं, जिन छोटे-मोटे अपराधों का आरोप है, मगर जिन्हें कानूनी मदद हासिल नहीं है.

यह कोर्ट में अपना बचाव करने की उनकी क्षमता को कमजोर करता है, जिसका नतीजा अक्सर यह होता है कि उन्हें जेल में लंबा वक्त गुजारना पड़ता है.

2017 के सितंबर में, गरीब परिवारों से आनेवाले ऐसे पांच विचाराधीन आरोपी, जिन्होंने एक लंबा वक्त जेलों में बिताया था, एक पुलिस एनकाउंटर में मारे गए. इनमें नदीम (30) और जान मोहम्मद (24) मुजफ्फरनगर से शमशाद (35) और मंसूर (35) दोनों सहारनपुर और वसीम (17) शामली से था.

गैंगस्टर मंसूर, बिजली के झटकों से जिसका दिमाग खराब हो गया था

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मंसूर के पिता अकबर (फोटो: नेहा दीक्षित)

हत्या की कोशिश में साढ़े तीन साल सहारनपुर जेल में बंद 35 वर्षीय मंसूर को बार-बार बिजली के झटके देकर यंत्रणा दी जाती थी. इसने उसकी दिमागी हालत खराब कर दी.

रिहाई के बाद करीब डेढ़ साल वह विक्षिप्त अवस्था में सहारनपुर के पठानपुर गांव में अपने परिवार के साथ रहा. उसका रिश्ते का भाई वसीम बताता है, ‘वह अक्सर फटे और गंदे कपड़ों में गांव के चौक पर बैठा हुआ और अपने आप ही बड़बड़ाता हुआ मिलता था. वह गांव वालों द्वारा दिए गए खाने पर जिंदा रहता था और और हर शाम उसे सहारा देकर उसके घर तक पहुंचाया जाता था.

28 सितंबर, 2017 के दोपहर में तीन लोग सादे कपड़े में पहुंचे और उसे एक कार में लेकर गए. उसी शाम मेरठ पुलिस ने घोषणा करते हुए बताया कि उसकी तलाश 25 मामलों में थी और उसे पल्लवपुरम इलाके में मार गिराया गया. पुलिस ने अपराध-स्थल से एक जर्मन ब्रांड रिवॉल्वर बरामद करने का भी दावा किया.

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अकबर की बहन सनोवर (फोटो: नेहा दीक्षित)

उसके 65 वर्षीय पिता अकबर की बेचैनी देखने लायक है, जो अब बीमारी के कारण दिहाड़ी मजदूर के तौर पर भी काम करने में सक्षम नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘उसे बेहद नजदीक से सीने पर गोली मारी गयी.’ जबकि पुलिस का यह कहना है कि दोनों तरफ से 20 राउंड गोलियां चलीं, तो फिर गोली इतने निशाने पर और एकदम सही जगह पर कैसे लगी?’

जब उन्होंने पुलिस से पोस्टमार्टम रिपोर्ट की मांग की, तो उन्हें यह रिपोर्ट देने से मना कर दिया गया और इसकी जगह ‘कोर्ट जाकर रिपोर्ट लेने के लिए’ कहा गया. इस परिवार के पास कोई जमीन नहीं है और यह मिट्टी के कच्चे मकान में रहता है, जिसकी टूटी हुई फूस से बनी है. इस परिवार में आय का कोई निश्चित जरिया नहीं है.

अकबर कहते हैं, ‘अगर एक गरीब, लाचार, पागल व्यक्ति को मारने से राज्य में अपराध का अंत हो जाएगा, तो मैं क्या कह सकता हूं. ’ 2015 के लिए एनसीआरबी के उसी आंकड़े के मुताबिक विचाराधीन आरोपियों में से 70% दसवीं क्लास भी पास नहीं की है.

नदीम जिसका एनकाउंटर गिरफ्तारी के बाद हुआ

8 सितंबर, 2017 को नदीम की मृत्यु गोली लगने से हो गयी. उसने अपने 30 साल के जीवन का एक तिहाई हिस्सा जेल में बिताया, जिस कारण वह कभी स्कूल नहीं जा पाया.

‘इस इलाके में उसके जैसे कई लड़के हैं. चूंकि, वे बचपन से ही जेल से बाहर-भीतर होते रहे हैं, इसलिए उन्हें कभी शिक्षा नहीं मिल पायी. वे आक्रामक हो गए हैं और उन्हें एक तरह की व्यवहारगत समस्या भी दिखाई देती है. उनका कोई भविष्य नहीं है.’ यह कहना है नदीम की चाची समरीन का, जिन्होंने मुजफ्फरनगर में बाघहवोली में उसके अभिभावकों की मृत्यु के बाद उसे पाला-पोसा.

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नदीम की चाची समरीन (फोटो: नेहा दीक्षित)

आखिरी बार वह सात साल तक जेल में रहा. यह एक हत्या के माले में इस्तेमाल में लाए गए देसी कट्टा रखने से जुड़ा हुआ केस था. नसरीन याद करती हैं, मेरे पास कमाई का कोई जरिया नहीं है, इसलिए हम उसे जमानत नहीं दिला पाए.

इस बात को लेकर वह हमसे काफी नाराज था. अगले साल नदीम ने शादी कर ली और देहरादून में कपड़े के फेरीवाले के तौर पर काम करना शुरू कर दिया. वो बताती हैं, ‘उसका काम अभी ठीक से चलना शुरू ही हुआ था कि नोटबंदी हो गयी. बाजार मंदा होने के कारण उसे लगभग एक साल तक घर में बैठना पड़ा.’

2017 के सितंबर में उसे एक ज्वेलर के साथ झगड़े के मामले में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. दो दिनों के बाद उसे मुजफ्फरनगर में ककरोली के जाठवाड़ा जंगल में एक एनकाउंटर में मार गिराया गया.

वह पूछती है, ‘पुलिस एक ही व्यक्ति पर अलग-अलग मामलों में आरोप लगाती रहती है. अपनी पूरी सजा जेल में बिता देने वाले किसी व्यक्ति की हत्या करने में पुलिस की कौन-सी बहादुरी है. इस तरह से दूसरे विचाराधीन आरोपियों मामलों में किस तरह का सुधार आएगा, जब उन्हें यह पता है कि उन्हें मरना ही है.’

अपनी रिहाई से ठीक पहले फरार होनेवाला शमशाद, चार दिनों बाद पुलिस की गोली से मारा गया

नदीम के एनकाउंटर से ठीक चार दिन बाद, 12 सितंबर को सहारनपुर के शेरपुर गांव के 35 वर्षीय शमशाद को भी पुलिस ने उसी से मिलती-जुलती परिस्थितियों में मार गिराया.

शमशाद लोहे के ग्रिल वगैरह बनाने का काम करता था और पिछले दो सालों से देवबंद जेल में बंद था. पुलिस के मुताबिक, उसके खिलाफ लूट और चोरी के कई मामले चल रहे थे और वह 8 सितंबर, 2017 को पुलिस की हिरासत से फरार हो गया था.

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शमशाद की चाची सलमा (फोटो: नेहा दीक्षित)

पुलिस ने यह दावा किया कि फरार होने के एक दिन बाद ही उसने एक डॉक्टर से जबरन वसूली करने के लिए फोन किया था. पुलिस ने उसका पीछा करने की कोशिश की और वह गोलीबारी में मारा गया.

नदीम के भाई हुसैन का सवाल है, ‘जब उसकी सजा खत्म होने ही वाली थी, तब आखिर वह क्यों भागेगा? और अपने भागने के एक ही दिन के बाद से वह जबरन वसूली के लिए फोन कॉल करना क्यों शुरू कर देगा?’

हुसैन और उसके परिवार द्वारा सार्वजनिक तौर पर इस एनकाउंटर की प्रकृति पर सवाल उठाए जाने के बाद से पुलिस लगभग हर दिन उसके घर पूछताछ करने के लिए आती है.

देविका प्रसाद का कहना है, ‘पुलिस हिरासत में रहते हुए इतने सारे लोगों के मारे जाने का मतलब है कि कोर्ट भी निगरानी करने की भूमिका नहीं निभा रहे हैं.’

5. पुलिस द्वारा डराया-धमकाया जाना

एक आरटीआई सवाल के जवाब में यह बताया कि 2000 से 2017 के बीच भारत में 1,782 फर्जी एनकाउंटर के मामले दर्ज किए गए.

एनएचआरसी को मिली शिकायतों और सूचनाओं के आधार पर तैयार आंकड़ों के मुताबिक सभी राज्यों में मिलाकर दर्ज किए गए एनकाउंटर के मामलों में से 44.55 % यानी करीब 794 मामले सिर्फ उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए, जो काफी खतरनाक है.

एनएचआरसी ने अलग से यह नहीं बताया है कि इन आरोपों में से कितने सही पाए गए, लेकिन यूपी से आए 160 मामलों में बतौर मुआवजा 9.47 करोड़ रुपये देने की सिफारिश की.

गौरतलब है कि देश भर में इसने 314 मामलों में मुआवजा दिए जाने की गुहार की. यानी मुआवजा देने की सिफारिश करने वाले मामलों में से आधे से ज्यादा सिर्फ उत्तर प्रदेश से थे.

जान मोहम्मद कार चलाते हुए मारा गया, जबकि वह कार चलाना नहीं जानता था

22 साल का जान मोहम्मद 19 सितंबर, 2017 को एक एनकाउंटर में गोली लगने से मरा. पुलिस के मुताबिक उसके खिलाफ लूट, चोरी और हत्या का प्रयास के 22 मामले दर्ज थे और उसके सिर पर 12,000 का इनाम था.

पुलिस का यह भी दावा है कि वह एक ‘अपराध करने की योजना बना रहा था’ और स्विफ्ट कार में मुज़फ्फ़रनगर जा रहा था. एनकाउंटर के ठीक बाद,  मुज़फ्फरनगर के एसएसपी अनंतदेव तिवारी को लोगों ने जान मोहम्मद को मौत की घाट उतारने में दिखाई गई वीरता के लिए कंधे पर लेकर घुमाया.

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जान मोहम्मद की मां ज़ारिफान (फोटो: नेहा दीक्षित)

जान मोहम्मद की मां, ज़ारिफान कहती हैं, ‘जानू को कार चलानी नहीं आती थी. ऐसे में वह कार में कैसे भाग रहा था? यहां तक कि वारदात की जगह पर उसे एक कार में मृत और पिस्तौल को कसकर अपने हाथ में रखे हुए दिखाया गया है. ऐसा कैसे मुमकिन है, क्योंकि उसके शरीर में चार गोलियां लगी थीं. साथ ही सवाल यह भी है कि आखिर पुलिस किसी व्यक्ति को सिर्फ आधार पर कैसे मार सकती है कि वह ‘अपराध करने की योजना बना रहा था.’

2010 के एक ऐतिहासिक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह तजवीज दी थी कि, ‘जब ऐसा वास्तव में हो कि हमला करनेवाला किसी की जान ले सकता है या किसी को गंभीर तरीके से जख्मी कर सकता है, उस स्थिति में ही किसी व्यक्ति का निजी रक्षा करने का अधिकार जान लेने के अधिकार तक जा सकता है. एक तार्किक डर आत्म रक्षा के अधिकार को प्रभावी करने के लिए काफी है… लेकिन कानून का यह मान्य पक्ष रहा है कि आत्मरक्षा का अधिकार सिर्फ अपनी रक्षा करने का अधिकार है, न कि बदले में कार्रवाई करने का अधिकार इससे मिल जाता है. यह प्रतिशोध लेने का अधिकार नहीं देता है.’

जान मोहम्मद के परिवार द्वारा एनकाउंटर में हुई हत्या की परिस्थितयों को लेकर लगातार सवाल उठाए जाने के बाद, पुलिस मुज़फ्फरनगर जिले के हुसैनपुरा गांव के उनके एक कमरे के घर में पहुंच गयी और बर्तनों के अलावा, उनके मिटटी से बनी दीवार और छपपड़ और चारपाइयों को तोड़ डाला.

ऐसा लगता है कि तोड़-फोड़ की यह घटना कोई इकलौती घटना नहीं थी.

साबिर के एनकाउंटर के बाद उसके घरवालों के सिर से छत भी छीन ली गयी

शामली जिले के झानदेदी गांव का रहनेवाले साबिर को 2 जनवरी, 2018 को पुलिस ने उसके ही घर में मार गिराया. पुलिस को हत्या, सेंधमारी, रंगदारी और डकैती के कई मामलों में साबिर की तलाश थी और वह मई, 2017 में पुलिस की हिरासत से भाग गया था.

शूटआउट में पुलिस कॉन्स्टेबल अंकित तोमर की भी जान गयी. पुलिस ने वारदात स्थल से हथियार भी बरामद किया. एनकाउंटर के बाद कई पुलिस वालों ने मिलकर घर के सभी दरवाजे तोड़ डाले.

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पुलिस द्वारा साबिर का तोड़ा गया घर (फोटो: नेहा दीक्षित)

कमरों के भीतर रखे सामानों को तहस-नहस कर दिया, फर्नीचरों तोड़ डाला, कपड़ों को जला डाला और पूरे परिसर नष्ट कर दिया. एनकाउंटर के बाद पुलिस साबिर के 14 पुरुष रिश्तेदारों को भी पकड़ कर ले गयी. अब उसका परिवार एक अन्य रिश्तेदार के घर में रह रहा है, क्योंकि उसके घर को पूरी तरह से तबाह कर दिया गया है.

वसीम की गलती यह थी कि वह एक कुख्यात गैंगस्टर का भाई था

शामली गांव के जहांपुरा गांव के 17 वर्षीय वसीम के घर के साथ भी यही हुआ. वह भी 29 सितंबर, 2017 को एनकाउंटर में पुलिस के हाथों मारे जाने से सिर्फ पांच दिन पहले.

वसीम 22 साल के मुकीम काला का भाई है, जिसे पश्चिमी यूपी के सबसे खतरनाक गैंगस्टर के तौर पर जाना जाता है. जब हुकुम सिंह ने कैराना पलायन विवाद को उठाया था, उस समय इसका कारण मुकीम काला गैंग द्वारा जबरन वसूली को माना गया था.

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वसीम की मां अपने तोड़े गए घर में (फोटो: नेहा दीक्षित)

उसकी मां मीना कहती है, ‘अगर पाकिस्तान में भी कुछ होता है, तो पुलिस यह ऐलान कर देती है कि यह मुकीम काला का ही किया धरा है. यह तब है, जब वह तकरीबन 7 साल से जेल में बंद है.’

मुकीम को पहली बार गांव में पंचायत चुनाव के दौरान एक व्यक्ति की हत्या के बाद गिरफ्तार किया गया. उस समय उसकी उम्र महज 13 साल थी. उस समय से उस पर रंगदारी, हत्या, अपहरण आदि के कई मामले दर्ज किए जा चुके हैं. मुकीम फिलहाल हरियाणा के जामनगर जेल में है.

वसीम के उपर 7 मामले थे. पहला मामला तब दर्ज किया गया था, जब 14 साल का था. जेल में 9 महीने बिताने के बाद 2017 में जमानत पर रिहा होने के ठीक बाद उसने खेतिहर मजदूर, ठेका किसान और एक स्थानी सिनेमा हॉल में क्लीनर के तौर पर काम किया.

मीना याद करती है, ‘वह हर कुछ दिनों के बाद फोन किया करता था और कहता था, ‘अम्मी, मुझे वापस बुला लो. मुझसे कठिन मजदूरी वाला काम नहीं होता है.’ वह कहती है कि जेल में रहने के दौरान उसकी काफी पिटाई की गयी थी और उसका शरीर कमजोर हो गया था.

वसीम का बाप मुश्ताकिम अप्रैल, 2017 से हत्या और हत्या की कोशिश के आरोप में मुजफ्फरनगर जेल में बंद है. पूछताछ के दौरान उसके हाथ-पांव तोड़ दिए गए और पिछले कुछ महीने से उसका कोई इलाज नहीं हो रहा है.

13 सितंबर, 2017 को शामली पुलिस ने 5 किलोग्राम अफीम का छिलका, जिसे स्थानीय तौर पर ‘डोडा’ कहा जाता है, रखने के आरोप में मीना को पकड़ लिया था. नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्सटांस एक्ट, 1985 के तहत अफीम का छिलका बेचना या रखना प्रतिबंधित है.

एक स्थानीय व्यक्ति ने बताया, ‘जब भी पुलिस किसी को जेल भेजना चाहती है, तो आमतौर पर इसी आरोप का इस्तेमाल किया जाता है.’ मीना को मुजफ्फरनगर जेल भेज दिया गया था. 24 सितंबर को पुलिस के एक बड़े दल ने आकर जहानपुर गांव में वसीम और उसके पड़ोसी के घर की तोड़-फोड़ की.

चार दिन के बाद पुलिस ने गांव प्रधान को यह बताने के लिए बुलाया कि वसीम मेरठ के सरूरपुर इलाके में एक पुलिस एनकाउंटर में मारा गया. वसीम के अभिभावकों को भले उसके अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होने दिया गया, लेकिन गांव वाले बड़ी संख्या में परिवार के साथ खड़े हैं.

एक पड़ोसी, जो अपना नाम उजागर नहीं होने देना चाहता था, ने कहा, ‘पुलिस लगातार यह कहती रही कि ‘उसे दफनाने की क्या जरूरत है, उसका दाह-संस्कार कर दो’.’ कई लोगों ने इसे सांप्रदायिक टिप्पणी के तौर पर देखा, क्योंकि मुस्लिमों में शव को दफनाया जाता है और दाह-संस्कार हिंदुओं में किया जाता है.

न्यायेतर हत्याओं के कई मामलों में वकील रहीं सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील वृंदा ग्रोवर का कहना है कि ‘दाह-संस्कार करने से एनकाउंटर की सच्चाई का पता लगाने के लिए न्यायिक जांच की स्थिति में शव को फॉरेंसिक जांच के लिए बाहर निकालने की संभावना भी समाप्त हो जाती है.’

एनएचआरसी को लिख गए एक खत में मीना ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि जिस मामले में वसीम और मुकीम को गिरफ्तार किया गया था, उसमें एफआईआर अज्ञात लोगों के खिलाफ दर्ज की गयी थी, लेकिन फिर भी वसीम और मुकीम को इन अपराधों का आरोपी बना दिया गया.

‘एक ही व्यक्ति को सभी मामलों में आरोपी बना देना और सारे अपराध को किसी ऐसे गिरोह की कारस्तानी बता देना, जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं, आसान है. मीना कहती है, अगर किसी बच्चे को बचपन से ही बार-बार जेल भेजा जाएगा, तो वह पढ़-लिख कैसे पाएगा?’

वृंदा ग्रोवर बताती हैं, सिर्फ वैसे मामलों में जिनमें परिवार ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है फर्जी मुठभेड़ का पर्दाफाश किया जा सका है. परिवारों के घरों को तोड़कर और उन्हें डरा-धमकाकर पुलिस यह सुनिश्चित करना चाहती है कि किसी तरह की जांच की नौबत ही न आए.

चूंकि ये परिवार सामाजिक-आर्थिक संसाधनों के हिसाब से कमजोर होते हैं, इसलिए पुलिस की ऐसी कार्रवाई वास्तव में यह प्रदर्शित करने के लिए की जाती है कि उन्हें सजा मिलने का कोई खौफ नहीं है और उन्हें राजनीतिक वरदहस्त हासिल है.

6. मुखबिरों की बढ़ती संख्या

द वायर ने जिन चार जिलों की खाक छानी उनमें कई लोगों ने कहा कि पिछले 10 महीने में पुलिस मुखबिरों की संख्या में कई गुना इजाफा हुआ है. जहानपुरा गांव के एक व्यक्ति, जो अपना नाम उजागर नहीं करना चाहता था, ने कहा, ‘इनकी संख्या इतनी ज्यादा है कि 3,000 मतदाताओं के इस गांव में ही अकेले 70-80 मुखबिर हैं. इसका भी एक पैटर्न है- अतीत में आपराधिक रिकॉर्ड वाले मुस्लिम युवकों का नाम बताना.’

पुलिस मुखबिर भी प्रायः वैसे लोग हैं, जिन पर खुद आपराधिक आरोप हैं. उन्हें पुलिस द्वारा जबरदस्ती मुखबिर बनने पर मजबूर किया गया है. उस व्यक्ति का कहना था, ‘यह भी मुस्लिम समुदाय के भीतर ही अविश्वास और आपसी झगड़ा कराने का एक तरीका है.

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शामली के एसपी अजयपाल शर्मा को एनकाउंटर के बाद शहर में रथ पर बैठाकर घुमाया गया था (फोटो साभार: twitter)

2 अगस्त, 2017 को, यानी नौशाद और सरवर (23) को शामली जिले के भूरा गांव में गोलियों से भून डालने की घटना के तीन दिन बाद शामली जिले के पुलिस अधीक्षक एसपी अजय पाल शर्मा को शहर भर में रथ पर घुमाया गया.

शामली व्यापारी संघ के अध्यक्ष घनश्याम दास का कहना है, ‘व्यापारियों के बीच डर का माहौल निश्चित तौर पर कम हुआ है, क्योंकि यही अपराधी थे जो हमें परेशान किया करते थे.’ उस समय तक शर्मा 30 एनकाउंटर कर चुके थे, जिनमें 2 लोग मारे गए और 28 जख्मी हुए हैं.

स्थानीय मीडिया ने इसे ‘अपराधियों पर पहले सर्जिकल स्ट्राइक’ का नाम दिया. आदित्यनाथ ने भी उसी दिन वीडियो कॉन्फ्रेंस करके इन दो लोगों को एनकाउंटर में मार गिराने के लिए शर्मा की प्रशंसा की और कहा कि ‘अपराध को काबू में करने के लिए सभी पुलिस वालों को शर्मा के ही रास्ते पर चलना चाहिए.’

काले और सफेद धारीदार शर्ट और काली पैंट में गुलाब और गेंदे से सजे चांदी के रथ में बैठे शर्मा के पीछे बाइक पर सवार युवाओं का एक जुलूस था. ये लोग भारत का झंडा, ड्रम और बैंड के साथ चल रहे थे.

शर्मा का स्वागत शादी के दूल्हे की तरह किया गया. उन्होंने कहा, ‘संदेश यही है- पुलिस का इक़बाल बुलंद हो. अगर कोई हम पर बंदूक चलाएगा तो हम भी वाजिब तरीके से उसका जवाब देंगे.’

लेकिन मृतकों के परिवार वालों का कहना है अंतर बस इतना है कि मारे गए लोगों की तरफ से गोलियां चलाई ही नहीं गयी थीं.

कई लोगों का मानना है कि पुलिस को सूचना देना एक फायदेमंद कारोबार बन गया है. मुखबिरों का काम वैसे नाम सुझाना है, जो पुलिस द्वारा बताए गए प्रोफाइल में फिट बैठते हों. फिर वैसे लोगों को उठा लिया जाता है.

पहचान न बताने के आग्रह के साथ एक स्थानीय निवासी ने बताया, ‘असली गुनहगार पुलिस को घूस देकर आजाद घूम रहे हैं. पुलिस मुखबिरों को ऐसे युवकों के नाम बताने के लिए कहती है, जिसका अतीत में कोई आपराधिक रिकॉर्ड रहा हो और फिर वह उसे पकड़ लेती है. घूस की रकम को पुलिस और मुखबिरों के बीच बांट लिया जाता है.’

दावत पर गए सरवर और नौशाद को मार गिराया गया

सरवर 11 साल की उम्र से ही दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम किया करता था और पिता की मृत्यु के बाद से वह अपने 8 सदस्यों के परिवार का अकेला पेट भरने वाला था. नौशाद अपनी पारिवारिक जमीन पर काम किया करता था.

शूटआउट की शाम सरवर और नौशाद दोनों को यास्मीन उर्फ रानो के घर पर रात के खाने पर बुलाया गया था. परिवार वालों के मुताबिक दोनों ही जाने से हिचकिचा रहे थे, क्योंकि काफी रात हो चुकी थी. लेकिन, रानो खुद उनके घर आ गयी और थोड़ी देर के लिए भी आने के लिए जिद करने लगी.

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नौशाद की मां रईसा (फोटो: नेहा दीक्षित)

अगले दिन सुबह चार बजे के करीब यह खबर फैल गयी कि सरवर और नौशाद एक एनकाउंटर में पुलिस के हाथों मारे गए हैं. पुलिस ने यह दावा किया कि वे पुलिस इन दोनों की तलाश हत्या, डकैती और जबरन वसूली के मामलों में कर रही थी और दोतरफा गोलीबारी में वे मारे गए.

यानी पुलिस इन दोनों की तलाश कर रही थी, लेकिन इन्हें खोज पाने में कामयाब नहीं हो रही थी. आखिर रानो ने इन दोनों को कैसे खोजा और आखिर रानो के घर पर पुलिस ने इन दोनों को कैसे पकड़ा, इन सवालों के जवाब अभी तक नहीं मिले हैं.

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सरवर की मां हमीदा (फोटो: नेहा दीक्षित)

सरवर की मां हमीदा अपने घर के अहाते की टूटी हुई दीवारों की ओर इशारा करती हुई कहती है, ‘इस घर को देखने पर आप यह यकीन नहीं कर पाएंगे कि वह ऐसा खतरनाक अपराधी रहा होगा. उसने थोड़ा सा पैसा तो मकान की मरम्मत पर खर्च किया होता. वह 50 रुपए की जरा-सी दिहाड़ी पर भी काम करने के लिए तैयार हो जाता था.’ एनकाउंटर में मारे जाने के दिन सरवर की बेटी एक साल की और नौशाद की बेटी 18 दिन की थी.

पोस्टमार्टम के बाद जब उनके शवों को उनके परिवार वालों को सुपुर्द किया गया, उस समय उनके शरीर की कई हड्डियां टूटी हुई थीं, जो इस बात की ओर इशारा कर रहा था कि गोली मारे जाने से पहले उन्हें बुरी तरह से पीटा गया था. दोनों परिवारों ने पुलिस से पोस्टमार्टम रिपोर्ट देने की मांग की, लेकिन पुलिस ने उन्हें रिपोर्ट देने से इनकार कर दिया.

हमीदा कहती है, ‘जब मैंने शामली के एसपी अजय पाल शर्मा से यह पूछा कि सरवर को पांव में गोली मारने की जगह, उसके मुंह में गोली क्यों मारी गयी, उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हें जो करना है, कर लो. आसपास के तीनों जिलों में मेरी हुकूमत चलती है.

एक स्थानीय वीडियो न्यूज रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की गयी कि पुलिस ने इन दोनों को रानो के घर में पकड़ा गया था. इनके मारे जाने के पांच दिनों के बाद, 4 अगस्त, 2017 को रानो उर्फ यास्मीन ने सरवर, नौशाद और उसके परिवार के चार लोगों समेत नौ लोगों पर बलात्कार का मामला दर्ज करा दिया.

रईसा कहती है कि यही कारण है कि उसका परिवार जांच की मांग नहीं कर रहा है. ‘मेरे दूसरे बेटों के खिलाफ बलात्कार का मामला बना दिया गया है, जिसके कारण हमें पुलिस के खिलाफ मामला दायर करने में डर लग रहा है. रानो ने अब बलात्कार के मामले को वापस लेने के एवज में सात लाख रुपये की मांग की है, जो हम नहीं दे सकते.’

सरवर के दो छोटे भाई अब मजदूरी का काम करते हैं. इनमें से एक विकलांग है. हमीदा कहती है, गरीब लड़कों के पास इसके अलावा और क्या चारा है कि वे बचपन से ही अपने परिवार के लिए पैसे कमाना शुरू कर दें? और अगर आप मुस्लिम लड़के हैं, तो आप पर किसी भी अपराध का आरोप लगाया जा सकता है और फिर आपको गोली मार कर मौत की नींद सुला दिया जा सकता है. मैं या तो अपने बच्चों का पेट भर लूं या कोर्ट में मुकदमा लड़ लूं.’

अर्जेंट कॉल’ के बाद हुई शमीम की मौत

28 वर्षीय शमीम भी ऐसी ही परिस्थितयों में मारा गया. वह मुजफ्फरनगर के सिसोनी गांव में राज मिस्त्री के तौर पर काम किया करता था. उस पर तीन साल पहले मोटरसाइकिल और मोबाइल फोन चोरी करने को लेकर एक मामला दर्ज किया गया था.

इन आरोपों के चलते उसने मुजफ्फरनगर जेल में दस दिन और देवबंद जेल में एक सप्ताह बिताया था. उसके पिता फकरू का कहना है, ‘एनकाउंटर के दिन 6 बजे शाम में एक औरत का फोन आया. उसने कहा कि यह अर्जेंट है.’

अगले दिन 4 बजे सुबह व्हाट्सएप्प के फॉरवर्ड किए हुए मैसेज से उन्हें यह पता चला कि पिछली रात 11 बजे शमीम एक एनकाउंटर में मारा गया. पुलिस ने दावा किया कि शमीम मुजफ्फरनगर के जनसाथ इलाके में ‘अपराध करने की योजना बना रहा था’ और आपसी गोलीबारी में मारा गया.

फकरू का कहना है, ‘उसी औरत ने अगले दिन अपने बैंक खाते में 14,000 रुपये जमा करवाए. आखिर अपराध की योजना बनाने का क्या मतलब है? क्या पुलिस केवल संदेह के बिना पर लोगों को मार कर एनकाउंटर में मारे जाने वाले लोगों की फेहरिस्त को लंबा बनाना चाहती है?’

किसी जमाने में उत्तर प्रदेश के शीर्ष पुलिस अधिकारी रहे एसआर दारापुरी अब एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर काम करते हैं. वो कहते हैं, ‘जैसे ही पुलिस मुखबिरों को तवज्जो देने लगती है, संख्या बढ़ने लगती है. वर्तमान समय में पुलिस द्वारा एनकाउंटरों का इस्तेमाल एक रणनीति के तहत किया जा रहा है, जो अपने आप में गैरकानूनी है. इन मामलों को अंजाम देने का तरीका और दर्ज एफआईआर का पैटर्न मिलता-जुलता है. इस रणनीति के तहत खासतौर पर मुस्लिम समुदाय की कमर तोड़ने के लिए मुस्लिम युवाओं की हत्या की जा रही है. दलितों और ओबीसी जातियों के खिलाफ इनका इस्तेमाल उन्हें आपराधिक मामलों में फंसाने के लिए किया जा रहा है. आखिर पुलिस मुस्लिमों, दलितों और ओबीसी जातियों के खिलाफ अपराध को रोकने के लिए भी इतनी ही सक्रियता क्यों नहीं दिखाती है?’

7. कानून में विश्वास को नष्ट करना

15 फरवरी, 2018 को राज्य विधान परिषद को संबोधित करते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने कहा, ‘1,200 एनकाउंटरों में 40 से ज्यादा अपराधी मारे गए हैं और यह सिलसिला अभी थमने वाला नहीं है.’ इस अनुमान के मुताबिक राज्य में भाजपा सरकार आने के बाद से पुलिस हर दिन औसतन चार एनकाउंटर को अंजाम दे रही है.

नौ महीनों में आदित्यनाथ सरकार को एनएचआरसी की तरफ से एनकाउंटर, महिला उत्पीड़न और गोरखपुर के एक अस्पताल में बच्चों की मौत समेत विभिन्न मसलों पर नौ नोटिस मिल चुके हैं. 22 नवंबर, 2017 को आदित्यनाथ के इस बयान पर कि ‘अपराधियों को या तो जेल में डाल दिया जाएगा या एनकाउंटरों में उन्हें मार गिराया जाएगा’, एनएचआरसी ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को नोटिस भेजकर इस मामले में विस्तृत रिपोर्ट भेजने के लिए कहा:

‘अगर कानून-व्यवस्था की हालत खराब है, तो भी सरकार ऐसे तरीकों को इस्तेमाल में नहीं ला सकती है, जिसका अंजाम कथित अपराधियों की न्यायेतर हत्याओं के तौर पर सामने आता हो. किसी सभ्य समाज के लिए जीवन के अधिकार और कानून के सामने समानता के अधिकार का उल्लंघन करनेवाली राज्य की कुछ नीतियों के कारण जन्म लेनेवाले डर का माहौल बनाना अच्छा नहीं है.’

उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को छह हफ्ते के भीतर एक विस्तृत रिपोर्ट जमा करने के लिए कहा गया है. अभी तक मानवाधिकार आयोग को कोई जवाब नहीं दिया गया है. यूपी पुलिस के जनसंपर्क अधिकारी राहुल श्रीवास्तव टिप्पणी करने के लिए उपलब्ध नहीं हुए.

उत्तर प्रदेश में न्यायेतर हत्या के सबसे डरावने सबसे उदाहरण- हाशिमपुरा नरसंहार के मामले में वकील रह चुकी रेबेका जॉन कहती हैं, ‘हाशिमपुरा के 30 साल बाद भी, कोई नतीजा नहीं आया है, क्योंकि कोर्ट, जांच एजेंसियों और सिविल सोसाइटी ने अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह से पल्ला झाड़ लिया है. पुलिस पहले भी सजा के खौफ के बगैर काम किया करती थी और 2018 में भी यह जारी है. दुनिया की कोई भी सभ्य न्यायिक व्यवस्था ऐसे हालातों को देखकर हैरत में पड़ जाएगी. सरकार ने एनकाउंटरों को इस तरह से आम बात बना दिया है कि इसे अपराधियों को समाप्त करने के एक हथियार के तौर पर देखा जाता है और यह पूरी तरह से चलन में बना हुआ है.’

इस बीच मीडिया द्वारा आदित्यनाथ के स्वच्छ बदमाश अभियान’ (राज्य में पुलिस एनकाउंटरों के लिए इस्तेमाल में लाया जानेवाला पद) का जश्न लगातार तेज होता जा रहा है. सही-गलत की परवाह किए बगैर लिखने वाले पत्रकारों ने इस इलाके को अपराध मुक्त करने में पुलिस की बहादुरी के बारे में लिखा है.

कई पत्रकारों ने तो मुजफ्फरनगर और शामली में पुलिस द्वारा एनकाउंटरों की लाइव रिकॉर्डिंग भी की है. यह अपराधियों के अचानक या संयोगवश सामने आ जाने के आधिकारिक दावे पर सवाल खड़े करता है और कई एनकाउंटरों की पूर्वनियोजित प्रकृति की ओर संकेत करता है.

मीडिया रिपोर्ट में अक्सर ‘एनकाउंटर कॉप’ के नाम से पुकारे जाने वाले शामली के एसपी अजय पाल शर्मा इन एनकाउंटरों का कोई पैटर्न होने या इनके पीछे किसी योजना से इनकार करते हैं.

उन्होंने द वायर  को कहा, ‘यह अच्छा है कि लोग एनकाउंटरों को लेकर सवाल उठा रहे हैं क्योंकि इन्हें जांच से परे नहीं होना चाहिए. अगर हमारा इरादा सही है, तो हमारे लिए पीछे हटने का कोई कारण नहीं है. सबसे बड़ा सबूत है कि हमारे कॉन्सटेबल अंकित कुमार तोमर को भी ऐसे ही एनकाउंटर में अपनी जान गंवानी पड़ी. हमने एनकाउंटर नहीं किया होता, अगर उनकी जरूरत नहीं पड़ी होती.’

लेकिन दारापुरी पुलिस वालों को आयी  चोटों की प्रकृति पर सवाल खड़े करते हैं. वे कहते हैं, ‘पुलिस को आयी चोटों की रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाना चाहिए, ताकि उन पर आरोपियों द्वारा किए गए हमले की प्रकृति का ठीक-ठीक पता चल सके.

अजय पाल शर्मा का कहना है कि सारे एनकाउंटरों की रिपोर्ट एनएचआरसी को भेज दी गयी है और एनकाउंटर में मौत होने की सूरत में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मजिस्ट्रेट जांच कराने के निर्देश का पालन करते हुए चार में से तीन मामलों में मजिस्ट्रेट जांच को भी पूरा कर लिया गया है.

यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें मारे गए लोगों के परिवारों की तरफ से भी एनकाउंटर की प्रकृति को लेकर कोई शिकायत मिली है, उन्होंने ऐसी कोई शिकायत आने से इनकार किया. पुलिस द्वारा डराने-धमकाने और मारे गए लोगों के घरों की तोड़-फोड़ की शिकायत पर उन्होंने कहा, ‘कोई कारण नहीं है कि पुलिस ऐसा कोई काम करेगी. हकीकत यह है कि मुजफ्फरपुर कोर्ट में हुई मजिस्ट्रेट जांचों के दौरान परिवार वालों की तरफ से ऐसा कोई बयान नहीं दिया गया.’

न्यायेतर हत्याओं पर सुप्रीम कोर्ट के 2014 के दिशा-निर्देशों के मुताबिक, ‘अगर सुराग मिलने पर या इंटेलिजेंस से कोई सूचना मिलने पर की गई कार्रवाई में एनकाउंटर होता है और पुलिस दल द्वारा आग्नेयास्त्रों (फायर आर्म्स) का इस्तेमाल किया जाता है और उसके परिणामस्वरूप जान जाती है, तो इस संबंध में एफआईआर दर्ज की जाएगी और उसे कोड की धारा 157 के तहत कोर्ट को अविलंब भेजा जाएगा.’

ऐसा लगता है कि पुलिस द्वारा की गई हत्याओं की वैधानिकता की जांच करने के लिए इस दिशा निर्देश को ईमानदारी से लागू नहीं किया गया है. मजिस्ट्रेट जांचों में शायद ही कभी किसी मुठभेड़ को फर्जी घोषित किया जाता है. 2009 में अहमदाबाद के एडिशनल मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट एसपी तमांग द्वारा इशरत जहां एनकाउंटर की जांच को हालांकि एक अपवाद माना जा सकता है. यही कारण है कि कार्यकर्ता पुलिस एनकाउंटर के मामले में न्यायिक जांच की मांग करते हैं.

वृंदा ग्रोवर कहती हैं, ‘न्यायिक जांच महत्पूर्ण है, जहां मरनेवाले पीड़ितों के खिलाफ लंबित मामलों से जुड़े जटिल सवालों- क्या ये मामले सजा योग्य थे, क्या पुलिस ने एनकाउंटर की योजना पहले ही बना ली थी, पुलिस और पीड़ित के पास मौजूद हथियारों की तुलना आदि का जवाब देने की कोशिश की जाती है, ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या पुलिस द्वारा इस्तेमाल किया गया बल जरूरत से ज्यादा था या बात इसके उलट थी.’

6 फरवरी को एनएचआरसी ने एक बार फिर यह कहा कि उत्तर प्रदेश में पुलिसकर्मी ‘अपनी ताकत का दुरुपयोग’ कर रहे हैं. यह नोटिस नोएडा में एक 25 वर्षीय व्यक्ति की एक सब-इंस्पेक्टर द्वारा हत्या के भेजा गया, जिसने इसे 3 फरवरी को हुए एनकाउंटर के तौर पर पेश किया था. सब इंस्पेक्टर ने कथित तौर पर अपने सहकर्मियों को कहा था कि एनकाउंटर से उसे समय से पहले प्रमोशन मिलेगा.

मानवाधिकार आयोग ने अपने एक बयान में कहा है, ‘आयोग को लगता है कि उत्तर प्रदेश में पुलिसकर्मी ऊपर से अघोषित तौर पर हरी झंडी मिलने के कारण अपनी ताकत का दुरुपयोग करने को लेकर स्वतंत्र महसूस कर रहे हैं. वे लोगों के साथ दुश्मनी निकालने के लिए अपने विशेषाधिकारों का उपयोग कर रहे हैं. पुलिसबल का काम लोगों की रक्षा करना है. ऐसी घटनाओं से समाज में गलत संदेश जाएगा.’

दारापुरी का कहना है,’ पुलिस एनकाउंटरों को राज्य की नीति बना देना गलता है, क्योंकि किसी दिन वही पुलिस अधिकारी किसी फर्जी मुठभेड़ के मामले में जांच के बाद मुकदमा का सामना कर सकता है, दोषी करार दिया जा सकता है और आजीवन कारावास की सजा पा सकता है. मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि बेहमई नरसंहार के बाद वीपी सिंह सरकार ने पुलिस एनकाउंटरों की संख्या बढ़ा दी थी. इसकी जवाबी कार्रवाई में कई पुलिस अधिकारियों को भी अपनी जान गंवानी पड़ी. यह कानून-व्यवस्था की स्थिति को काबू में लाने का तरीका नहीं है. इसकी जगह यह बदले की हिंसा के एक खतरनाक चक्र को शुरू कर देता है, जिससे निकलना आसान नहीं होता है.’

इसी बीच फुरकान के छोटे बच्चों ने दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करना शुरू कर दिया है. नसरीन कहती है, एनकाउंटर कानून-व्यवस्था को काबू में नहीं लाते. वे केवल मनोवैज्ञानिक समस्याओं को जन्म देते हैं. उस बच्चे का भरोसा कानून और सरकार में कैसे हो पाएगा, जिसकी यादों में पुलिस द्वारा मारे जाने के बाद जूट के बोरे की तरह सिला हुआ पिता का मृत शरीर ही हो.’’

(नेहा दीक्षित स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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