वेतन मांगने की वजह से दिल्ली में एक घरेलू कामगार सोनी कुमारी की निर्मम हत्या कर दी गई. झारखंड से लापता हुईं सोनी के परिवारवालों को उनकी हत्या से पहले तक पता ही नहीं था कि वह दिल्ली में हैं.
झारखंड की एक आदिवासी लड़की की दिल्ली में हत्या के बाद फिर से सवाल उठने लगे हैं कि मानव तस्करी का सिलसिला कब थमेगा तथा रोज़गार के नाम पर ज़ुल्म की शिकार हो रहीं लड़कियों की ज़िंदगी कैसे सुरक्षित हो सकेगी. तमाम कवायद के बाद भी क्यों नहीं टूट रहा तस्करी का जाल.
‘उसकी हत्या की ख़बर ने झकझोरा है, पर ज़िंदगी की दुश्वारियों के बीच हम कर भी क्या सकते हैं. कभी पुलिस का सामना नहीं किया और अब बयान दर बयान देना पड़ रहा है. कब गई, किसके साथ गई. क्यों गई आदि. बैल-बकरी संभालें, खेत-बाड़ी देखें या उसी के पीछे उलझे रहें. दस दिनों से हैरान-परेशान हूं. आते-जाते गांव के लोग भी सवाल करते हैं.’
रुक-रुक कर शंकर उरांव ये बातें कहते हुए उन पलों को भूलना चाहते हैं जब दिल्ली में पुलिस ने टुकड़ों में कटी नाबालिग बहन की लाश की पहचान कराई थी.
शंकर उरांव, झारखंड में सुदूर इलाके लापुंग के आदिवासी बहुल दहड़ा गांव के रहने वाले हैं. हाल ही में उनकी नाबालिग बहन सोनी कुमारी की लाश दिल्ली पुलिस ने बरामद की है. उन्हें झारखंड से दिल्ली लाने वाले व्यक्ति पर ही उसकी हत्या का आरोप है.
उसने हत्या इसलिए की क्योंकि सोनी अपने वेतन का पैसा उससे मांग रही थीं.
हत्या के इस मामले में दिल्ली पुलिस ने कथित मानव तस्कर मंजीत केरकेट्टा को गिरफ्तार किया है. मंजीत भी झारखंड में गुमला ज़िले के कामडारा का रहने वाला है और यह इलाका लापुंग से सटा है. इस मामले में एक महिला समेत दो अन्य आरोपियों की पुलिस को तलाश है.
पुलिस की प्रारंभिक तफ्तीश में ये बातें सामने आई है कि कथित तस्करों ने सोनी को दिल्ली ले जाकर घरेलू नौकरानी के काम पर लगाया था और उसकी मज़दूरी के पैसे वे लोग अपने पास रख लेते थे.
कई महीनों के बाद नाबालिग ने आरोपियों से पैसे की मांग की तो सुनियोजित तरीके से उसकी हत्या कर दी गई.
मानव तस्करी से जुड़ी यह खौफनाक घटना के सामने आने के बाद झारखंड पुलिस भी पूछताछ में जुटी है, लेकिन यहां की तंत्र को राहत मिलती दिखाई पड़ती है कि इस आदिवासी लड़की के लापता होने या किसी मानव तस्कर द्वारा कहीं ले जाने के बाबत किसी थाने में एफआआर दर्ज नहीं है.
मानव तस्करी के खिलाफ सालों से झारखंड में अभियान चला रहे सामाजिक कार्यकर्ता बैद्यनाथ कुमार कहते हैं कि हत्या का अंदाज़ बेहद निर्मम होने की वजह से इस घटना को लेकर झारखंड में थोड़ी हलचल है, वरना हर दूसरे–तीसरे महीने मानव तस्करी की शिकार लड़कियों की बेबसी, शोषण, अत्याचार की ख़बरें आती रहती हैं और उस पर आसानी से परदा डाल दिया जाता है. जबकि कई लड़कियों को बड़ी मशक्कत के बाद दूसरे प्रदेशों से छुड़ाकर वापस लाया जाता है.
बेबसी और भोलापन
मालगो पंचायत के दहड़ा गांव में शंकर उरांव अपनी मां और छोटे भाई के साथ रहते हैं. आदिवासी बहुल इस गांव में 75 परिवार है. खेती-बाड़ी और दिहाड़ी मज़दूरी ही लोगों के जीने का ज़रिया है.
शंकर उरांव बताते हैं कि पिछले साल फाल्गुन महीने के आसपास उनके पिता बंधु उरांव की मौत हो गई. अब उन पर मां एतवारी उराइंन और छोटे भाई प्रदीप उरांव को संभालने की ज़िम्मेदारी है. प्रदीप उरांव गांव के स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ता है.
कच्चे-खपरैल के घर में रहने वाले शंकर उरांव के पास दो बैल, दो बकरियां हैं और खेती के लिए कुछ ज़मीन. सिंचाई का बेहद अभाव है, लिहाज़ा खेती कम पड़ने पर वो दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं. उनका कहना है कि अभी दो बोरिया प्याज़ उपजाया है. उसे बारिश के मौसम में बेचकर नून-तेल की ख़र्च निकालेंगे.
बेटी की हत्या की ख़बर ने शंकर की मां एतवारी समेट गांव की दूसरी महिलाओं को भी सदमा लगा है. एतवारी को इसका पता नहीं था कि बेटी कहां गई और इसका भी अंदाज़ा नहीं था कि मानव तस्कर उसकी जान ले लेंगे.
लड़की कब घर से गई, इस सवाल पर शंकर उरांव बताते हैं कि तारीख़ याद नहीं, लेकिन पिछले साल पिता की मौत के कुछ ही दिनों बाद चली गई. उस वक़्त वो घर पर नहीं थे.
मां बताती है कि नहाने की बात कहकर वो घर से निकली और वापस नहीं आई.
शंकर और उनकी मां के मुताबिक सोनी के घर से जाने के बाद कभी कोई ख़बर नहीं मिली. जबकि उन लोगों ने इस बारे में पुलिस को सूचना नहीं दी थी.
पुलिस या पंचायत में जाने के सवाल पर शंकर बताते हैं कि इससे पहले भी सोनी ईंट-भट्ठे काम करने गई थी. कई मौके पर कुछ-कुछ दिनों के लिए घर पर नहीं रहती थी. हमलोगों को लगा लौट ही जाएगी. वैसे भी बहुत सारे लोग इस इलाके से कमाने-खाने परदेस जाते रहे हैं.
फिर घर-गृहस्थी संभालने की जद्दोजहद के बीच इधर-उधर पता करते भी थे, तो कोई जानकारी नहीं मिलती. हालांकि बाहर जाने के बाद बहन ने कभी पैसे नहीं भेजे. इससे पहले भी जब वो ईंट-भट्ठे से लौटी थी, तो न मुझे पैसे दिए थे और न ही मैंने मांगे थे.
एक गंवई महिला झुगिया उराइंन स्थानीय लहज़े में कहती हैं कि गांवों से बाहर काम करने कई लड़कियां जाती रही हैं. गांवों में इस बात की चर्चा भी होती रही है कि दलाल, मेठ (मानव तस्कर) लड़कियों के साथ ठीक सलूक नहीं करते.
मालगो की मुखिया सुगी देवी बताती हैं कि कभी यह बात सामने नहीं लाई गई कि सोनी कुमारी को दिल्ली ले जाया गया है.
गांव की कौशल्या देवी को इस बात का दुख है कि स्थानीय लोग ही मानव तस्करी के काम में जुटे हैं और महानगरों में घर-गांव की लड़कियों का सौदा करते हैं. इनमें महिलाएं भी शामिल होती हैं.
लापुंग थाने के इंचार्ज बताते हैं कि उन्होंने डेढ़ साल के रिकॉर्ड खंगाले हैं. इस लड़की के कहीं बाहर जाने या किसी के द्वारा बहकाकर कर ले जाने के बाबत कोई शिकायत पीड़ित परिवार ने दर्ज नहीं कराई है.
लापुंग के एक आदिवासी युवा रोहित मुंडा कहते हैं कि पंचायतों की भी इस संवेदनशील मामले में ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिए. अशिक्षा, गरीबी, रोज़गार वे सवाल हैं जो मानव तस्करों को बढ़ावा दे रहे हैं. पुलिस इन मामलों में तभी कोई क़दम उठाएगी जब कोई एफआईआर होगी. क्या दलालों पर नज़र रखना, गिरफ्तार करना पुलिस का काम नहीं है.
रोहित को इस बात का गुस्सा है कि भवायह होती इस समस्या की जड़ में गरीबी व रोज़गार है जबकि सरकार और सिस्टम के लिए यह कोई एजेंडा नहीं है.
इस बीच स्पेशल जुवेनाइल पुलिस अफसर के रूप में तैनात रांची के पुलिस उपाधीक्षक राजकुमार मेहता ने भी पीड़ित परिवार से पूछताछ की है. उनका कहना है कि शंकर उरांव और उनकी मां ने बताया है कि वे लोग पुलिस के पास कभी नहीं गए थे.
झारखंड में मानव तस्करी, महिला हिंसा के मामलों को कवर करती रहीं टाइम्स ऑफ इंडिया की वरिष्ठ पत्रकार केली किसलय कहती हैं, ‘आदिवासी इलाकों में गंवई परिवारों की इस बेबसी और भोलेपन को समझने की ज़रूरत है. इसी बरक्स गरीबी के हालात भी समझे जा सकते हैं. शंकर उरांव के परिवार के साथ भी यही गुज़रा है.’
केली बताती हैं, ‘पहाड़ों-जंगलों में बसे कई गांवों से पुलिस थाने की दूरी अधिक होती है. फिर एफआईआर के नाम पीड़ित परिवार पुलिस के रवैये और कई किस्म की पूछताछ का सामना करने से कतराते हैं. गुंजाइश इसकी भी रहती है कि पुलिस इस बात पर ज़ोर देती है कि जाओ पहले नाता-गोतिया के यहां पता करो.
कई आदिवासी परिवार इतने भोले होते हैं कि मज़दूरी, खेती से बाहर नहीं निकल पाते और बेटियों के घर से जाने के बाबत चुप्पी लगा जाते हैं. जबकि कई परिवार इस भरोसे बेटियों को बाहर जाने की इज़ाज़त देते हैं कि कुछ कमा कर भेजेगी तो घर का ख़र्च निकल सकेगा.
केली बताती हैं कि कई मामलों में ये तथ्य भी सामने आते रहे हैं कि मानव तस्कर लड़कियों को महानगरों के सपने दिखाकर ले जाने में सफल होते हैं. ज़ाहिर है मानव तस्करों के जाल में लड़कियों को फंसने-उलझने से बचाने के लिए सरकारी-ग़ैर सरकारी स्तर पर ज़मीनी स्तर काम किए जाने की ज़रूरत है.
आंकड़े चिंताजनक
गौरतलब है कि मानव तस्करी की घटनाओं को रोकने और तत्काल कार्रवाई के लिए झारखंड के आदिवासी बहुल आठ ज़िले- रांची, खूंटी, गुमला, लोहरदगा, सिमडेगा, चाईबासा, दुमका के अलावा पलामू में एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट (एएचटीयू) स्थापित किए गए हैं. इनके इलावा अपराध अनुसंधान विभाग (सीआईडी) भी इन मामलों पर नज़र रखता है.
आंकड़े बताते हैं कि साल 2014 से मार्च 2017 तक 247 मानव तस्करों को गिरफ्तार किया गया है. इनमें महिलाओं की संख्या 103 है. जबकि इसी दौरान 381 लोगों को इस जाल से बाहर निकाला गया और 394 मामले दर्ज किए गए.
जानकार मानते हैं कि लापता होने वाले बच्चों के कई मामले में भी मानव तस्करों का रैकेट काम करता है. आंकड़े बताते हैं कि साल 2013 से 2017 के मई महीने तक राज्य में 2489 बच्चे लापता हुए हैं. इनमें 1114 का अब तक पता नहीं चला है. हालांकि इन बच्चों का पता लगाने के लिए पुलिस महकमे ने विभिन्न स्तरों पर अफसरों की ज़िम्मेदारी तय की है और गैर सरकारी संस्थाओं की भी मदद लेती रही है.
उठते सवाल
सामाजिक कार्यकर्ता बैद्यनाथ कुमार बताते हैं कि साल 2013 में उन्होंने सीआईडी को 240 मानव तस्करों और दिल्ली समेत दूसरी जगहों के प्लेसमेंट एजेंसियों के नाम सौंपे थे. इन नामों पर छानबीन भी की गई, लेकिन गंभीरता से कार्रवाई नहीं की गई. जबकि सबसे ज़्यादा दिल्ली और हरियाणा में काम करने गईं लड़कियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता रहा है. इनमें मानव तस्करों और प्लेसमेंट एजेंसियों की भूमिका ज़्यादा ख़तरनाक होती है.
बैद्यनाथ दावा करते हैं कि अब भी कई कुख्यात तस्कर पुलिस की पकड़ से बाहर हैं. और खूंटी, गुमला, सिमडेगा, चाईबासा, रांची जैसे इलाकों से बड़ी तादाद में लड़कियों को वे महानगरों में ले जाने में सफल रहे हैं. दूसरी ओर रेस्क्यू कर लाई गईं लड़कियों के पुनर्वास को लेकर ठोस क़दम नहीं उठाए जाते हैं.
इस बीच दिल्ली में झारखंड की बेटी की हत्या के बाद राज्य बाल संरक्षण आयोग ने स्वतः संज्ञान लिया है. आयोग की चेयरमैन आरती कुजूर ने मीडिया से कहा है कि इस मामले में दिल्ली पुलिस से एक हफ्ते में रिपोर्ट मांगी गई है. इसके साथ ही तथ्यों को जानने के लिए एक सात सदस्यीय टीम गठित कर दिल्ली भेजने का फैसला लिया है.
गौरतलब है कि झारखंड सरकार ने मानव तस्करी की शिकार लड़कियों की मदद के लिए दिल्ली में स्टेट रिसोर्स सेंटर स्थापित किया है. बाल संरक्षण आयोग की चेयरमैन इस सेंटर के काम पर सवाल खड़े करने के साथ कहती हैं कि यह सेंटर बंद हो चुका है. इस बाबत उन्होंने पहले भी सरकार को पत्र लिखा था.
खौफ़नाक घटनाएं
इसी साल जनवरी के महीने में खूंटी ज़िले के एक सुदूर गांव की नाबालिग लड़की को दिल्ली महिला आयोग की कोशिशों से बचाया जा सका. दिल्ली के पॉश इलाके में रहने वाली एक डॉक्टर ने लड़की के हाथ जला दिए थे, चेहरे पर गर्म पानी फेंके थे. लड़की चार महीने से उस डॉक्टर के घर में काम कर रही थी. यह घटना सामने आने के बाद पुलिस ने उस डॉक्टर को गिरफ्तार भी किया था.
इस घटना के बाद लातेहार ज़िले की एक नाबालिग लड़की के साथ दरिंदगी का मामला सामने आया था. इस मामले में भी दिल्ली की महिला आयोग ने कार्रवाई की थी.
कुछ दिनों पहले गोड्डा की राजभिट्ठा तथा चपरी गांव की दो नाबालिग लड़कियों को फरीदाबाद से मुक्त कराया गया है. इन लड़कियों ने भी ज़ुल्म की कहानियां बताई थीं.
बाल अधिकारों के संरक्षण को लेकर तथा मानव तस्करी के ख़िलाफ़ काम करने वाली संस्था शक्ति वाहिनी के अध्यक्ष रविकांत कहते है, ‘दिल्ली समेत कई महानगरों में काम के नाम पर नाबालिग लड़कियों की डिमांड बहुत ज़्यादा है. जबकि कानून में कई कमियां हैं. झारखंड समेत कई राज्यों में प्लेसमेंट एजेंसी एक्ट नहीं होने से एजेंसियों में काम करने वालों ने ट्रैफिकर का शक्ल ले लिया है और वे लाखों- करोड़ों की कमाई कर रहे हैं.
इस पूरे जाल में बच्चे दोतरफा पिसते हैं. कई घर मालिक अमानवीय व्यवहार करते ही हैं प्लेसमेंट एजेंसियों के लोग बच्चों के पैसे रख लेते हैं या उन्हें घर जाने नहीं देते, परिजनों से बात करने नहीं देते.’
रविकांत बताते हैं कि रोज़गार की कमी होने पर लोग बाहर जाएंगे ही, लेकिन सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि सुरक्षित पलायन (सेफ माइग्रेशन) हो. इनके अलावा घरेलू वर्कर को लेकर जो एक्ट बना है उसमें 12 से 16 साल के बच्चों से काम लिए जाने को खतरनाक काम के तौर पर शामिल किए जाने चाहिए.
पिछले कई सालों से झारखंड के आदिवासी इलाकों में मानव तस्कर सक्रिय रहे हैं. इस लिहाज़ से एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट को भी सक्रिय होने की ज़रूरत है. दरअसल आदिवासी बच्चे इनके निशाने पर होते हैं.
बहुतेरे परिवार लड़कियों के काम पर जाने के मामले में मुंह नहीं खोलते, जबकि कई लड़कियां जब शोषण का शिकार होती हैं तो मदद की गुहार लगाई जाती है.
हालांकि मानव तस्करी के मामलों में कार्रवाई को लेकर कई स्तरों पर काम हो रहा है पर जिस तरह की खौफनाक तस्वीरें लगातार सामने आती रही है उसके संकेत यही हैं कि शोषण के किस्से अभी बाकी हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं.)