‘जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर संभालनी है, उन्हें अक़्ल का अंधा बनाया जा रहा है’

विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं?

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हम यह मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए.

Bhagat-Singh

(जब पूरा देश ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ लड़ रहा था, कुछ नेता ऐसे भी थे जो विद्यार्थियों को राजनीति में हिस्सा न लेने की सलाह देते थे. इस सलाह के जवाब में भगत सिंह ने ‘विद्यार्थी और राजनीति’ शीर्षक से यह महत्वपूर्ण लेख लिखा था, जो जुलाई, 1928 में ‘किरती’ में छपा था.)

इस बात का बड़ा भारी शोर सुना जा रहा है कि पढ़ने वाले नौजवान (विद्यार्थी) राजनीतिक या पॉलिटिकल कामों में हिस्सा न लें. पंजाब सरकार की राय बिल्कुल ही न्यारी है. विद्यार्थी से कॉलेज में दाख़िल होने से पहले इस आशय की शर्त पर हस्ताक्षर करवाए जाते हैं कि वे पॉलिटिकल कामों में हिस्सा नहीं लेंगे. आगे हमारा दुर्भाग्य कि लोगों की ओर से चुना हुआ मनोहर, जो अब शिक्षा-मंत्री है, स्कूलों-कॉलेजों के नाम एक सर्कुलर या परिपत्र भेजता है कि कोई पढ़ने या पढ़ाने वाला पॉलिटिक्स में हिस्सा न ले. कुछ दिन हुए जब लाहौर में स्टूडेंट्स यूनियन या विद्यार्थी सभा की ओर से विद्यार्थी-सप्ताह मनाया जा रहा था, वहां भी सर अब्दुल कादर और प्रोफेसर ईश्वरचंद्र नंदा ने इस बात पर ज़ोर दिया कि विद्यार्थियों को पॉलिटिक्स में हिस्सा नहीं लेना चाहिए.

पंजाब को राजनीतिक जीवन में सबसे पिछड़ा हुआ कहा जाता है. इसका क्या कारण हैं? क्या पंजाब ने बलिदान कम किए हैं? क्या पंजाब ने मुसीबतें कम झेली हैं? फिर क्या कारण है कि हम इस मैदान में सबसे पीछे है? इसका कारण स्पष्ट है कि हमारे शिक्षा विभाग के अधिकारी लोग बिल्कुल ही बुद्धू हैं. आज पंजाब काउंसिल की कार्रवाई पढ़कर इस बात का अच्छी तरह पता चलता है कि इसका कारण यह है कि हमारी शिक्षा निकम्मी और फिज़ूल होती है, और विद्यार्थी-युवा जगत अपने देश की बातों में कोई हिस्सा नहीं लेता. उन्हें इस संबंध में कोई भी ज्ञान नहीं होता. जब वे पढ़कर निकलते हैं तब उनमें से कुछ ही आगे पढ़ते हैं, लेकिन वे ऐसी कच्ची-कच्ची बातें करते हैं कि सुनकर स्वयं ही अफ़सोस कर बैठ जाने के सिवाय कोई चारा नहीं होता.

जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक़्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है. इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें ख़ुद ही समझ लेना चाहिए. हम यह मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए. ऐसी शिक्षा की ज़रूरत ही क्या है? कुछ ज़्यादा चालाक आदमी यह कहते हैं, ‘काका तुम पॉलिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो ज़रूर, लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो. तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फ़ायदेमंद साबित होगे.’

बात बड़ी सुंदर लगती है, लेकिन हम इसे भी रद्द करते हैं, क्योंकि यह भी सिर्फ़ ऊपरी बात है. इस बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक दिन विद्यार्थी एक पुस्तक ‘अपील टू द यंग, प्रिंस क्रोपोटकिन’ पढ़ रहा था. एक प्रोफ़ेसर साहब कहने लगे, ‘यह कौन-सी पुस्तक है? और यह तो किसी बंगाली का नाम जान पड़ता है!’ लड़का बोल पड़ा, ‘प्रिंस क्रोपोटकिन का नाम बड़ा प्रसिद्ध है. वे अर्थशास्त्र के विद्वान थे.’ इस नाम से परिचित होना प्रत्येक प्रोफ़ेसर के लिए बड़ा ज़रूरी था. प्रोफ़ेसर की ‘योग्यता’ पर लड़का हंस भी पड़ा. और उसने फिर कहा, ‘ये रूसी सज्जन थे.’ बस! ‘रूसी!’ क़हर टूट पड़ा! प्रोफ़ेसर ने कहा, ‘तुम बोल्शेविक हो, क्योंकि तुम पॉलिटिकल पुस्तकें पढ़ते हो.’ देखिए आप प्रोफ़ेसर की योग्यता! अब उन बेचारे विद्यार्थियों को उनसे क्या सीखना है? ऐसी स्थिति में वे नौजवान क्या सीख सकते हैं?

दूसरी बात यह है कि व्यावहारिक राजनीति क्या होती है? महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस का स्वागत करना और भाषण सुनना तो हुई व्यावहारिक राजनीति, पर कमीशन या वायसराय का स्वागत करना क्या हुआ? क्या वो पॉलिटिक्स का दूसरा पहलू नहीं? सरकारों और देशों के प्रबंध से संबंधित कोई भी बात पॉलिटिक्स के मैदान में ही गिनी जाएगी, तो फिर यह भी पॉलिटिक्स हुई कि नहीं? कहा जाएगा कि इससे सरकार ख़ुश होती है और दूसरी से नाराज़? फिर सवाल तो सरकार की ख़ुशी या नाराज़गी का हुआ. क्या विद्यार्थियों को जन्मते ही ख़ुशामद का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए? हम तो समझते हैं कि जब तक हिंदुस्तान में विदेशी डाकू शासन कर रहे हैं तब तक वफ़ादारी करने वाले वफ़ादार नहीं, बल्कि ग़द्दार हैं, इंसान नहीं, पशु हैं, पेट के ग़ुलाम हैं. तो हम किस तरह कहें कि विद्यार्थी वफ़ादारी का पाठ पढ़ें?

सभी मानते हैं कि हिंदुस्तान को इस समय ऐसे देश-सेवकों की ज़रूरत है, जो तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आज़ादी के लिए न्योछावर कर दें. लेकिन क्या बुड्ढों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे? क्या परिवार और दुनियादारी के झंझटों में फंसे सयाने लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे? यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्हीं जंजालों में न फंसे हों और जंजालों में पड़ने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं यदि उन्होंने कुछ व्यावहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो. सिर्फ गणित और ज्योग्राफी काे ही परीक्षा के पर्चों के लिए घोंटा न लगाया हो.

क्या इंग्लैंड के सभी विद्यार्थियों का कॉलेज छोड़कर जर्मनी के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए निकल पड़ना पॉलिटिक्स नहीं थी? तब हमारे उपदेशक कहां थे जो उनसे कहते, जाओ, जाकर शिक्षा हासिल करो. आज नेशनल कॉलेज, अहमदाबाद के जो लड़के सत्याग्रह के बारदोली वालों की सहायता कर रहे हैं, क्या वे ऐसे ही मूर्ख रह जाएंगे? देखते हैं उनकी तुलना में पंजाब का विश्वविद्यालय कितने योग्य आदमी पैदा करता है?

सभी देशों को आज़ाद करवाने वाले वहां के विद्यार्थी और नौजवान ही हुआ करते हैं. क्या हिंदुस्तान के नौजवान अलग-अलग रहकर अपना और अपने देश का अस्तित्व बचा पाएंगे? नौजवान 1919 में विद्यार्थियों पर किए गए अत्याचार भूल नहीं सकते. वे यह भी समझते हैं कि उन्हें क्रांति की ज़रूरत है. वे पढ़ें. जरूर पढ़ें, साथ ही पॉलिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब ज़रूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपने जीवन को इसी काम में लगा दें. अपने प्राणों को इसी में उत्सर्ग कर दें. वरना बचने का कोई उपाय नज़र नहीं आता.

(वेबसाइट www.marxists.org से साभार)