हुज़ूर! 2014 से 2018 आ गया, अब तो बताइए काम कब होगा?

मोदी सरकार ने 2014 में चार नए एम्स, 2015 में 7 नए एम्स और 2017 में दो एम्स का ऐलान करते हुए 148 अरब रुपये का प्रावधान किया गया था मगर अ​ब तक 4 अरब रुपये ही दिए गए हैं. आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि किस रफ़्तार से काम हो रहा होगा.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो: पीटीआई)

मोदी सरकार ने 2014 में चार नए एम्स, 2015 में 7 नए एम्स और 2017 में दो एम्स का ऐलान करते हुए 148 अरब रुपये का प्रावधान किया गया था मगर अब तक 4 अरब रुपये ही दिए गए हैं. आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि किस रफ़्तार से काम हो रहा होगा.

The Prime Minister, Shri Narendra Modi addressing at the ceremony to launch the Goods & Service Tax (GST), in Central Hall of Parliament, in New Delhi on June 30, 2017.
(फोटो: पीटीआई)

देखते-देखते चार साल बीत गए मगर मोदी सरकार ने जिस कॉरपोरेट के लिए जान लगा दिया उसने अभी तक कोई अच्छी ख़बर सरकार को नहीं दी है. इस वित्त वर्ष की चौथी तिमाही के कॉरपोरेट के नतीजे चार साल में सबसे ख़राब हैं. कंपनियां मुनाफे के लिए काम करती है. उन सभी का मुनाफा पिछले साल की इसी तिमाही की तुलना में 14.4 प्रतिशत कम हो गया है. मुनाफे के मामले में चार साल में यह सबसे ख़राब प्रदर्शन है.

फिर भी बिजनेस स्टैंडर्ड ने इसे कम महत्व दिया है. इस बात को ज़्यादा महत्व दिया है कि चौथी तिमाही में कॉरपोरेट के राजस्व में इज़ाफ़ा हुआ है. लगातार दूसरी तिमाही में उनका राजस्व बढ़ा है. पिछली 16 तिमाही में यह तीसरी बार है जब राजस्व में ऐसी वृद्धि हुई है. मतलब कुछ ख़ास नहीं है.

रिपोर्टर कृष्णकांत लिखते हैं कि कंपनियां बहुत कम मार्जिन पर काम कर रही हैं. यह बताता है कि बाज़ार में मांग और ख़रीदने की क्षमता नहीं है. जानकार कहते हैं कि इस रिपोर्ट से तो ऐसा लगता है कि 2018-19 में कॉरपोरेट इंडिया तेज़ी से विकास नहीं कर पाएगा.

एयर इंडिया को ख़रीददार नहीं मिला है. यही नहीं मोदी सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की 30 कंपनियों को बेचने की तैयारी कर चुकी है मगर बिक नहीं रही हैं. दूसरे शब्दों में इसे कहा जाता है कि सरकार अपनी हिस्सेदारी कम कर रही हैं. सिर्फ हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन की हिस्सेदारी बिक पाई है. वो भी सार्वजनिक क्षेत्र की ही एक दूसरी कंपनी ओएनजीसी ने ख़रीदी है. सरकार का लक्ष्य है कि विनिवेश के ज़रिए 800 अरब रुपये का जुटान करेगी मगर इस वित्त वर्ष में ठन ठन गोपाल वाली स्थिति है.

केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आंकड़े बताते हैं कि चौथी तिमाही में कृषि उपजों के दामों में गिरावट है. किसान की लागत बढ़ गई है. पेट्रोल-डीज़ल के दाम ने और हाहाकार मचाया हुआ है. न दूध वाले को दाम मिल रहा है, न सब्ज़ी वाले को, न दाल वाले को, न लहसुन वाले को, न प्याज़ वाले को. 2014 से 2018 आ गया मगर कोई हल नहीं निकला.

कृषि मंत्री कहते हैं कि किसान मीडिया में आने के लिए स्टंट चल रहे हैं. अभी मोदी सरकार का टाइम ठीक चल रहा है. मोदी की लोकप्रियता का असर है वरना ऐसे मंत्री को दो मिनट में सरकार से बाहर कर देना चाहिए था जो किसानों का इस तरह से अपमान करते हैं.

हमारे यहां मंत्रालयों की जनसुनवाई होती नहीं है, सार्वजनिक समीक्षा नहीं होती वरना पता चलता कि ऐसे लोग कौन सा स्टंट करके मंत्री बन जाते हैं और बिना प्रदर्शन के मंत्री बने रहते हैं. आखिर मोदी जी ही बता सकते हैं कि ज़ीरो रिज़ल्ट वाले इस मंत्री को किस लिए कृषि मंत्रालय में रखा है.

किसानों का अपमान करने के लिए या काम करने के लिए. क्या आपने कभी किसी कृषि संकट या आंदोलन के वक्त इस मंत्री की कोई भूमिका देखी है? वैसे किस मीडिया में किसानों का आंदोलन आ रहा है मंत्री जी?

इंडिया स्पेंड ने एम्स अस्पतालों पर हो रही बयानबाज़ी की समीक्षा की है. मोदी सरकार ने इस साल झारखंड और गुजरात में दो एम्स का ऐलान किया है सरकार ने 20 एम्स जैसे अस्पतालों का भी ऐलान किया है. ये एम्स जैसा क्या होता है, इसलिए होता है कि आप हर काम में एम्स का नाम लगाकर उसके ब्रांड वैल्यू का दोहन करना चाहते हैं. जनता वैसे ही एम्स के नाम पर मगन हो जाती है और सपने देखने लगती है. पर इन घोषणाओं की हकीकत क्या है?

मोदी सरकार ने 2014 में चार नए एम्स, 2015 में 7 नए एम्स और 2017 में दो एम्स का ऐलान किया है. इसके लिए 148 अरब रुपये का प्रावधान किया गया था मगर सरकार ने अभी तक 4 अरब रुपये ही दिए हैं. अब आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि एम्स किस रफ्तार से बन रहा होगा.

148 अरब का बजट और दिया गया है 4 अरब. घोषणा कर दो, बाद में कौन पूछता है कि बन भी रहा है या नहीं. बीस साल में सब कुछ खुद से बन जाता है. चूंकि एम्स के नाम से इलाके में उम्मीदों का प्रोपेगैंडा अच्छा होता है, लोग गौरव महसूस करने लगते हैं और होता कुछ नहीं है. काम नेताओं का हो जाता है.

1956 में पहला एम्स बना था. उसके बाद वाजपेयी सरकार ने 6 एम्स बनाने का ऐलान किया 2003में. 2012 में ये अस्पताल बने. 9 साल लगे. सारे छह एम्स में 60 प्रतिशत फैकल्टी नहीं है. 80 प्रतिशत नॉन फैकल्टी पद ख़ाली हैं.

बिना टीचर प्रोफेसर के छात्र डॉक्टरी पढ़ रहे हैं और एम्स बन जा रहा है. इससे तो अच्छा है कि किसी भी खंडहर या ख़ाली अस्पताल का नाम एम्स रख दो. अभी जब एम्स भोपाल के छात्रों ने प्रदर्शन किया, भोपाल से दिल्ली तक की पदयात्रा की तब जाकर एक पूर्णकालिक निदेशक तैनात हुआ है, इसीलिए कहता हूं कि ज़ोर काम पर नहीं, ऐलान पर है.

जब शिक्षक नहीं मिल रहे हैं तब सरकार कोई रास्ता क्यों नहीं निकालती हैं. इतनी तनख्वाह और सुविधा क्यों नहीं देती कि डाक्टर निजी अस्पताल में न जाएं. इंडिया स्पेंड ने रिसर्च कर बताया है कि पिछले साल कई एम्स के लिए 1300 पदों का विज्ञापन निकला.

मात्र 300 चुने गए और उसमें से भी 200 ने ही जॉइन किया. ये तो हालत है. डाक्टर ही एम्स को एम्स नहीं समझते और जनता में एम्स की ब्रांडिंग का राजनीतिक लाभ लिया जा रहा है. पर जनता को तो कुछ लाभ नहीं हुआ न.

मेडिकल के एक छात्र ने बताया कि एम्स ऋषिकेश काफी अच्छा बना है. मगर वहां मरीज़ नहीं हैं. सिर्फ डॉक्टरों की गाड़ियां खड़ी मिलती हैं. अगर ऐसा है तो यह कितना दुखद है. सरकार जो बन गया है उसी का ढंग से प्रचार क्यों नहीं करती है.

उसी की व्यवस्था दिल्ली के एम्स जैसा बनाने में क्यों नहीं खुद को लगाती है. अब आपको एक और झांसा दिया जाएगा. बीमा का झांसा. अस्पताल नहीं, डॉक्टर नहीं मगर बीमा ले लीजिए. बीमा एजेंट ही अब लोगों का उपचार करेगा.

(यह लेख मूलतः रवीश कुमार के फेसबुक पेज पर प्रकाशित हुआ है.)