हमारी राष्ट्रीय राजनीति और भाजपा कांग्रेस विरोधी आंदोलन यानी प्रतिरोध का ही नतीजा हैं, लेकिन इसके बारे में कोई बात नहीं करता. ख़ुद भाजपा भी नहीं. वे चाहते हैं कि हम इमरजेंसी के बारे में जानें लेकिन उतना, जितने से उन्हें नुकसान न पहुंचे.
आज देश चला रहे लोगों के बारे में अगर एक वाक्य कहना हो, तो वो होगा कि आज वे इस स्थिति में पहुंचे हैं क्योंकि जब वे नौजवान थे तब उन्होंने संघर्ष किया था. अगर दो बातें और जोड़नी हों, तो मैं यह कहूंगा कि आज यही लोग नहीं चाहते हैं कि अब की नौजवान पीढ़ी इस बात को जाने. यही वजह है कि हम प्रतिरोध के इतिहास में कुछ नहीं जानते.
यह अब हर रोज की बात हो गई है कि भाजपा के नेता जनता के बीच कहते सुने जा सकते हैं: मत भूलिए, कांग्रेस ने इमरजेंसी लगाई थी. करीब 40 साल पहले किया गया सत्ता का यह दुरूपयोग आज भी कांग्रेस को बैकफुट पर धकेल देता है- और बाकी किसी को सत्ता के दुरुपयोग के विरोध से रोकता है.
अब देश की सरकार चाहती है कि इस देश का युवा यह समझे कि प्रतिरोध करना राष्ट्रद्रोह और गैर-लोकतांत्रिक है. हालांकि, भाजपा के कई वर्तमान बड़े नेताओं ने न केवल इमरजेंसी के दौरान छात्र आंदोलनों का नेतृत्व किया था, बल्कि इमरजेंसी से सालों-महीनों पहले भी वे छात्र आंदोलन में सक्रिय थे- और उस स्तर तक जिसके बारे में आज का युवा सिर्फ सोच ही सकता है.
‘अब हमारी बारी है’
16 मई को कर्नाटक विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद राज्यपाल की भूमिका को छिड़ी बहस के दौरान भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कांग्रेस के बारे में तंज़ करते हुए ट्वीट किया कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी पार्टी का इतिहास भूल गए हैं जिसने इमरजेंसी लगायी, आर्टिकल 356 का दुरूपयोग किया, साथ ही अदालत, मीडिया और नागरिक संगठनों को भंग करने की कोशिश की.
President of the Congress obviously doesn’t remember the glorious history of his party.
The legacy of Mr. Rahul Gandhi’s Party is the horrific Emergency, blatant misuse of Article 356, subverting the courts, media and civil society.
— Amit Shah (@AmitShah) May 17, 2018
इसके बाद टाइम्स नाउ भी पीछे नहीं रहा.
Hard Fact on India Upfront: Indira declared 'emergency' subverting Constitution #YeddyStepsDown
— TIMES NOW (@TimesNow) May 19, 2018
ऐसा लगा कि कहा जा रहा हो कि इतिहास के इस पाठ की सीख यही है कि अब हमारी बारी है.
लेकिन दक्षिणपंथी झुकाव रखने वाली एक महिला, जो इनकी अपेक्षा कम उम्र की हैं, की इस मामले पर टिप्पणी ज्यादा दिलचस्प थी.
उन्होंने लिखा था कि भाजपा वही कर रही है जो कांग्रेस दशकों पहले कर चुकी है. इस बात पर कोई शक ही नहीं है कि कांग्रेस ने संस्थानों को कमज़ोर बनाया. इंदिरा गांधी प्रमुख राज्यों में उनके आज्ञाकारी लोगों को राज्यपाल बनानेकी कला में माहिर थीं. मैं शर्त लगा सकती हूं कि उस वक्त किसी ने नहीं पूछा होगा कि यह लोकतांत्रिक या सही तरीका है. इस वक्त कोई नहीं कह सकता कि वह दूध का धुला है.
उनका यह जवाब ट्विटर पर पूछे गये इस सवाल पर आया था कि क्या एक महत्वपूर्ण फैसला (उस समय कर्नाटक ने सरकार बनाने संबंधी निर्णय) किसी ‘चमचा’ राज्यपाल पर छोड़ा जा सकता है.
BJP doing what Congress perfected for decades. No question Congress played its part in weakening institutions. Indira Gandhi perfected the art of placing pliant governors in key states. I bet no one was asking if it was democratic or fair then. No one can play holier than thou. https://t.co/6ekJWYYexr
— Rupa Subramanya (@rupasubramanya) May 16, 2018
जब मैंने उनका यह विचार पढ़ा तो सोचा कि ‘मैं शर्त लगा सकता हूं.’ लेकिन तब तक 650 लोगों ने इसे रिट्वीट कर दिया था और ज्यादातर का मानना था कि वाकई में उस वक्त किसी ने इसका विरोध क्यों नहीं किया.
मुश्किल सवालों से निपटने का दक्षिणपंथी खेमे में यह एक आम चलन है कि कांग्रेस ने जब यह किया तब किसी ने क्यों नहीं विरोध किया? बेशक इसका एक जवाब है और वो जवाब है कि विरोध किया गया था.
हमारी राष्ट्रीय राजनीति और भाजपा खुद कांग्रेस विरोधी आंदोलन का ही नतीजा हैं. इसके बारे में हम 2018 में कभी बात नहीं करते. अमित शाह इस पर कोई ट्वीट नहीं करते हैं. वे चाहते हैं कि हम इमरजेंसी के बारे में जाने लेकिन ज्यादा नहीं.
इमरजेंसी के बारे में जानिए, लेकिन ज्यादा नहीं
अरुण जेटली भारत के वित्त मंत्री हैं. वे रक्षा मंत्री भी रह चुके हैं और मोदी सरकार में काफी मजबूत हैसियत रखते हैं. उन्होंने 2015 में कैंपस में होने वाले विरोध-प्रदर्शनों को ‘भटके हुए लोगों का गठबंधन’ कहा था.
यह 22 साल के उस जेटली से अलग जेटली हैं जो दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई के दौरान छात्र आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे. इस छात्र आंदोलन ने कई शहरों में चक्का जाम कर रखा था.
1973 के दिसंबर महीने में गुजरात के अहमदाबाद के एलडी इंजीनियरिंग कॉलेज में कैंटीन में बढ़ी कीमतों को लेकर प्रदर्शन हो रहे थे. पुलिस ने उन आंदोलनकारियों के खिलाफ बल प्रयोग किया जिससे आंदोलन और भड़क उठा. दूसरे कैंपस में भी आंदोलन शुरू हो गए और 1974 की शुरुआत तक पूरे शहर में यह आंदोलन होने लगे.
नतीजा यह निकला कि राज्य सरकार के खिलाफ दो राज्यव्यापी हड़ताल, आगजनी और लूटपाट हुईं. आंदोलनकारी छात्रों ने कांग्रेस के विधायकों की गाड़ियों और संपत्ति पर हमला किया और उन्हें इस्तीफा देने के लिए डराया-धमकाया. सेना के शहर में दाखिल होने से पहले तक पूरे अहमदाबाद में अराजकता का माहौल छा गया था.
इस बीच पटना में भी इसी तरह का विरोध और व्यापक पैमाने पर आकार ले रहा था. 18 मार्च को एबीवीपी और दूसरे दक्षिणपंथी प्रदर्शनकारियों ने बिहार विधानसभा का घेराव किया था.
पुलिस के साथ मुठभेड़ के बाद छात्रों ने सरकरी इमारतों, एक सरकारी गोदाम और दो अखबार के दफ्तरों में आग लगा दी. आंदोलन के बिहार में पकड़ बनाने के बाद इसमें स्वतंत्रता सेनानी जयप्रकाश नारायण (जेपी) शामिल हुए. छात्रों ने उन्हें सार्वजनिक मंचों पर आंदोलन का नेतृत्व करने को कहा.
संपूर्ण क्रांति का नारा
जेपी जवाहरलाल नेहरू के साथी रहे थे लेकिन नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी के कटु आलोचक थे, जो उनके अनुसार कांग्रेस को चापलूस और परिवार केंद्रित पार्टी बना रही थीं. वे उन संस्थानों को खोखला कर रही थीं, जो पार्टी की ताकत पर नियंत्रण रखते थे. तब बिहार में जेपी ने केंद्र की निर्वाचित सरकार के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का नारा दिया था.
जेपी के आंदोलन को विपक्षी दलों का समर्थन हासिल था. इसमें आरएसएस, भारतीय जन संघ, समाजवादी, कांग्रेस से नाराज चल रहे लोग, और सीपीआई–माले के कई धड़े शामिल थीं.
1974 में अरूण जेटली ने अहमदाबाद और पटना की यात्रा कर जेपी आंदोलन का समर्थन किया था जिसमें एक निर्वाचित सरकार के खिलाफ छात्र बवाल काट रहे थे, पत्थरबाजी कर रहे थे, यूनिवर्सिटी के दफ्तरों में आग लगा रहे थे और शहर बंद करवा रहे थे. इस साल के अंत तक जेटली को छात्र संगठनों की संघर्ष समिति का राष्ट्रीय संयोजक बना दिया गया था.
जब जेपी आंदोलन अपने पूरे शबाब पर था तब तक इंदिरा के सलाहकारों ने इमरजेंसी के बारे में सोचा भी नहीं था. 1975 की शुरुआत में जब रेलमंत्री एलएन मिश्रा की एक बम विस्फोट में मौत हुई, तब इसका ख्याल पहली बार आया था.
इसके छह महीने बाद इमरजेंसी लागू की गई जब हाईकोर्ट के एक जज ने भारत के प्रधानमंत्री को संसद से अपदस्थ करने की कोशिश की, जबकि संसद में उनके पास दो-तिहाई बहुमत हासिल था. साथ ही उन्हें अगले छह सालों तक चुनाव न लड़ने का भी फैसला सुनाया गया था.
हाईकोर्ट के इस फैसले का आधार चुनावी नियमों का मामूली उल्लंघन था. लंदन के द टाइम्स ने इसे ‘ट्रैफिक नियम तोड़ने की वजह से प्रधानमंत्री को हटाना’ कहा था.
23 जून को इंदिरा गांधी सुप्रीम कोर्ट से इस फैसले पर रोक लगवाने में कामयाब रही. इसकी प्रतिक्रिया में जेपी ने नई दिल्ली में एक रैली बुलाई और देश की जनता से अपील की वो सरकार का चलना असंभव कर दे.
अरुण जेटली उसमें शामिल थे. जेपी ने आर्मी और पुलिस से सरकारी आदेश नहीं मानने की अपील की. ऐसा उन्होंने पहली बार नहीं किया था. इसे सैन्य विद्रोह के संकेत के तौर पर देखा गया. जेपी ने आह्वान किया कि प्रधानमंत्री आवास छात्रों के द्वारा घेर लिया जाएगा.
उस शाम एक इंटरव्यू के दौरान मोरारजी देसाई ने कहा, ‘हम उन्हें उखाड़ फेंकना चाहते हैं. हम में से हज़ारों लोग उनके आवास को घेर लेंगे और उन्हें बाहर निकलने नहीं देंगे और न ही किसी से मिलने देंगे. हम दिन-रात उनके आवास के बाहर पड़े रहेंगे और उनसे इस्तीफा देने की मांग करेंगे.’
25 जून 1975 की मध्यरात्रि से कुछ मिनट पहले इमरजेंसी की घोषणा कर दी गई. अरुण जेटली की प्रोफाइल से 1974 का वो साल गायब मिलता है. वे इसे ऐसे पेश करते हैं जैसे इन सब की शुरुआत जून 1975 से ही हुई थी और उन्हें एक निर्दोष छात्र के तौर पर सीधे जेल भेज दिया गया था.
यही भाजपा का भी सच है. इसकी पैदाइश के बीज भी जेपी आंदोलन में ही मौजूद है. जेपी के छात्र आंदोलन का मजबूत आधार एबीवीपी था और जन संघ जो उनकी राजनीतिक धुरी थी, उसका 1980 में भाजपा के रूप में नया जन्म हुआ.
एनडीए की पहली सरकार ने अपने इस ऐतिहासिक संबंध को स्वीकारा था. इस सरकार ने 2002 में संपूर्ण क्रांति एक्सप्रेस नाम से पटना से नई दिल्ली के लिए एक ट्रेन की शुरुआत की थी.
हालांकि मौजूदा सरकार अपने इस इतिहास को लेकर थोड़ा कम सहज दिखती है. पार्टी के आधिकारिक पेज पर लगे इंफोग्राफिक में भी इस पर थोड़ी-सी चर्चा भर ही नज़र आती है.
‘हमें हमेशा सतर्क रहने की जरूरत है’
2012 में नरेंद्र मोदी के लिए 1974 में गुजरात में हुए विरोध-प्रदर्शन यानी नवनिर्माण आंदोलन के बारे में अपनी वेबसाइट पर एक पूरा पेज बनवाना ज्यादा सुविधाजनक था. इस पेज पर लिखा है कि ‘एक नौजवान प्रचारक और एबीवीपी के सहयोगी के तौर पर नरेंद्र नवनिर्माण आंदोलन के साथ जुड़े और जो काम उन्हें दिया गया उसे उन्होंने निष्ठापूर्ण तरीके से निभाया.’
लेकिन जब प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें जेपी की विरासत के बारे में बोलना पड़ा तब उन्हें इतिहास की बाध्यता का एहसास हुआ. 11 अक्टूबर 2015 को जेपी की 113वीं जन्मतिथि पर नई दिल्ली के विज्ञान भवन के लेक्चर हॉल में एक छोटा-सा कार्यक्रम हुआ था.
इस मौके पर भाजपा के नए और पुराने नायक मोदी और आडवाणी दोनों ने अपने-अपने विचार रखे थे. मोदी को प्रधानमंत्री बने हुए लगभग दो साल हो गए थे और आडवाणी का मुख्य नेतृत्व से निर्वासन का दौर चल रहा था.
मोदी ने अपने भाषण में कहा, ‘इमरजेंसी और जेपी आंदोलन के दौरान एक नई राजनीतिक पीढ़ी का जन्म हुआ और इससे भारतीय लोकतंत्र मजबूत हुआ.’
आडवाणी ने अपने संबोधन में कहा, ‘यह सुनिश्चित करना हमारा सामूहिक कर्तव्य है कि लोकतंत्र और नागरिकों की बुनियादी आजादी का भारत में फिर कभी उल्लंघन नहीं किया जाएगा. हमें जीवन के हर क्षेत्र में सहिष्णुता, सर्वसम्मति और सहयोग जैसे मूल्यों को बढ़ावा देने की जरूरत है. हमें किसी के भी द्वारा इन मूल्यों को नुकसान पहुंचाने को लेकर हमेशा सतर्क रहने की जरूरत है.’
गौर करने वाली बात है कि उस वक्त दादरी में गोमांस रखने के संदेह में भीड़ द्वारा पीट-पीटकर मार दिए गये अखलाक़ की मौत को दो हफ्ते भी नहीं हुए थे.
देशभक्ति बनाम युवाशक्ति
भाजपा का दावा है कि कांग्रेस की तुलना में मोदी ने अधिक विरोध-प्रदर्शनों, उत्तेजना और जिसे जेटली ‘भटकाव’ कह रहे हैं, का सामना किया है. लेकिन सच्चाई ठीक इसके उलट है.
कल्पना कीजिए कि छात्र सड़कों पर निकल कर महीनों से भाजपा की सरकार को गिराने के लिए आंदोलन कर रहे हैं. एक केंद्रीय मंत्री की हत्या कर दी गई है और मोदी को एक जज ने संसद से अपदस्थ कर दिया है और उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है.
ये सब वो वजहें थीं जिन परिस्थितियों में इमरजेंसी लगाई गई थी. इसे सही नहीं ठहराया जा सकता लेकिन सच तो यह है कि पिछले चार सालों में कश्मीर के बाहर कोई ऐसा विचलित करने वाला विरोध-प्रदर्शन नहीं हुआ है जैसा इंदिरा को इमरजेंसी के सालों पहले से झेलना पड़ा था.
जेएनयू या फिर जंतर-मंतर पर होने वाले विरोध-प्रदर्शन सिर्फ एक संगीतमयी भीड़ से ज्यादा कुछ नहीं है. भाजपा के नेताओं के अपना वजूद बनाने का इतिहास उसी छात्र आंदोलन है, जो आज के कैंपसों की तुलना में कहीं बड़े स्तर का था.
जेपी इसे युवाशक्ति कहते थे. संघ ने इसी युवाशक्ति का इस्तेमाल कभी कांग्रेस को चुनौती देने और सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए किया था. अब वही युवाशक्ति संघ और उसकी सत्ता पर पकड़ को चुनौती दे रही है. इसीलिए मोदी को हिंदू दक्षिणपंथी ‘इंदिरा गांधी’ कहा जा रहा है.
विरोध का इतिहास
यही कारण है कि हमें सरकार के विरोध-प्रदर्शनों का इतिहास नहीं पढ़ाया जाता है. हम आधुनिक भारत के इतिहास में 1947 तक के तो बड़े-बड़े आंदोलनों के बारे में पढ़ते हैं. इसके बाद हमें युद्ध और चुनावों के इतिहास के बारे में बतलाया जाता है.
हमें मूल्यों, सेवा और मताधिकार की शिक्षा दी जाती है. लेकिन विरोध हमेशा से होते रहे हैं और वो भी अक्सर खतरनाक तरीके से फिर चाहे युद्ध हुए हो या फिर चुनाव. यह लोकतंत्र का अभिन्न हिस्सा है.
सभी आंदोलन विवेकपूर्ण और संतुलित नहीं होते. जेपी आंदोलन के भी सभी पहलू लोकतांत्रिक नहीं थे. लेकिन जैसे युद्ध का इतिहास पढ़ाते वक्त आक्रमकता और आत्मरक्षा का फर्क समझाया जाता है वैसे ही आंदोलनों के इतिहास से हमें अपने राजनीतिक जीवन में यह सीमा तय करने में मदद मिलेगी.
इतिहास के बारे में जब हम बात करते हैं तब सबसे खतरनाक प्रचलन यह कहना नहीं है कि उसने भी वही किया था जब वो सत्ता में था बल्कि यह कहना है कि किसी ने तब विरोध क्यों नहीं किया था.
पहले वाला प्रचलन हमें सत्ता में मौजूद लोगों के बारे में गुस्से से भर सकता है लेकिन यह कम से कम तथ्यात्मक रूप से सही हो सकता है लेकिन दूसरी जो प्रवृति है कि किसी ने तब विरोध क्यों नहीं किया था, वो हमें हमारे अधिकार को लेकर गुमराह करती है और आम तौर पर यह तथ्यात्मक रूप से गलत होती है. विरोध का हमारा इतिहास रहा है और यही वजह है जो अभी तक हमारा लोकतंत्र कायम है.
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