बेस्ट ऑफ 2018: इंफ्रास्ट्रक्चर निवेश से जुड़ी सरकारी क्षेत्र की कंपनी आईएल एंड एफएस अपने क़र्ज़ों की किस्त नहीं चुका पा रही है. इसके चलते न केवल कई बड़े बैंक संकट में पड़ गए हैं बल्कि प्रोविडेंट फंड और पेंशन फंड में पैसा लगाने वाले आम लोगों की मेहनत की कमाई भी दांव पर लगी है.
आईएल एंड एफएस (इंफ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनेंशियल सर्विसेज) का नाम बहुत लोगों ने नहीं सुना होगा. यह एक सरकारी क्षेत्र की कंपनी है जिसकी 40 सहायक कंपनियां हैं. इसे नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनी की श्रेणी में रखा जाता है. जो बैंकों से लोन लेती हैं. जिसमें कंपनियां निवेश करती हैं और आम जनता जिसके शेयर ख़रीदती हैं.
इस कंपनी को कई रेटिंग एजेंसियों से अति सुरक्षित दर्जा हासिल है. ‘एए प्लस’ की रेटिंग हासिल है. यह कंपनी बैंकों से लोन लेती है. लोन के लिए संपत्ति गिरवी नहीं रखती है. काग़ज़ पर गारंटी दी जाती है कि लोन चुका देंगे. चूंकि इसके पीछे भारत सरकार होती है इसलिए इसकी गारंटी पर बाज़ार को भरोसा होता है.
मगर एक हफ्ते के भीतर इसकी रेटिंग को ‘एए प्लस’ से घटाकर कूड़ा करकट कर दिया गया है. अंग्रेज़ी में इसे जंक स्टेटस कहते हैं. अब यह कंपनी जंक यानी कबाड़ हो चुकी है. जो कंपनी 90,000 करोड़ लोन डिफाल्ट करने जा रही हो वो कबाड़ नहीं होगी तो क्या होगी.
ज़ाहिर है इसमें जिनका पैसा लगा है वो भी कबाड़ हो जाएंगे. प्रोविडेंट फंड और पेंशन फंड का पैसा लगा है. यह आम लोगों की मेहनत की कमाई का पैसा है. डूब गया तो सब डूबेंगे. इसमें म्युचुअल फंड कंपनियां भी निवेश करती हैं. काग़ज़ पर लिखे वचननामे पर बैंकों ने आईएल एंड एफएस और उसकी सहायक कंपनियों को लोन दिए हैं.
अब वो काग़ज़ रद्दी का टुकड़ा भर है. इस 27 अगस्त से जब यह ग़ैर बैंकिंग वित्तीय कंपनी तय समय पर लोन नहीं चुका पाई, डेडलाइन मिस करने लगी तब शेयर मार्केट को सांप सूंघ गया. 15 सितंबर से 24 सितंबर के बीच सेंसेक्स 1785 अंक गिर गया. नॉन बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के शेयर धड़ाम-बड़ाम गिरने लगे.
स्माल इंडस्ट्री डेवलपमेंट बैंक आॅफ इंडिया (सिडबी) ने आईएल एंड एफएस और उसकी सहायक कंपनियों को करीब 1000 करोड़ का कर्ज़ दिया है. 450 करोड़ तो सिर्फ आईएल एंड एफएस को दिया है. बाकी 500 करोड़ उसकी दूसरी सहायक कंपनियो को लोन दिया है.
सिडबी ने इन्सॉल्वेंसी कोर्ट में अर्ज़ी लगाई है ताकि इसकी संपत्तियां बेचकर उसका लोन जल्दी चुकता हो. एक डूबती कंपनी के पास कोई अपना पैसा नहीं छोड़ सकता वर्ना सिडबी भी डूबेगी. दूसरी तरफ आईएल एंड एफएस और उसकी 40 सहायक कंपनियों ने पंचाट की शरण ली है.
इस अर्ज़ी के साथ उसे अपने कर्जे के हिसाब-किताब को फिर से संयोजित करने का मौका दिया जाए. इसका मतलब यह हुआ कि जब तक इसका फैसला नहीं आएगा, यह कंपनी अपना लोन नहीं चुकाएगी. तब तक सबकी सांसें अटकी रहेंगी.
अब सरकार ने इस स्थिति से बचाने के लिए भारतीय जीवन बीमा को बुलाया है. आईएल एंड एफएस में सरकार की हिस्सेदारी 40.25 प्रतिशत है. भारतीय जीवन बीमा की हिस्सेदारी 25.34 प्रतिशत है. बाकी भारतीय स्टेट बैंक, सेंट्रल बैंक और यूटीआई की भी हिस्सेदारी है.
हाल के दिनों में जब आईडीबीआई पर नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) का बोझ बढ़ा तो भारतीय जीवन बीमा को बुलाया गया. भारतीय जीवन बीमा निगम के भरोसे कितनी डूबते जहाज़ों को बचाएंगे, किसी दिन अब भारतीय जीवन बीमा के डगमगाने की ख़बर न आ जाए. भारतीय जीवन बीमा निगम के चेयरमैन ने कहा है कि आईएल एंड एफएस को नहीं डूबने देंगे.
आईएल एंड एफएस ग़ैर बैंकिंग वित्तीय सेक्टर की सबसे बड़ी कंपनी है. इस सेक्टर पर बैंकों का लोन 496,400 करोड़ है. अगर यह सेक्टर डूबा तो बैंकों के इतने पैसे धड़ाम से डूब जाएंगे. मार्च 2017 तक लोन 3,91,000 करोड़ था. जब एक साल में लोन 27 प्रतिशत बढ़ा तो भारतीय रिज़र्व बैंक ने रोक लगाई.
सवाल है कि भारतीय रिज़र्व बैंक इतने दिनों से क्या कर रहा था. जबकि भारतीय रिज़र्व बैंक ही इन वित्तीय कंपनियों की निगरानी करता है. म्यूचुअल फंड का 2 लाख 65 हज़ार करोड़ लगा है. हमारे आपके पेंशन और प्रोविडेंड फंड का पैसा भी इसमें लगा है. इतना भारी भरकम कर्ज़दार डूबेगा तो क़र्ज़ देने वाले, निवेश करने वाले सब के सब डूबेंगे.
आईएल एंड एफएस का ज़्यादा पैसा सरकार के इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में लगा है. इसके डूबने से तमाम प्रोजेक्ट अधर में लटक जाएंगे. हुआ यह है कि टोल टैक्स की वसूली का अनुमान ज़्यादा लगाया गया मगर उनकी वसूली उतनी नहीं हो पा रही है. इससे प्रोजेक्ट में पैसा लगाने वाली कंपनियां अपना लोन वापस नहीं कर पा रही हैं. इन्हें लोन देने वाली आईएल एंड एफएस भी अपना लोन वापस नहीं कर पा रही है. हमने इस लेख के लिए बिजनेस स्टैंडर्ड और इंडियन एक्सप्रेस की मदद ली है.
मुझे नहीं पता कि आपके हिंदी अख़बारों में इस कंपनी के बारे में विस्तार से रिपोर्टिंग है या नहीं. पहले पन्ने पर इसे जगह मिली है या नहीं. दुनिया के किसी भी देश में सरकार की कोई कंपनी संकट में आ जाए और उसमें जनता का पैसा लगा हो तो हंगामा मच जाता है. भारत में ऐसी ख़बरों को दबा कर रखा जा रहा है.
तभी बार-बार कह रहा हूं कि हिंदी के अख़बार हिंदी के पाठकों की हत्या कर रहे हैं. सूचना देने के नाम पर इस तरह से सूचना देते हैं कि काम भर हो जाए. बस सरकार नाराज़ न हो जाए लेकिन आम मेहनतकशन लोगों के प्रोविडेंट फंड और पेंशन फंड का पैसा डूबने वाला हो, उसे लेकर चिंता हो तो क्या ऐसी ख़बरों को पहले पन्ने पर मोटे-मोटे अक्षरों में नहीं छापना चाहिए था?
यह लेख मूल रूप से रवीश कुमार के फेसबुक पेज पर प्रकाशित हुआ है.