केवल एक तानाशाह सरकार विपक्षी नेताओं के किसी राज्य में जाने पर रोक लगाकर विदेशी सांसदों को वहां ले जाती है.
यूरोपीय संसद के 20 धुर दक्षिणपंथी सदस्यों को कश्मीर की ‘प्राइवेट यात्रा’ के लिए तैयार करने का राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल का गैरजिम्मेदाराना फैसला अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारने के समान है. यह न सिर्फ भारत और भारतीय लोकतंत्र की खराब तस्वीर पेश करता है, बल्कि आखिरकार नए दोस्त बनाने की जगह ज्यादा दुश्मन पैदा करनेवाला है.
एक प्रोपगेंडा के तौर पर इस हफ्ते करवाया गया यह दौरा आला दर्जे की मूर्खता है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि अगर सैर-सपाटे की पूरी कसरत को सफल भी माना जाए और यूरोपीय संसद के सदस्य अगर कश्मीर पर मोदी सरकार की नीतियों की तारीफ भी कर दें- जैसा कि श्रीनगर में एक बनावटी ‘प्रेस कॉन्फ्रेंस (जिसमें कश्मीरी पत्रकारों को आमंत्रित नहीं किया गया था) में यूरोपीय संसद के कुछ सदस्यों द्वारा शायद किया भी किया भी गया- तो भी इस पूरी कवायद से निकलने वाला संदेश अतुल्य भारत के खुशनुमा अभियान से मेल नहीं खाता है.
ऐसा इसलिए है क्योंकि इनमें से ज्यादातर सदस्यों को अपने समाजों में बाहरी लोगों के प्रति पूर्वाग्रह से भरे राजनीतिज्ञों के तौर पर देखा जाता है, जिनमें मानवाधिकारों के प्रति रत्तीभर भी सम्मान नहीं है. इस दौरे में आए राजनेता ऐसे राजनीतिक दलों की नुमाइंदगी करते हैं, जिन्हें नस्लवादी या बाहरी लोगों के प्रति विद्वेषपूर्ण पूर्वाग्रह रखनेवाले के तौर पर देखा जाता है.
इनमें और भाजपा-आरएसएस में मुस्लिमों के प्रति पूर्वाग्रह का साझा सूत्र हो सकता है, लेकिन मेरा यकीन कीजिए अगर आप हिंदुत्व के समर्थक भी हैं, तो भी आप इन लोगों के साथ खड़ा दिखना पसंद नहीं करेंगे.
अल्पसंख्यकों के खिलाफ यूरोपियों की घृणा भयवाह रूप अख्तियार कर सकती है, और मैं नाजियों की बात नहीं कर रहा हूं- जिससे यूरोपीय मीडिया भी अपने महाद्वीप में उभर रहे कुछ राजनीतिक समूहों की तुलना करता है. यहां एंडर्स ब्रीविक, जिसने 2011 में नॉर्वे की राजधानी ओस्लो में दर्जनों लोगों की हत्या की थी, द्वारा जारी किए गए ‘घोषणा पत्र’ को याद किया जा सकता है. यह भी याद किया जा सकता है कि उसने किस तरह से ‘भारतीय गृह युद्ध में राष्ट्रवादियों और सभी मुस्लिमों के भारत से निष्कासन’ का समर्थन किया था.
लेकिन यहां मैं उस कहानी से आगे जा रहा हूं, क्योंकि हमें बिल्कुल शुरू से ही इस बात में स्पष्ट होना चाहिए कि यह प्रोपगेंडा दौरा कितना मूर्खतापूर्ण है.
मैं कुछ लोगों की इस गैरजरूरी शिकायत की बात नहीं कर रहा हूं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डोभाल कश्मीर का ‘अंतरराष्ट्रीयकरण कर रहे हैं. इस बात पर जोर देने में कि कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है और विदेशी क़ानून निर्माताओं, पत्रकारों और शोधार्थियों को कश्मीर जाने की इजाजत देने यहां तक कि इसके लिए उन्हें प्रोत्साहित करने में कोई अंतर्विरोध नहीं है.
भारत एक लोकतंत्र है और लोकतंत्रों के पास किसी राज्य- या केंद्रशासित प्रदेश को- दुनिया की निगाहों से छिपाने का कोई कारण नहीं होता है. इसलिए मेरा विचार है कि यूरोपीय संसद के सदस्यों का कश्मीर जाना बहुत अच्छा है.
मैं सिर्फ यह चाहता हूं कि मोदी सरकार विदेशी राजनयिकों और विदेशी पत्रकारों को भी वहां जाने और वहां जाकर अपनी मर्जी से किसी से भी मिलने की इजाजत देगी, जो साफतौर पर यूरोपीय संसद सदस्यों के मामले में नहीं हुआ.
विपक्ष को न, यूरोपीय सांसदों को हां
ज्यादा बड़ा मसला यह है कि यूरोपीय संसद के सदस्यों को कश्मीर ले जाने की यह इच्छा उस समय आई जब यशवंत सिन्हा जैसे विपक्षी नेताओं और संदीप पांडेय जैसे कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं को श्रीनगर एयरपोर्ट पर ही हिरासत में ले लिया गया और उन्हें अगली फ्लाइट से वापस दिल्ली भेज दिया गया.
कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद – जो खुद जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके हैं- को घाटी जाने की इजाजत लेने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करनी पड़ी. सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी को भी ऐसा करना पड़ा.
और भी ज्यादा आश्चर्य की बात यह है कि मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अगुवाई वाली पीठ ने इन मूर्खतापूर्ण प्रतिबंधों के खिलाफ फैसला देने की जगह अपनी तरफ से भी कुछ और प्रतिबंध लगा दिए.
जजों ने येचुरी को कहा कि उन्हें सिर्फ अपनी पार्टी के बीमार कॉमरेड यूसुफ तारिगामी से मिलने के लिए श्रीनगर जाने की इजाजत दी जा रही है और अगर वे इसके अलावा कुछ और करते हैं (शायद उनका मतलब सामान्य कश्मीरियों से मिलने या रिपोर्टरों से बातचीत करने से हो) तो उन्हें कोर्ट के आदेशों के उल्लंघन का दोषी माना जाएगा.
‘उचित तरीके से विचार करने के बाद हम याचिकाकर्ता को सिर्फ उपरोक्त मकसद से, उसके अलावा किसी भी अन्य मकसद से नहीं, जम्मू-कश्मीर की यात्रा करने की इजाजत देते हैं. हम यह स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि अगर याचिकाकर्ता अपने मित्र और अपने पार्टी के सहयोगी से मिलने और उनकी सलामती और उनके स्वास्थ्य की पूछताछ करने के अलावा किसी अन्य चीज में शामिल पाया गया, तो इसे इस अदालत के आदेशों का उल्लंघन माना जाएगा.’
यानी भारतीय सांसद और विपक्षी नेता सुप्रीम कोर्ट की इजाजत के बगैर श्रीनगर की यात्रा नहीं कर सकते हैं और इस पर भी उन्हें यह कहा जाता है कि वे स्थानीय लोगों से संवाद नहीं कर सकते हैं. दूसरी तरफ सरकार को यूरोपीय सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल को घाटी जाने की इजाजत देने में कोई समस्या नहीं है!
यहां कुछ है, जो हजम नहीं होता है. सवाल है कि आखिर चल क्या रहा है?
साफतौर पर प्रधानमंत्री कार्यालय- खासतौर पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जो खुद को सबसे बुद्धिमान व्यक्ति के तौर पर पेश करते हैं- ने यह सोचा कि इस नौका विहार के लिए विशेष तौर पर चुने गए सम्मानित नजर आने वाले रहे विदेशियों के सामने ‘सामान्य हालात’ की तस्वीर पेश करके वे अपनी कश्मीर नीति को लेकर अंतरराष्ट्रीय प्रेस की नकारात्मक रिपोर्टिंग का जवाब दे सकते हैं.
इस सोच के पीछे यह समझ काम कर रही थी कि ये सदस्य इस तर्क को स्वीकार करने के लिए तैयार बैठे होंगे कि कश्मीर की समस्या ‘इस्लामी आतंकवाद’ है, न कि सरकार द्वारा वहां की जनता को मौलिक अधिकारों से महरूम रखना.
इस सोच को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने भारतीय मूल की मादी शर्मा नाम की महिला उद्यमी द्वारा चलाए जानेवाले ब्रसेल्स स्थित थिंक टैंक वेस्ट- विमेंस इकोनॉमिक एंड सोशल थिंक टैंक- से संपर्क किया. मेरा अंदाजा है कि डोभाल एंड कंपनी ने शर्मा के साथ पहले भी काम किया है.
7 अक्टूबर को उन्होंने यूरोपीय संसद के चुने हुए सांसदों को दिल्ली स्थित एक एनजीओ के पैसे पर दिल्ली और कश्मीर की यात्रा करने का न्योता दिया. यूके लिबरल डेमोक्रेट्स के एक संसद सदस्य क्रिस डेविस को लिखी चिट्ठी के कुछ अंशों को यहां दिया जा रहा हैः
‘मैं भारत के प्रधानमंत्री महामहिम नरेंद्र मोदी के साथ एक सम्मानजनक वीआईपी मीटिंग का आयोजन कर रही हूं और इसके लिए आपको आमंत्रित करना मेरा सौभाग्य है. जैसा कि आपको यह पता होगा, भारत में हाल में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भारी जीत मिली है और वे भारत और वहां के लोगों के विकास को बनाए रखने की योजना बना रहे हैं.
इस संदर्भ में वे यूरोपीय संघ के प्रभावशाली नीति निर्माताओं से मिलने के ख्वाहिशमंद हैं. इसलिए मैं आपसे यह जानना चाहती हूं कि क्या दिल्ली, भारत जाने और प्रधानमंत्री से मिलने में आपकी दिलचस्पी है? प्रधानमंत्री के साथ मुलाकात 28 अक्टूबर को तय की गई है. 29 को कश्मीर का दौरा होगा और 30 तारीख को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस होगी.
यह दौरा पूरे यूरोप के विभिन्न दलों के सदस्यों के एक छोटे से समूह का एक तीन दिवसीय दौरा होगा (फ्लाइट और ठहरने का इंतजाम इसमें शामिल होगा और इसका खर्चा इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर नॉन एलाइन्ड स्टडीज—आईआईएनएस) द्वारा उठाया जाएगा. आपकी भागीदारी हमारे वीआईपी मेहमान के तौर पर होगी, न कि यूरोपीय संसद के के प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के आधिकारिक रूप में.’
डेविस को दाल में कुछ काला नजर आया. उन्होंने द वायर की देवीरूपा मित्रा को बताया कि उन्होंने इससे पहले कभी भी आयोजनकर्ता के बारे में नहीं सुना था. उन्होंने अगले दिन भेजे गए अपने जवाब को हमसे साझा किया है.
‘आमंत्रण के लिए शुक्रिया. मैं इस शर्त के साथ इसे खुशी-खुशी स्वीकार करने के लिए तैयार हूं कि कश्मीर में मेरी यात्रा के दौरान मेरे पास अपनी मर्जी से कहीं भी जाने, किसी से भी बात करने की छूट रहेगी और मेरे साथ सेना, पुलिस या सुरक्षा बलों के लोग नहीं होंगे. मगर मेरे साथ पत्रकार और टेलीविजन क्रू होंगे.
कृपया मुझे लिखित तौर पर इस बात की पक्की गारंटी दें. उसके बाद हम इस दौरे के समय पर बात कर सकते हैं.’
अब पलटने की बारी मादी शर्मा की थी. वे पहले ‘इस यात्रा को लेकर आगे बात करने के लिए’ राजी हो गईं, लेकिन दो दिनों बाद उन्होंने जवाब दिया:
‘मैं माफी मांगती हूं कि मैं अब यूरोपीय संसद के और सदस्यों को शामिल नहीं कर सकती हूं. जब मैं भारत से लौटूंगी, आपके दफ्तर आऊंगी, इस उम्मीद में कि हम भविष्य के दौरे को तय कर सकते हैं.
साफ है कि इस दौरे के पीछे के लोग यह कतई नहीं चाहते थे कि इन वीआईपी मेहमानों में से कोई पहले से तय किए गए कश्मीरियों के अलावा किसी अन्य के साथ सहज तौर पर मुलाकात करे. इसलिए डेविस को दौरे में शामिल नहीं किया गया.
आखिरकार शर्मा यूरोपीय संसद के 27 सदस्यों के एक दल को दिल्ली लेकर आईं. उनके लिए डोभाल द्वारा लंच और मेरे हिसाब से विदेश मंत्री एस. जयशंकर द्वारा डिनर का आयोजन किया गया. मंगलवार को उन्हें श्रीनगर- जो सही मायनों में श्रीनगर का कोई बना-संवरा हिस्सा था, जिसे श्रीनगर के तौर पर पेश किया गया- ले जाया गया.
इस पूरे दौरे में मादी शर्मा कैसे शामिल हुईं और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ नॉन एलाइंड स्टडीज (जिसकी वेबसाइट में 1998 के बाद किसी आयोजन का जिक्र नहीं है) के साथ उनके संबंध को लेकर मादी शर्मा से पूछे गए सवालों का कोई जवाब नहीं मिला है. आईआईएनएस ने भी मीडिया के सवालों का कोई जवाब नहीं दिया है.
लोकतांत्रिक सरकारों में बनावटी दौरे नहीं होते
मोदी और डोभाल को इस बात का एहसास नहीं है कि लोकतंत्रों में बनावटी दौरे नहीं होते हैं. वे लोगों को उनकी इच्छा के अनुसार यात्रा करने की, अपने हिसाब से चीजों को देखने सुनने की इजाजत देते हैं- और यह बात अपने लोगों और विदेशियों दोनों पर ही लागू होती है.
दुनिया सचमुच यह कहने लगे कि कश्मीर में हालात सामान्य हैं, इसका सबसे अच्छा तरीका यह है कि कश्मीर में हालात को सामान्य होने दिया जाए- मिसाल के तौर पर इंटरनेट सेवाओं को बहाल किया जाए, लोगों को यात्रा करने और संवाद करने दिया जाए, सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा किया जाए; राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को उस तरह से काम करने दिया जाए जैसे कि उन्हें किसी वास्तविक लोकतंत्र में करना चाहिए.
लेकिन नहीं, सरकार ऐसा कुछ भी नहीं करेगी. वे राजनीतिक कैदियां को तभी रिहा करेगी, जब वे बॉन्ड पर दस्तखत करके यह वादा करें कि वे एक साल तक कश्मीर के मौजूदा हालात के बारे में कुछ नहीं बोलेंगे. क्या सामान्य होते हालात ऐसे होते हैं?
मैं यूरोपीय संसद के ब्रिटिश सदस्य क्रिस डेविस की बात से खत्म करूंगा. उन्होंने द वायर से कहा, ‘मैंने सुना है कि भारतीय सांसदों को कश्मीर जाने की इजाजत नहीं दी जा रही है. अगर ऐसा है तो यह लोकतंत्र का पर बेशर्म हमला है और मैं इससे गहरे तक निराश हूं. भारत एक महान देश है और हम इस सरकार से इससे बेहतर की उम्मीद करते हैं.’
सामान्य कश्मीरी पहले दिन से यह कह रहे हैं. लेकिन अब जबकि एक यूरोपीय सांसद ने भी ऐसा कहा है- और हमें पता है कि वे कितने महत्वपूर्ण हैं- क्या मोदी जी उनकी बातों पर गौर करेंगे?
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)