क्या सरदार पटेल का सपना वही था, जो भाजपा बता रही है?

'गांधी के रामराज्य के बारे में तुम क्या जानते हो? गांधी के राम के बारे में ही तुम क्या जानते हो? वैसे तुलसी के राम के बारे में ही तुम क्या जानते हो? सावरकर हो या गोलवलकर, उनके हिंदू राष्ट्र का हमारे रामराज्य से क्या लेना-देना?'

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स्टैच्यू ऑफ यूनिटी (फोटो: रॉयटर्स)

‘गांधी के रामराज्य के बारे में तुम क्या जानते हो? गांधी के राम के बारे में ही तुम क्या जानते हो? वैसे तुलसी के राम के बारे में ही तुम क्या जानते हो? सावरकर हो या गोलवलकर, उनके हिंदू राष्ट्र का हमारे रामराज्य से क्या लेना-देना?’

स्टैच्यू ऑफ यूनिटी (फोटो: रॉयटर्स)
स्टैच्यू ऑफ यूनिटी (फोटो: रॉयटर्स)

सपने में कल सरदार पटेल चले आए. सरदार ही थे. वही चौड़ा माथा, वही सीधी-सतर काया. वही धोती-कुर्ते और कंधे पर चादर की धज. पर कुछ बुझे-बुझे से लगे. न चाल में वह लपक थी और न आवाज में वह कडक़. बड़ी-बड़ी आंखों में वह चमक भी नहीं.

मेरे अंदर का पत्रकार जाग गया. पूछ बैठा, ‘एक सौ चवालीसवें जन्मदिन पर कृतज्ञ राष्ट्र आपको याद कर रहा है. गांधी के डेढ़ सौवें से बढ़कर आपके एक सौ चवालीसवें जन्मदिन को याद कर रहा है. दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा बनाकर आपको याद कर रहा है. राष्ट्रीय एकता दिवस मनाकर, राष्ट्रीय एकता की कसमें खाकर और राष्ट्रीय एकता के लिए दौड़ें लगाकर, आपका उत्तराधिकारी बनकर दिखा रहा है. पूरी सरकार प्राण-प्रण से आपको राष्ट्र के इतिहास में अपना उपयुक्त स्थान दिलाने में भिड़ी हुई है. फिर भी आप बहुत खुश दिखाई नहीं दे रहे हैं, ऐसा क्यों?’

सरदार ने पहले टालने की कोशिश की. ‘नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं है.’ खंडन का असर होता नजर नहीं आया तो मजाक करके पीछा छुड़ाने की कोशिश करने लगे. बोले, ‘मैं सोच रहा था कि मेरा कद इतना ऊंचा कर रहे हैं या इस बूढ़े से पिंड छुटा रहे हैं. इतने ऊपर से मुझे न कुछ दिखाई देगा, न सुनाई देगा और मैं अगर कुछ कहूं भी तो वह भी किसी को सुनाई नहीं देगा. यानी कद तो खूब बढ़ा दिया, पर बनाया वही बापू का बंदर- आंख-कान-मुंह सब बंद.’

खुद अपने मजाक पर उन्होंने हंसकर भी दिखाया. पर मैं अड़ गया, ‘बात को हंसी में नहीं उड़ाएं. आपके लिए सरकार कितना कुछ कर रही है? आपका कद बढ़ाने के लिए नेहरू का कद छोटा करने तक से परहेज नहीं कर रही है. सिर्फ जन्मदिन पर नहीं, बिना नागा हर रोज कम से कम चार बार इस पर अफसोस जताती है कि क्यों आप देश के पहले प्रधानमंत्री नहीं हुए. इसे लेकर तो उसे गांधी से भी शिकायत है, जो गांधी-नेहरू डॉयनेस्टी कायम करने के लालच में पड़ गए और खुद गुजराती होते हुए भी, एक गुजराती भाई के हिस्से की प्रधानमंत्री की कुर्सी नेहरू को दे दी.’

मैंने आगे जोड़ा, ‘अब तो राष्ट्र आप की ऐसी पूजा करता है कि आडवाणी जी से लेकर शाह जी तक, सरदार-द्वितीय के उम्मीदवारों की लाइन लगी हुई है, फिर भी आप खुश नहीं हैं. कहीं यह नाखुशी स्वतंत्रता के बाद के इतिहास के पुनर्लेखन में देरी की वजह से तो नहीं है, जिसके चलते संस्कारी स्कूलों तक में बच्चों को अब तक यही पढ़ाया जा रहा है कि जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री थे.’

मेरी बाकायदा उकसाने की कोशिश भी बेकार गयी और सरदार ने ऐसे मरे से सुर में मुझे रोका कि मुझे उनके लौह पुरुष होने पर शक हो गया. वह शिकायत कर रहे थे, ‘तुम लोगों को कैसे लग गया कि मुझे अपने लिए कुछ चाहिए? कि मैं अपनी मूरत सबसे ऊंची होने या धूमधाम से जन्मदिन मनाने से खुश हो जाऊंगा, मैंने अपने जीते-जी तो कभी अपना जन्मदिन मनाया नहीं था. और यह नेहरू के पीएम बनने पर मेरा मलाल?’

वे बोलते जा रहे थे, ‘मुझे तो शक है कि तुम लोग मेरे बारे में कुछ जानते भी हो. जब मुझे ही नहीं जानते हो तो, गांधी और नेहरू के साथ मेरे रिश्तों को कैसे समझ सकोगे? गांधी मुझे सरदार कहते थे, पर असल में तो वही हम सबके सरदार थे और मैं, नेहरू तथा बाकी सब उनके सिपाही. अपने असली सरदार के आदेश का पालन करने से ज्यादा इस सरदार ने न कभी मांगा और न कभी चाहा या सोचा. वैसे भी गृहमंत्री बनकर क्या मेरी जान को कम आफतें थीं, जो मैं प्रधानमंत्री बनने का सपना देखता!’

यहां तक पहुंचते-पहुंचते उनकी आवाज खिन्नता से भर्राने लगी. बड़ी-बड़ी वेदना भरी आंखों की कोरों में चिंता की गहरी लकीरें उतर आयीं. पर मेरे सामने सपना शब्द कौंध गया.

मैं फिर शुरू हुआ, ‘मान लिया कि आपका प्रधानमंत्री बनने का कोई सपना नहीं था, पर दूसरे सपने तो थे. कम से कम इस पर तो आप खुश हो ही सकते हैं कि सत्तर साल बाद ही सही, ऐसी सरकार आयी है जो आपके सपनों की सुध ले रही है. आपके सपनों को पूरा करने की, जी हां, आपके अधूरे सपनों को पूरा करने की आज वालों जैसी कोशिश तो खुद आपने भी नहीं की होगी. न जाने क्यों फिर भी आप खुश नहीं हैं!’

सरदार ने अधीर होकर रोका, ‘कौन से सपने? आज मेरे कौन-से अधूरे सपने पूरे करने की कोशिश हो रही है?’

मैंने भी जवाबी सवाल किया, ‘सोमनाथ के बाद क्या आपने अयोध्या में राम मंदिर का सपना नहीं देखा था? क्या नेहरू के सेकुलरिज्म की जगह आपने सावरकर-गोलवलकर हिंदू राष्ट्र का न सही, गांधी के रामराज्य का सपना नहीं देखा था? आपको तो खुश होना चाहिए कि आप सिर्फ सपना देख पाए, अब की सरकार उसे पूरा कर रही है.’

सरदार की आवाज में अचानक पुरानी वाली कड़क आ गयी. उन्होंने करीब-करीब डांटने के अंदाज में कहा, ‘गांधी के रामराज्य के बारे में तुम क्या जानते हो? गांधी के राम के बारे में ही तुम क्या जानते हो? वैसे तुलसी के राम के बारे में ही तुम क्या जानते हो? सावरकर हो, गोलवलकर हो या कोई और कर हो, उनके हिंदू राष्ट्र का हमारे रामराज्य से क्या लेना-देना है?’

वे अब अपनी रौ में बोल रहे थे, ‘मैंने तभी कहा था कि हिंदू राष्ट्र की मांग पागलपन है. बाद में उसी पागलपन ने हमारे बापू तक की जान ले ली. हिंदू राष्ट्र की आफत को रोकने के लिए मैंने आरएसएस पर पाबंदी लगायी, बापू के हत्यारों से लेकर गड़बड़ियां फैलाने वालों तक के खिलाफ सख्ती से कार्रवाई की. मेरा रामराज्य हमेशा बापू वाला… बल्कि नेहरू के सेकुलरिज्म वाला रामराज्य था, हिंदू राष्ट्र वालों का रामराज्य कतई नहीं. और ये सोमनाथ का अयोध्या में मंदिर की मुहिम के साथ कोई कैसे मुकाबला कर सकता है? सोमनाथ में ढहाए गए मंदिर को बनाने का सवाल था, न कि चोरी-छिपे मस्जिद में मूर्तियां रखने के बाद मस्जिद गिराने का. अयोध्या के मामले में देश का यह गृहमंत्री पूरी तरह से प्रधानमंत्री नेहरू के साथ था कि मस्जिद पर अवैध कब्जा हटाया जाए.’

सरदार की डांट से मेरा आत्मविश्वास डगमगा गया. फिर भी उनके सपने पूरे होने के अपने दावे का बचाव करते हुए मैंने कहने की कोशिश की, ‘हिंदू राष्ट्र का सपना आप का न सही पर… ‘

सरदार ने बीच में सख्ती से टोकते हुए कहा, ‘पर क्या? बात सिर्फ यह नहीं कि हिंदू राष्ट्र का सपना मेरा कभी नहीं था, बात यह है कि यह तो मेरे सपनों के, बापू, नेहरू और हम सबके सपनों के खिलाफ था और हमेशा रहेगा.’

मैंने कहा, ‘हिंदू राष्ट्र को छोड़िए, राष्ट्र के एकीकरण के अपने सपने से तो आप भी इनकार नहीं कर सकते हैं. पांच सौ से ज्यादा रियासतों को भारत का हिस्सा बनाने के लिए राष्ट्र हमेशा आप का ऋणी रहेगा. सरकार भी आज आपको सबसे बढ़कर इस राष्ट्रीय एकीकरण के लिए ही याद करती है. और आपके इस राष्ट्रीय एकीकरण में जो एक जरा-सी कसर रह गयी थी, कश्मीर में रस्सी में जो जरा-सी ढील रह गयी थी, उसे सत्तर साल बाद पूरा किया जा रहा है. अनुच्छेद 370 की जो दीवार खड़ी रह गयी थी, उसे आपके जन्मदिन पर ढहा दिया गया है. कश्मीर को पूरी तरह से भारत में मिलाने का आपका सपना पूरा किया गया है. कम से कम उस पर तो आपको खुश होना चाहिए.’

पर खुश होने की जगह सरदार गुस्से से उठकर खड़े हो गए. विक्षोभ से कांपते स्वर में कहने लगे, ‘अनुच्छेद 370 मैंने बनाया था भारत के साथ कश्मीर को जोड़ने के लिए. उसे तोड़कर कहते हो कि भारत को जोड़ रहे हो! मुझसे मांग कर रहे हो कि मैं खुश होऊं क्योंकि तुम मेरा सपना पूरा कर रहे हो! मैंने कभी, किसी से कहा था कि इसे खत्म करना मेरा सपना है? हां! भारत को जोड़ना मेरा सपना था, पर तुम्हें पता भी है कि जोड़ना क्या होता है?’

वे कहते जा रहे थे, ‘जोड़ने के लिए दिल जीतने पड़ते हैं, जिसे हम बापू के सैनिक हमेशा अपना राष्ट्र धर्म मानते थे. जितना डंडे के जोर से कब्जा करने की कोशिश करोगे, उतना ही देश को तोड़ोगे. मेरा सपना नहीं, दुस्वप्न ही है, जिसे तुम पूरा कर रहे हो. यह दुस्वप्न है, जिस देश को हमने इतनी मेहनत और मोहब्बत से एक किया था, उसकी एकता के कमजोर होने का, टूटने का. तुम इसे मेरा सपना कहते हो!’

गुस्साए सरदार ने झपटकर बापू की लाठी उठा ली और लगे घुमाने. सचमुच के लौह पुरुष से सामना था, मैं बचकर भागा. सिर जोर से मेज से टकराया तो इहलोक की ओर लौटा. पीछे टीवी पर कोई चीख रहा था- ‘सरदार को भारत रत्न के लिए और कब तक इंतजार करना पड़ेगा! अब भी नहीं तो कब!’

(राजेंद्र शर्मा लोकलहर साप्ताहिक के संपादक हैं.)