शनिवार को शीर्ष अदालत ने उन लोगों के पक्ष में फ़ैसला दिया, जो सीधे तौर पर बाबरी मस्जिद गिराने के मुख्य आरोपियों से जुड़े हुए हैं. और यह देश के लिए ठीक नहीं है.
नई दिल्ली: अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जमीन के मालिकाना हक का फैसला हिंदू पक्षकार- सही मायनों में विश्व हिंदू परिषद- के पक्ष में सुनाया है.
लेकिन यह साफ है कि देश के लिए यह 2.77 एकड़ की जमीन- जिस पर 470 सालों तक एक मस्जिद खड़ी रही और जिसे राजनीतिक तोड़फोड़ की एक विध्वंसक कार्रवाई में जमींदोज कर दिया गया- के मालिकाना हक से कहीं ज्यादा अहम सवाल है.
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के कुछ आस्था-जनित तर्कों को खारिज कर दिया है और यह माना है कि जिस तरह से मस्जिद के भीतर मूर्ति रखी गई, वह गैरकानूनी था और 1992 में मस्जिद का विध्वंस ‘पूरी तरह से कानून के शासन का उल्लंघन था.’ फिर भी इस विध्वंस के लिए जिम्मेदार ताकतों को जमीन का कानूनी हक दे दिया गया है.
इस स्थल का प्रबंधन एक न्यास द्वारा किया जाएगा, जिसकी स्थापना सरकार करेगी. और सरकार और सत्ताधारी दल के भीतर ऐसे लोग हैं, जिन पर वास्तव में मस्जिद को तोड़ने का षड्यंत्र रचने की चार्जशीट दायर है.
एक चौथाई सदी से भी ज्यादा समय से ‘अयोध्या’ बदले की राजनीति का प्रतीक रहा है- जिसमें राम के चरित्र के इर्द-गिर्द गढ़े गए मिथक के साथ भीड़ की हिंसा, बहुसंख्यकवाद और कानून के शासन के प्रति असाधारण अवमानना शामिल था.
इस राजनीति का मकसद सभी नागरिकों की बराबरी के सिद्धांत पर टिके हुए गणतंत्र को नष्ट करना और उसे एक ऐसी व्यवस्था से बदलना रहा है, जिसमें भारत के धार्मिक अल्पसंख्यक और उसके बाद जनसंख्या के दूसरे वंचित तबकों को सतत असुरक्षा के माहौल में रहने के लिए मजबूर किया जाए.
अगर भारत के लोकतांत्रिक संस्थान मजबूत होते, तो 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद का विध्वंस इस राजनीति के पहले चरण के अंत का सूचक मात्र नहीं रहता, बल्कि इस राजनीति पर हमेशा के लिए पूर्ण विराम लगा देता.
आज वह राजनीति एक नई मुकाम पर पहुंच गई है और जिस तरह से राष्ट्रीय मीडिया के एक हिस्से और अब सुप्रीम कोर्ट ने इसे उभारा है, उसे देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह इसका अंत नहीं है.
कोर्ट की मुहर लग जाने के बाद संघ परिवार भीड़ के न्याय के दाग को पोंछने की भरसक कोशिश करेगा. यह दाग उसके आंदोलन की ताकत होने के साथ-साथ उसकी कमजोरी भी है.
अगस्त में भाजपा नेताओं ने छाती ठोंककर कहा था कि उन्होंने अनुच्छेद 370 का इस्तेमाल अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के लिए किया है. अब उन्हें कानून का इस्तेमाल न्याय की हत्या करने के लिए करने की उम्मीद है. हम यह दिखावा कर सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट सिर्फ दीवानी विवाद पर न्यायिक फैसला दे रहा था.
लेकिन हकीकत में इस मुकदमे, जिसे बेंच के एक जज ने ‘दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण मुकदमों में से एक’ कहा था, की प्रकृति किसी भी तरह से ‘दीवानी’ नहीं थी. इस विवाद को उस राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता है, जिसके सहारे यह खड़ा हुआ है.
बाबरी मस्जिद मामले में मालिकाना हक का मुकदमा किसी न किसी रूप में 1949 से ही चल रहा है, मुख्य तौर पर फैजाबाद, जहां अयोध्या स्थित है, की स्थानीय अदालतों में.
1980 के दशक में इसने लाल कृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, राजीव गांधी और अब बिसरा दिए गए वीर बहादुर सिंह तथा अरुण नेहरू जैसे नेताओं की संकीर्ण राजनीति के कारण राष्ट्रीय महत्व अख्तियार कर लिया.
भाजपा नेताओं ने 6 दिसंबर, 1992 को मस्जिद का विध्वंस करने की साजिश रची और एक कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने उन्हें अपराध करके बच जाने दिया. यही उस समय के सुप्रीम कोर्ट के जजों ने किया.
27 साल बाद विध्वंस का मुकदमा आज भी चल रहा है. जबकि सभी सबूत रिकॉर्ड किए जा चुके हैं और जिरह पूरी हो चुकी है, मगर इसका नतीजा अनिश्चित है, क्योंकि यह सबको पता है कि मुकदमा चलाने वाली एजेंसी (सीबीआई) ने जानबूझकर अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया है.
भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश के तौर पर नामित होने के ठीक बाद इंडिया टुडे को दिए गए इंटरव्यू में जस्टिस एसए बोबडे ने सही याद दिलाया कि 1949 में अयोध्या मामले के पहली बार सामने आने के बाद से केंद्र में हर राजनीतिक धारा की सरकार रही है.
लेकिन यह तथ्य कि इस मुकदमे को उस समय फास्ट ट्रैक करके पूरा किया गया जबकि केंद्र में एक ऐसी पार्टी की सरकार है, जो खुले तौर पर अयोध्या पर अपनी पक्षधरता का ऐलान करती है, गणतंत्र के भविष्य को लेकर चिंता में डालने का पर्याप्त कारण होना चाहिए.
हमारे पास पहले से ही एक नागरिकता कानून का मसौदा है, जो खुले तौर पर मुस्लिम शरणार्थियों को बाहर रखता है. एक कानून पारित किया जा चुका है, जो मुस्लिम पुरुषों द्वारा अपनी पत्नियों को छोड़ने को कानूनी अपराध बनाता है, मगर दूसरे धर्मों के पुरुषों के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं करता.
यह कोई संयोग नहीं है कि भारत का एकमात्र हिस्सा जहां स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी का संवैधानिक अधिकार लागू नहीं है, वह मुस्लिम बहुल क्षेत्र कश्मीर है.
संभावित परिदृश्य
कानून के जानकारों को 5 सदस्यीय पीठ से एक ऐसे सुविचारित फैसले की उम्मीद थी, जो किसी भी पक्ष के विजेता के तौर पर पेश करने का काम नहीं करता. मंदिर के पक्ष में कोर्ट का स्पष्ट फैसला संघ परिवार के हौसले को और बुलंद करेगा.
चूंकि सत्ताधारी दल- और इस तरह से सरकार- बाबरी मस्जिद के स्थल पर राम मंदिर के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है, इसलिए इस परियोजना को तेजी से पूरा करने का रास्ता अब साफ है.
कोर्ट ने सरकार से एक बोर्ड का गठन करने के लिए कहा है, लेकिन तीसरे प्रतिवादी निर्मोही अखाड़ा के प्रतिनिधि को इसमें शामिल करने के लिए कहने के अलावा, इसने ऊपरी तौर पर भी 1992 के विध्वंस में शामिल लोगों और संस्थाओं को इससे बाहर रखने की बात नहीं की है.
फैसले से पहले भी, जब इस बात की एक संभावना बाकी थी कि कोर्ट शायद सुन्नी वक्फ बोर्ड के दावे को सही माने, तो भी उसी स्थान पर मस्जिद के फिर से निर्माण का कोई सवाल नहीं था. अगर वे जीत गए होते, तो भी वादियों पर उस जमीन पर से अपना दावा छोड़ देने का जबरदस्त दबाव रहता.
वास्तव में सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के आखिरी चरण में वक्फ बोर्ड के चेयरमैन ने एक विवादित ‘मध्यस्थता’ प्रस्ताव पर दस्तखत किया था, जिसमें उन्होंने उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ याचिका को वापस लेने पर अपनी रजामंदी दी थी अगर बदले में यह वादा किया जाए कि इसके बाद से मुस्लिमों की इबादत की कोई भी अन्य जगह उनसे छीनी नहीं जाएगी.
दूसरे मुस्लिम पक्षकारों ने तुरंत इस पर आपत्ति जताई. यह तथ्य कि मुख्य हिंदू पक्षकार- जो असल में विश्व हिंदू परिषद है- ऐसे किसी वादे पर भी दस्तखत करने के लिए तैयार नहीं था, इस बात का पक्का संकेत है कि ऐसे ‘दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण मुकदमे’ और खड़े होंगे.
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से अयोध्या में एक उपयुक्त स्थान पर मस्जिद का निर्माण करने के लिए पांच एकड़ जमीन का आवंटन करने के लिए कहा है, लेकिन वह यह भूल गया कि इस मुकदमे का महत्व मस्जिद की उपलब्धता से ज्यादा इस सवाल को लेकर था कि क्या भारत में किसी को भी किसी व्यक्ति या समूह को बेदखल करने के लिए हिंसा का इस्तेमाल करने की इजाजत दी सकती है?
दुख की बात है कि इस सवाल का जवाब मिल गया है और यह जवाब हां में है. सबसे खराब बात यह है कि बेदखली को स्वीकार किया गया है और दूसरी जगह पांच एकड़ देकर उसका मुआवजा दिया गया है, लेकिन जिन लोगों ने यह काम किया, उन्हें आज भी अपने अपराध की फसल काटने की इजाजत मिली हुई है.
सबसे अजीब यह है कि कोर्ट ने यह घोषणा की कि विवादित स्थल पर हिंदुओं द्वारा पूजा करने का कुछ सबूत मिलता है, लेकिन 1857 से पहले नमाज अदा करने का कोई लिखित दस्तावेज उपलब्ध नहीं है, इसलिए ‘संभावनाओं के संतुलन’ के आधार पर हिंदू पक्ष को विवादित जमीन का कब्जा दिया जाता है.
इसका मतलब साफ है कि इस तर्क को उन दूसरी मस्जिदों पर भी लागू किया जा सकता है, जिन पर हिंदुत्ववादियों का दावा है. एक बार अयोध्या मंदिर का पूरी तरह से राजनीतिक दोहन कर लिए जाने के बाद, संघ दूसरी जगहों पर अपना ध्यान केंद्रित करेगा.
ऐसी किसी भी चीज से हमें हैरान नहीं होना चाहिए क्योंकि हमारा राब्ता कभी भी बराबरी की जमीन पर खड़े दो पक्षों के बीच के एक दीवानी विवाद से न होकर एक प्रत्यक्ष शक्तिप्रदर्शन से था. ‘सांस्कृतिक’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राजनीतिक एजेंडा किसी से छिपा नहीं है और उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार के पूर्वाग्रह बिल्कुल स्पष्ट हैं. इसी कारण से मध्यस्थता पर सुप्रीम कोर्ट का जोर बेमानी था.
आपराधिक मुकदमे का भविष्य
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने मालिकाना हक के मुकदमे को प्राथमिकता देकर इसे फास्ट ट्रैक तरीके से अंजाम पर पहुंचाया, लेकिन यह तय नहीं है कि यह मस्जिद विध्वंस के मुकदमे को ‘मालिकाना विवाद’ पर अपने फैसले से किस तरह से बचाने की सोच रहा है?
इंडिया टुडे को अपने इंटरव्यू में जस्टिस बोबडे ने इस बात से इनकार किया कि कोर्ट आस्था के मसले पर कानून बनाने की कोशिश कर रहा है. वे इस बात से सहमत थे कि यह एक ‘मालिकाना विवाद’ है, मगर उन्होंने जोड़ा, ‘सिर्फ एक बात कि उस ढांचे की प्रकृति क्या है, यह एक मसला है. लेकिन वह ढांचा भी अब अस्तित्व में नहीं है.’
तो क्या ऐसे में एक एक मुद्दा यह भी नहीं होना चाहिए था कि क्यों‘ वह ढांचा’ यानी कि बाबरी मस्जिद ‘अब अस्तित्व में नहीं’ है.
शनिवार को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुख्य हितधारक मस्जिद गिराने के अपराध के मुख्य आरोपियों से जुड़े हुए हैं. अगर अयोध्या मसला वास्तव में दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण मुकदमों में से एक है, तो इसका कारण वह हिंसा है, जो इससे जुड़ी हुई है. तो क्या यह मामला इस हिंसा के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा दिए बगैर सुलझाया जा सकता है?
पांच जजों की सदस्यता वाली पीठ न्यायिक विवेक के एक प्रभावशाली समूह का प्रतिनिधित्व करनेवाली थी, लेकिन दुखद तौर पर उनका फैसला इस बुनियादी सवाल को लेकर पूरी तरह से मौन है.
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)