सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी भाषिक संयम के लिए नहीं जाने जाते हैं लेकिन मोदी की पकड़ भाषा और उसके नाटकीय इस्तेमाल पर कहीं ज़्यादा गहरी है.
माना कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर रेनकोट वाले कटाक्ष में ऐसा कुछ नहीं जिस पर कांग्रेस बिफर कर फिर संसद से उठ चले. लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री के पद से यह बेहद छिछला कटाक्ष था.
इसलिए और भी कि उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री पर बग़ैर किसी प्रमाण या हवाले के भ्रष्टाचार में लिप्त होने, बल्कि भ्रष्टाचार को आमंत्रित करने का आरोप संकेतों में मढ़ा.
सबको मालूम है कि ‘बाथरूम’ में ‘नहाने’कोई अपनी पहल से जाता है, ख़ुद ‘पानी’का चयन और वरण करता है. निस्संदेह मनमोहन सिंह पर, उनके कार्यकाल में, दाग़ भरे भारी छींटे पड़े; उन्होंने शायद सत्तामोह में उनकी अनदेखी भी की.
लेकिन उस पानी- बल्कि कीचड़- को उन्होंने आमंत्रण दिया हो और ‘रेनकोट’ वाले किसी कौशल से दाग़ों से बचे रहे हों, अब तक उन पर न कभी ऐसा आरोप कभी लगा न कोई प्रमाण सामने आया है. इसलिए पूर्व प्रधानमंत्री की निजी छवि अब भी ग़ैर-भ्रष्ट नेता के रूप में क़ायम है.
उनकी पार्टी इसका भरपूर इस्तेमाल करती आई है. भ्रष्ट नेताओं ने भी सिंह का इस्तेमाल रेनकोट की तरह किया होगा, लेकिन उन पर रेनकोट पहन ख़ुद भ्रष्टाचार से नहा लेने का आरोप मौजूदा प्रधानमंत्री की अपनी कल्पना के सिवा कुछ नहीं.
मोदी ने ऐसा संगीन आरोप सिंह पर क्यों लगाया होगा? एक तो शायद पलटवार करने की गरज से: अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने संसद के पिछले सत्र में नोटबंदी पर अपनी दुर्लभ और संक्षिप्त तक़रीर में अपेक्षया तीखा भाषण दिया और ‘संगठित लूट’ और ‘प्लंडर’ शब्दों का प्रयोग किया.
निश्चय ही नवअर्थवाद के मसीहा बनने के ख़्वाहिशमंद मोदी को यह हमला चुभा होगा, भले सिंह के शब्द-प्रयोग को कहीं से गाली या छिछली शब्दावली न माना जा सके.
दूसरे, विधानसभाई चुनावों के मद्देनज़र भी मोदी की ज़बान फिसली होगी जहां नोटबंदी का उनका समूचा प्रयोगवाद दांव पर चढ़ा है. दिल्ली और बिहार की अपमानजनक हार के बाद ये चुनाव मोदी के लिए नाक का सवाल बने हुए हैं.
इससे भी बढ़कर यह प्रधानमंत्री का अपना अपराध-बोध ज़ाहिर होता है. आधे से ज़्यादा मार्ग तय कर लेने के बाद भी उनकी सरकार प्रमुख मोर्चों पर विफल रही है.
उनकी अनेक महत्त्वाकांक्षी योजनाएं इतनी हवाई साबित हुई हैं कि अब आम बजट तक में जगह नहीं पातीं या हाशिए पर पड़ी नज़र आती हैं.
रोज़गार के वादे, कालाधन-उगाही, कर-सुधार, मेक इन इंडिया, स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन, नदी जोड़ो आदि मुख्यतः अब भी काग़ज़ों पर रेंगते वादे हैं.
आशंका जताई गई है कि नमामि गंगे का झांसा तो मोदी के अपने चुनाव क्षेत्र बनारस में भारी गुल खिला सकता है.
इस सब पर नोटबंदी का क़हर है. मोदी चाहे कितने ही आत्मविश्वास का मुज़ाहिरा करें, या उनके सद्भावी चैनल और एजेंसियां भुगताऊ सर्वेक्षणों आदि के ज़रिए नोटबंदी को क्रांतिकारी साबित करें, मैंने उत्तर प्रदेश और पंजाब के अपने हाल के दौरों में पाया है कि नोटबंदी आम जनमानस में भारी रोष का सबब बन चुकी है.
लोग इस तरह जब आहत, अपमानित और ठगा हुआ-सा महसूस करें तो समझना चाहिए कि मतदान के वक़्त बदला लेते हैं. इस क़दर कि जातीय समीकरण और फ़िरक़ापरस्त ध्रुवीकरण सब धरे रह जाते हैं.
ऐसे में प्रधानमंत्री ने अपने चुनावी दौरों में जिस हमलावर और चुटकीमार अन्दाज़ को अपनाया, संसद में बहस के जवाब में बोलते वक़्त भी उनका तेवर मनमोहन सिंह के बहाने उन आहत मतदाताओं से मुख़ातिब रहना रहा होगा.
संचार के आधुनिक चाक्षुष माध्यमों के प्रयोग-दुरुपयोग से उनसे ज़्यादा कौन वाक़िफ़ है? संसद से प्रसारण के बाद भाषण के चुनिंदा टुकड़े उनकी प्रचार-मंडली ने विभिन्न ‘सोशल’ माध्यमों के ज़रिए तुरंत हर चुनावी क्षेत्र में पहुंचा दिए गए.
आम चुनाव मोदी ने कांग्रेस दौर के भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाते हुए सुशासन (‘अच्छे दिन’) की दिलासा पर जीता था. नोटबंदी के बचाव में अब सीधे मनमोहन सिंह को भ्रष्टाचार के आरोप का निशाना बनाना उसी रणनीति का पुनराविष्कार दिखाई देता है.
रही मोदी की भाषा. चुनावी राजनीति में भाषा का पतन नई चीज़ नहीं. अनेकानेक नेताओं ने बुरी भाषा और कटाक्षों का इस्तेमाल विभिन्न मंचों पर किया है.
सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी भाषिक संयम के लिए नहीं जाने जाते हैं. मोदी की पकड़ भाषा और उसके नाटकीय इस्तेमाल पर कहीं ज़्यादा गहरी है.
पचास करोड़ की गर्लफ़्रेंड कहने के बाद वे कभी यह भी कह जाते हैं कि चुनावी इज़हार जुदा चीज़ होता है. उनकी पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह भी चुनावी ‘जुमलों’ को सम्मति का जामा पहना चुके हैं.
लेकिन प्रधानमंत्री पद से संसद की पवित्र ज़मीं पर- जिसे पहले रोज़ मोदी ने सर नवाया था- स्तरहीन भाषा का प्रयोग अजीबोग़रीब गिरावट की ओर इंगित करता है.
ऐसा भाषिक विचलन शायद ही किसी प्रधानमंत्री ने पहले प्रकट किया होगा. अटलबिहारी वाजपेयी ने भी नहीं, जिनसे मोदी और अन्य भाजपा नेता भाषा और नाटकीय भाव-भंगिमाओं का गहन पाठ सीख आए हैं.