शायद ही ऐसा कोई दिन बीतता है, जब देश के किसी न किसी कोने से किसानों की आत्महत्या की खबरें न आती हों. हार किसानों की नहीं हुई है. ये हार अर्थशास्त्रियों और नीति-निर्माताओं की है, जिन्होंने किसानों को मझधार में छोड़ दिया है.
‘भारतीय मौसम विभाग ने इस साल के लिए सामान्य मॉनसून की भविष्यवाणी की है. मेरा अनुमान है कि अगर मॉनसून अच्छा रहता है, तो एक बार फिर रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन होगा और यह कृषि वृद्धि दर को 2016-17 के 4.4 प्रतिशत के आंकड़े से भी ऊपर लेकर जाएगा.’
ये बात कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने तीन साल में कृषि के क्षेत्र में मोदी सरकार की उपलब्धियों पर मीडिया से बातचीत करते हुए कही.
एक अच्छा मॉनसून हमेशा अर्थव्यवस्था के चेहरे पर मुस्कराहट लाने का काम करता है और मेरा यकीन है कि हर भारतीय आने वाले सालों में अच्छे मॉनसून की दुआ करेगा.
शायद यही वजह है कि पूर्व कृषि मंत्री (स्वर्गीय) चतुरानंद मिश्र अक्सर कहा करते थे, ‘असली कृषि मंत्री तो मॉनसून है. अगर मॉनसून अच्छा रहता है, तो कृषि पैदावार अच्छी होगी और अगर नहीं रहता, तो पैदावार कम होगी.’
इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इस साल खाद्यान्न उत्पादन 273.38 मिलियन टन रहा जो अब तक का रिकॉर्ड है.
2014-15 और 2015-16 के दो लगातार सूखे के बाद कृषि उत्पादन बढ़ा है. उम्मीद है कि कृषि वृद्धि दर में बढ़ोतरी आर्थिक तरक्की की दर को बढ़ाने में मददगार साबित होगी.
इसमें कोई शक नहीं कि इन आंकड़ों ने थोड़ा अच्छा एहसास कराया है, लेकिन इन आंकड़ों के पीछे जाएं तो कृषि गंभीर संकट के भंवर में दिखाई देती है. लंबे समय से हमारी आंखों से ओझल गांव अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं.
फिर भी, कृषि क्षेत्र लगातार उदासीनता और उपेक्षा का शिकार बना हुआ है, जिसकी वजह समझ से परे है. शायद ही ऐसा कोई दिन बीतता है, जब देश के किसी न किसी कोने से किसानों की आत्महत्या की खबरें अखबारों में न आती हों.
यह इस बात का सबूत है कि भारत में खेती-किसानी किस भीषण त्रासदी से गुजर रही है.
हाल के वर्षों में किसान आत्महत्या के मामले तेजी से बढ़े हैं. हालात कितने खराब है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि भारत का खाद्यान्न भंडार कहा जाने वाला पंजाब अब किसान आत्महत्या के लिहाज से एक संवेदनशील क्षेत्र में तब्दील हो गया है.
बेईमान बाजार के भरोसे कीमत
इस हफ्ते आई एक रिपोर्ट से मध्यप्रदेश के प्याज उत्पादक किसानों की दयनीय स्थिति सामने आई. पहले ही आलू की जबरदस्त पैदावार ने किसानों को अपनी उपज औने-पौने दामों पर बेचने पर मजबूर किया था.
अब खबर आई है कि इंदौर के सैकड़ों (प्याज उत्पादक) किसानों को खेतों में लगी फसल को या तो जलाने या उन्हें जानवरों को खिला देने पर मजबूर होना पड़ा है. इंदौर में एक किलो प्याज की कीमत 50 पैसे से 3 रुपये की दर से मिल रही थी.
इससे पहले अच्छी कीमत नहीं मिलने के कारण महाराष्ट्र के किसानों को अपनी फसल सड़कों पर फेंक देने पर विवश होना पड़ा था. यह कहानी सिर्फ प्याज की ही नहीं है.
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक में गुस्साए हुए किसान टमाटर की अपनी फसल को राजमार्गों पर पलट रहे हैं. टमाटर उत्पादन के सबसे व्यस्त मौसम में आंध्र प्रदेश की कुछ मंडियों में टमाटर का औसत मूल्य 30 पैसे से 2 रुपये प्रति किलो के बीच रहा.
बाजार में कीमतों में आने वाली गिरावट का सवाल आने पर अक्सर इसे मौसमी समस्या का नाम देकर पल्ला झाड़ लिया जाता है. लेकिन उस किसान के बारे में सोचिए जिसे खेतों में जी तोड़ मेहनत करने और अच्छी फसल उपजाने के बावजूद कीमतों में कमी के कारण उपज की वाजिब कीमत नहीं मिलती.
बाजार के इस तरह लुढ़क जाने से किसानों की आजीविका पर कितना गंभीर असर पड़ता है, यह ख्याल भी दहशत पैदा करने वाला है.
दालों का ही उदाहरण लीजिए. दालों की खुदरा कीमतों में हुई अभूतपूर्व बढ़ोतरी के बाद सरकार ने दालों की उपलब्धता बढ़ाने के लिए दोतरफा रणनीति पर काम किया. एक तरफ सरकार ने मोज़ांबिक के साथ वहां दाल की खेती करने का एक समझौता किया. इसके तहत भारत मोजांबिक में उपजाई गई दाल को खरीद कर अपने यहां लाएगा.
दूसरी तरफ सरकार ने घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहन देने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के उपर अतिरिक्त बोनस देने की घोषणा की. लेकिन, जब तूर सहित दूसरे दालों का उत्पादन बढ़कर 22 मिलियन टन तक पहुंच गया और बाजार धड़ाम से गिर गया, तो सरकार ने सिर्फ बफर स्टॉक की जरूरतों को पूरा करने के लिए दालों की खरीद की और बहुसंख्यक किसानों को बाजार की क्रूरता का सामना करने के लिए छोड़ दिया.
खाद्य-कुप्रबंधन जारी है. अगर आपको लगता है कि 2017 टमाटर के किसानों के लिए खासतौर पर एक खराब साल था, जब ज्यादा उत्पादन ने अभूतपूर्व बहुतायत की स्थिति पैदा कर दी, तो आप ग़लतफ़हमी में हैं.
यह कहानी इससे पहले 2016, 2015 और 2014 में दोहराई जा चुकी है. इससे भी पहले 2013, 2012 और 2011 में किसानों को नुकसान उठाना पड़ा था.
अगर आप इंटरनेट पर सर्च करें, तो आपको अच्छी फसल और हताश किसान का एक पैटर्न मिल जाएगा. आप टमाटर के अलावा दूसरी फसलों के लिए भी इस सर्च को दोहरा सकते हैं.
आपको यही कहानी देश के अधिकांश हिस्सों में प्याज, आलू, दालें, गोबी, सरसों, सोयाबीन, कपास, मिर्च, कैस्टर और यहां तक कि गेहूं और धान के लिए भी मिल जाएगी. और आप हर जगह, हर बार यह भी पाएंगे कि संकटग्रस्त किसान समुदाय को बचाने के लिए सरकार ने उनकी ओर मदद का हाथ नहीं बढ़ाया.
कॉरपोरेट की मदद, किसानों को अंगूठा
अब इसकी तुलना, 2015 में स्टॉक मार्केट के धराशायी होने से कीजिए. बाजार के लुढ़कने के चंद घंटों के भीतर वित्त मंत्री अरुण जेटली हरकत में आ चुके थे और एक प्रेस कांफ्रेंस करके निवेशकों को यह भरोसा दिला रहे थे कि सरकार घटनाओं पर नजर रखे हुए है.
इस काम के लिए बाकायदा एक वॉर रूम बनाया गया था. मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन पूरे दिन मोर्चे पर तैनात रहे.
लेकिन, जब बात कीमतों में अभूतपूर्व गिरावट का सामना कर रहे किसानों की आती है, जिससे लाखों छोटे और सीमांत किसानों की आजीविका नष्ट हो जाती है, तब सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. जितनी तवज्जो सरकार स्टॉक मार्केट के लुढ़कने को देती है, उसका अंशमात्र भी कृषि मूल्य में गिरावट को नसीब नहीं होती.
दोनों के प्रति व्यवहार में असमानता इस तरह साफ प्रकट है.
लेकिन यह असमानता यहीं खत्म नहीं होती. पिछले दिनों व्यापार मंत्री निर्मला सीतारमन ने बताया, ‘व्यापार को सुगम बनाने के मकसद से सरकार ने 7,000 बड़े, छोटे, मध्यम और नैनो उपाय किए हैं. इसका नतीजा यह रहा है कि राज्यों ने भी यह महसूस किया है कि व्यापार को सुगम बनाना एक मुख्य एजेंडा है और उन्हें भी इस रास्ते पर चलने का फायदा समझ में आ गया है.’
इतना ही नहीं, मुख्य आर्थिक सलाहकार ऑन द रिकॉर्ड कह चुके हैं कि कॉरपोरेट सेक्टर के खराब कर्जे (बैड लोन्स) को खाते से मिटा देना आर्थिक दृष्टि से समझदारी भरा फैसला है, क्योंकि ‘पूंजीवाद इसी तरह काम करता है.’
लेकिन जब बात कृषि की आती है, तब बहुत कोशिश करने पर भी हम सार्वजनिक निवेश के दर्जनभर से ज्यादा कार्यक्रम नहीं गिना पाते.
अगले पांच वर्षों में किसानों की आय को दोगुना करना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, ई-नेशनल एग्रीकल्चरल मार्केट (ई-नैम), सॉयल हेल्थ कार्ड्स, नीम का लेप चढ़ा यूरिया (नीम कोटेड यूरिया) और हर बूंद पर अधिक फसल (मोर क्रॉप पर ड्रॉप) आदि ऐसी ही कुछ योजनाएं हैं.
इन प्रमुख कार्यक्रमों के अलावा, कुछ और कार्यक्रम भी हैं, जैसे, उर्वरक सब्सिडी का प्रत्यक्ष हस्तांतरण और बाजार हस्तक्षेप वाले कार्यक्रम. मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर इन सारे कार्यक्रमों को एक साथ जोड़ दिया जाए, तो भी सरकार कृषि क्षेत्र में छोटे या बड़े 50 कार्यक्रमों (जिनमें हल्के फेरबदल के साथ पहले से चले आ रहे कार्यक्रम/परियोजनाएं भी शामिल हैं) की सूची नहीं बना सकती है.
फसली कर्ज माफी की मांग की भी लगातार आलोचना होती रही है. हालांकि, इंडिया रेटिंग्स का आकलन है कि 4 लाख करोड़ रुपये के मूल्य के संकट में फंसे कॉरपोरेट कर्ज को निकट भविष्य में साफ किया जा सकता है.
लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह जानबूझ कर कर्ज न चुकाने वालों के नाम भी सार्वजनिक करने के पक्ष में नहीं है. सिर्फ 6,857 कंपनियों ने मिलकर 94,649 करोड़ रुपये का कर्ज डकार लिया है.
आरबीआई यह घोषणा पहले ही कर चुका है कि वह उत्तर प्रदेश में घोषित करीब 92 लाख किसानों को राहत पहुंचाने वाली 36,359 करोड़ रुपये की कर्जमाफी के पक्ष में नहीं है.
इस तरह आरबीआई ने उन राज्यों को कड़ा संदेश दिया है, जिन पर कर्ज माफ करने का दबाव था.
दिलचस्प है कि आरबीआई की ईमानदार ऋण-संस्कृति पर तभी चोट पहुंचती है, जब किसान कर्ज अदा नहीं करते हैं. खराब कर्जे को माफ कर देने की सुविधा सिर्फ कॉरपोरेट सेक्टर के लिए है. हमें बताया गया है कि पूंजीवाद इसी तरह से काम करता है.
अगले 5 वर्षों में किसानों की आय को दोगुना करने के इर्द-गिर्द जारी बहस पिछले कुछ महीने में खुद दोगुनी हो गई है. लेकिन हर बीतते वर्ष के साथ किसानों को लगातार जिस संकट में गहरे से गहरे धकेला जा रहा है, उन्हें उससे बाहर निकालने के लिए कोई एकाग्र कोशिश नजर नहीं आती.
किसानों की आय को दोगुना करने के वादे को भले बार-बार दोहराया जाता हो, लेकिन इसे अमलीजामा पहनाने का कोई ठोस खाका दिखाई नहीं देता. यह कहना कि फसली कर्ज की सीमा को 1 लाख करोड़ रुपये बढ़ाकर 10 लाख करोड़ करने के पीछे लगातार संकट में घिरे कृषि क्षेत्र को ऋण समर्थन देने की मंशा है, अपने आप में आंखों को धोखा देने की कोशिश है.
यह कृषि लागत पर किसानों को 50 प्रतिशत लाभ देने के वादे को पूरा करने में भाजपा की नाकामी की तरफ से लोगों का ध्यान भटकाने का एक चालाक तरीका है.
मैं हमेशा से यह कहता आया हूं कि तात्कालिक जरूरत इस बात की है कि एक लाख करोड़ रुपये के अतिरिक्त कृषि कर्ज को वापस लिया जाए और इसकी जगह न्यायोचित कृषि मूल्य के द्वारा किसानों के लाभ को 50 प्रतिशत बढ़ाने से शुरुआत की जाए.
खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव से पहले यह वादा किया था. लेकिन उनकी सरकार अब इससे मुकर गई है और उसने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा है कि ऐसा करना मुमकिन नहीं है.
कॉरपोरेट कृषि को बढ़ावा
सरकारी नीतियां बहुसंख्यक किसानों को (देश के करीब 83 फीसदी किसानों के पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि है) नजरअंदाज कर रही हैं और अपने निर्वाह भर के लिए कृषि पर निर्भर किसानों से तेजी से दूर जा रही है.
उसका ध्यान कॉरपोरेट कृषि को बढ़ावा देने पर केंद्रित होता जा रहा है. ई-नैम पहल, जिसके तहत 585 विनियमित थोक बाजारों को जोड़ने का प्रस्ताव है, वास्तव में कमोडिटी ट्रेडिंग का अभिन्न हिस्सा है.
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर एक मॉडल लॉ पहले ही राज्यों को भेजा जा चुका है और भूमि को लीज (पट्टे) पर लेने और भूमि अधिग्रहण के लिए एक समर्थ कानूनी फ्रेमवर्क जल्द ही आने वाला है.
अगर इसे नेशनल स्किल डेवलपमेंट काउंसिल के तहत बनाए गए फ्रेमवर्क के साथ जोड़ कर देखा जाए, जिसका लक्ष्य 2022 तक कृषि पर आधारित जनसंख्या को मौजूदा 58 फीसदी से घटाकर 38 फीसदी पर लाने का लक्ष्य है, तो कॉरपोरेट कृषि की ओर बढ़ने की कवायद साफ दिखाई देती है.
ऐसे समय में जब ‘इंडिया स्पेंड’ के मुताबिक पिछले तीन वर्षों में हर साल औसतन महज 2.13 लाख नई नौकरियों का निर्माण हुआ है, किसानों को खेती से बाहर निकालकर उन्हें बेरोजगार युवाओं की भीड़ का हिस्सा बना देना आर्थिक तौर पर अक्लमंदी भरा फैसला नहीं कहा जा सकता.
किसी भी सरकार के लिए तीन साल का समय बेहद अहम है. यह समय है, जब सरकार ठहरकर अपने कामों का जायजा ले और ‘सबका साथ, सबका विकास’ के लक्ष्य को सामने रखते हुए नीतियों में जरूरी सुधार करे.
सबसे पहला और जरूरी नीतिगत सुधार यह होगा कि रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन को कृषि के अच्छे स्वास्थ्य के संकेतक के तौर पर देखना बंद किया जाए. यह वक्त है जब कृषि विकास के आंकड़ों के मोह से बाहर निकला जाए और इसकी जगह किसानों के कल्याण की चिंता की जाए, जिसकी शुरुआत कृषि आय में अच्छी-खासी बढ़ोतरी से हो सकती है.
2016-17 का आर्थिक सर्वेक्षण हमें बताता है कि भारत के 17 राज्यों में कृषि परिवारों की औसत आय 20,000 रुपये है, जो देश की औसत आय के करीब आधी है.
यह शहर में रहने वाले एक औसत, तरक्की कर रहे मोबाइलधारी नागरिक के सालाना मोबाइल बिल से भी कम है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नीति आयोग और प्रधानमंत्री कार्यालय मरीज के लिए वही गलत दवाइयां दोहरा रहा है, जिसने वर्तमान संकट को जन्म दिया है.
खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ावा देना, उत्पादन लागत को कम करना और कृषि कीमतों को बाजार के रहमो-करम पर छोड़ देना, वास्तव में उन गलत निर्णयों का हिस्सा है जिसने कृषि को गहरे दलदल में धकेल दिया है. इसने बिना किसी अपवाद के इनपुट मुहैया करानेवालों को फायदा पहुंचाया है. असली कहानी यही है.
नीति आयोग ने पूरे देश के लिए जिस दक्षता स्तर का लक्ष्य रखा है, पंजाब पहले ही उसे हासिल कर चुका है. 98 फीसदी निश्चित सींचाई-सुविधा (दुनिया का कोई भी देश इसके करीब नहीं है) और दुनिया में खाद्यान्नों के मामले में सबसे ज्यादा उत्पादकता वाले पंजाब में किसान आत्महत्या कर रहे हैं?
जिस तरह न सिर्फ पंजाब के संकट को नजरअंदाज किया जा रहा है, बल्कि दूसरे राज्यों पर भी पंजाब के रास्ते पर चलने का दबाव बनाया जा रहा है, उससे यह जाहिर होता है कि हमारी नीति-योजना में कोई भारी गड़बड़ी है.
हार किसानों की नहीं हुई है. ये हार अर्थशास्त्रियों और नीति-निर्माताओं की है, जिन्होंने किसानों को मझधार में छोड़ दिया है.
इस हताशा भरे समय में सिर्फ कृषि के पास ही अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करने की क्षमता है. आगे का आर्थिक रास्ता तभी बनाया जा सकता है, जब सरकार क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों के दिखाए रास्ते को छोड़ने का फैसला करे.
यह मुमकिन है, बशर्ते सरकार कृषि को संवृद्धि और टिकाऊ विकास की धुरी बनाने के लिए जरूरी राजनीतिक साहस जुटा सके.
(देविंदर शर्मा कृषि विशेषज्ञ हैं.)
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