पिछले दो दशकों में कांग्रेस का इतनी गहराई तक ग़ैर-सांस्थानीकरण हो चुका है कि गांधी परिवार से बाहर जाकर विचार करने की इसकी सामूहिक क्षमता समाप्त हो गई है.
13 दिसंबर को सत्ताधारी भाजपा के सदस्यों ने संसद के दोनों सदनों के कामकाज को बाधित किया. उनकी मांग थी कि राहुल गांधी एक दिन पहले झारखंड में की गयी अपनी (आदतन की जाने वाली नासमझी भरी) टिप्पणियों के लिए माफी मांगें.
उम्मीद के अनुरूप कांग्रेसी सदस्यों ने अपने मनमौजी राजकुमार का बचाव करने को अपना कर्तव्य माना. इस तरह से सत्ताधारी सदस्यों का दिन अच्छा गुजरा. कांग्रेस के चेहरे और नेता के तौर पर राहुल गांधी संघ परिवार को काफी पसंद आते हैं.
एक दिन बाद शनिवार 14 दिसंबर को आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार की नाकामी को उजागर करने के लिए आयोजित की गई एक रैली में गांधी परिवार के यह चश्मोचिराग फिर से मंच पर थे. और एक बार फिर वे भाजपा की तरफ से अपने पाले में गोल करने से नहीं चूके.
वीडी सावरकर को लेकर किसी की कैसी भी धारणा हो सकती है, लेकिन उन्होंने मूर्खतापूर्ण और अनुपयुक्त तरीके से खुद को उनकी पांत में रखने की कोशिश की.
लेकिन कांग्रेस के ‘कार्यकर्ता’ ही नहीं कांग्रेस के नेतागण भी उनकी इस आक्रामता पर फिदा हैं.
अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की मानें, तो उनकी यह आक्रामकता धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करने के सवाल पर कोई समझौता न करने के उनके संकल्प का सबूत है- कोई उनसे पूछे कि उनसे यह सबूत भला मांग कौन रहा है?
हमें इस विडंबना को स्वीकार करना होगा: कांग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी की वापसी ही बस एक मुद्दा ऐसा है, जिस पर सोनिया गांधी और भाजपा नेतृत्व आपस में राजी हो सकते हैं.
ज्यादा समय नहीं गुजरा है जब उनके नेतृत्व में कांग्रेस की लगातार दूसरी बार अपमानजनक पराजय के बाद वे तुनककर कांग्रेस अध्यक्ष की जिम्मेदारी से भाग खड़े हुए थे.
उन्होंने कांग्रेस को ‘परिवार’ के बाहर से कोई दूसरा नेता चुनने की चुनौती दी थी. उसके बाद पार्टी की बागडोर फिर से उनकी मां को सौंप दी गई थी. और अब इस बेटे की दोबारा वापसी सुनिश्चित कराने के लिए पर्दे के पीछे जोर-आजमाइश की जा रही हैं.
राहुल का दावा इस सहज और इकलौते तथ्य पर टिका हुआ है कि वे सोनिया गांधी के बेटे हैं और उनके पिता भी उनकी दादी और उनके परनाना की तरह भारत के प्रधानमंत्री थे.
अधिकार का यह दावा समय और युग के चरित्र से मेल नहीं खाता और बदले हुए भारत में इसका कोई लेनदार नहीं है. गांधी परिवार जिस करिश्मे का दिखावा और दावा करता रहा है, उसका रंग उतर चुका है.
सुर्खियों में रहने वाला 20 वर्षों का राजनीतिक जीवन रहस्यात्मकता के आभामंडल को निचोड़ डालने के लिए काफी है. ‘कांग्रेस को उनके नाम पर वोट मिलते हैं’ इस फरेब को काफी समय हुए खुद जनता ने ही तार-तार कर दिया है.
एक और फर्जी तर्क यह दिया जाता है कि अगर कांग्रेस का नेतृत्व नेहरू-गांधी परिवार के अलावा और किसी को दिया जाए, तो कांग्रेस बिखर जाएगी. लेकिन तथ्य कुछ और ही कहानी कहते हैं.
आंध्र प्रदेश/तेलंगाना का लगभग समूचा नेतृत्व उस समय एक साथ पार्टी से निकल गया जब सोनिया गांधी सत्ताधारी यूपीए का नेतृत्व कर रही थीं.
पिछले छह सालों से देशभर में- और सबसे हाल में महाराष्ट्र और हरियाणा में- कई वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने पार्टी छोड़ी है. नवजोत सिंह सिद्धू और हार्दिक पटेल जैसे एकाध अपवादों को छोड़ दें, तो नए लोगों को आकर्षित करने में राहुल की कांग्रेस नाकाम रही है.
और हमने पार्टी द्वारा हरियाणा का नया प्रदेश अध्यक्ष चुने जाने के बाद ‘राहुल के सिपहसलार’ अशोक तंवर द्वारा अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के बाहर प्रदर्शन करने का अशोभनीय दृश्य भी देखा है.
बिखराव के तर्क की निरर्थकता को प्रकट करने के लिए ये उदाहरण काफी हैं. लेकिन फिर भी कांग्रेस ने खुद को एक फंदे में फंसा लिया है, जिसे इतिहासकार इयान बुरुमा ‘उत्तरकालीन-साम्राज्यादी दुविधा’ कहते हैं.
वे कहते हैं, ‘बीसवीं सदी के मध्य में साम्राज्यवादी शक्तियां यह तर्क दिया करती थीं कि वे उपनिवेशों को नहीं छोड़ सकती हैं क्योंकि उनके उपनिवेशों की प्रजा खुद पर शासन कर पाने के लिए तैयार नहीं है.’
पिछले दो दशकों में कांग्रेस का गैर-सांस्थानीकरण इतनी गहराई तक हो चुका है कि गांधी परिवार से बाहर जाकर विचार करने की इसकी सामूहिक क्षमता समाप्त हो गई है.
इसके किले की रखवाली आनंद शर्मा, गुलाम नबी आजाद, पी. चिदंबरम, एके एंटनी जैसे परिवार के वफादार कर रहे हैं. ये सब गुजरे हुए कल के लोग हैं, जो परिवार को कोई चुनौती पेश नहीं करेंगे.
किसी को पसंद हो या न हो, राहुल गांधी की वापसी के लिए मंच तैयार किया जा चुका है. कई लोगों को संदेह है कि 14 तारीख की रैली वास्तव में राहुल गांधी की अनिवार्यता को प्रकट करने के लिए आयोजित की गई थी.
सबसे ज्यादा कष्टदायक बात यह है कि उनकी वापसी उनकी असफल और गलत शर्तों पर हो रही है, जिसका मतलब है कि पार्टी के भीतर किसी को भी उनके तौर-तरीकों और उनकी नैतिकता पर सवाल उठाने की इजाजत नहीं है.
किसी के पास यह पूछने की हिम्मत नहीं है कि इस उम्र में, जिसमें उन्हें जवान तो नहीं कहा जा सकता, उनके पास अगले चार वर्षों तक लड़ाई में टिके रहने की ताकत और निष्ठा है या नहीं.
किसी के पास यह सलाह देने का साहस नहीं है कि नेतृत्व को सांस्थानीकृत नियमों और प्रक्रियाओं की कसौटी पर कसा जाना चाहिए.
नरेंद्र मोदी ने अक्सर कांग्रेस पर मां-बेटा की पार्टी में सिमट जाने का आरोप लगाया है. अब इसका विकास मां-बेटा-बेटी पार्टी के रूप में हो गया है और माननीय रॉबर्ट वाड्रा भी राजनीति में शामिल होने की जनता की भारी मांग को मान लेने की धमकी दे रहे हैं.
नेतृत्व का यह प्रारूप सियासत पर अपने तरह से असर डालता है.
कांग्रेस का नेतृत्व गांधी परिवार के पास होने और अपने उनके द्वारा खानदान के नाम पर विशेषाधिकारों का दावा करने से मोदी और भाजपा के दूसरे नेता उन घावों और अन्यायों को कुरेदने में कामयाब हो जाते हैं, जो कभी गैर-कांग्रेसवाद बढ़ावा देने का काम करते थे.
जबकि इस समय की जरूरत एक भाजपा-विरोधी भावना का निर्माण करने की है, जिससे एनडीए के घटक भाजपा के पास अपने संबंधों की समीक्षा के लिए मजबूर होंगे.
इसलिए उदारवादियों के सामने सबसे पीड़ादायक दुविधा यह है कि ठीक उस समय जब गणराज्य को स्थापित संवैधानिक मूल्यों और सिद्धांतों की रक्षा करने के लिए नई कल्पना को संगठित करने और नई ऊर्जा को अपने तरफ करने की जरूरत है, लोकतांत्रिक भारत नेतृत्व को लेकर कांग्रेस पार्टी के पुराने, थके हुए और दागदार पसंद का बंधक बना हुआ है.
पार्टी के लोगों और संसाधनों पर गांधी परिवार की मजबूत पकड़ को देखते हुए राहुल की दोबारा ताजपोशी के खिलाफ पार्टी के भीतर से कोई आवाज उठने की उम्मीद नहीं की जा सकती है.
क्या कांग्रेस के बाहर की आवाजें और भावनाएं इस में हस्तक्षेप कर सकती हैं?
हाल के वर्षों में बड़ी संख्या में उदारवादी और लोकतांत्रिक आवाजों ने मोदी सरकार द्वारा संस्थाओं पर हमले के खिलाफ विरोध प्रकट करने के अपने मौलिक अधिकार को पूरे ताकत के साथ प्रकट किया है. उन्होंने पूरी ताकत और साहस के साथ ‘नया भारत’ के नैतिक दिखावे को चुनौती दी है.
आखिर क्यों यही लोग और समूह एक लोकतांत्रिक पार्टी में कांग्रेस के रूपांतरण की मांग करने के लिए एकजुट नहीं हो सकते हैं?
राजनीतिक पार्टियां सार्वजनिक संस्थान होते हैं. चाहे जो कुछ भी हो, एक सच्चाई ये भी है कि लोकतांत्रिक शक्तियों और दलों के किसी नए गठबंधन के केंद्र में एक शक्तिशाली कांग्रेस का होना जरूरी है.
इसलिए कांग्रेस के सांगठनिक मामलों में लोकतांत्रिक भारत की दिलचस्पी वैध है और इसमें उसका भी काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है.
लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से उदारवादी बुद्धिजीवी वर्ग अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने और कांग्रेस के नेतृत्व में रद्दोबदल करने को लेकर सुझाव देने को लेकर अनिच्छुक है.
यह चुप्पी टूटनी ही चाहिए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)
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