देश में राजनीति के नई करवट लेने के संकेत मिल रहे हैं

सीएए और एनआरसी को लेकर हो रहे राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन और व्यापक स्तर पर संविधान की बुनियाद पर हमले को लेकर बनी समझ भारतीय राजनीति को एक महत्वपूर्ण बिंदु पर ले आए हैं. इस पृष्ठभूमि में क्षेत्रीय और उप-राष्ट्रीय अस्मिताओं की बढ़ती मुखरता नई राजनीति के लिए एक मज़बूत ज़मीन तैयार कर रही है. तमाम संसाधनों और हिंदू वोट बैंक के बावजूद मोदी और शाह इसे हल्के में नहीं ले सकते.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अमित शाह. (फोटो: रॉयटर्स)

सीएए और एनआरसी को लेकर हो रहे राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन और व्यापक स्तर पर संविधान की बुनियाद पर हमले को लेकर बनी समझ भारतीय राजनीति को एक महत्वपूर्ण बिंदु पर ले आए हैं. इस पृष्ठभूमि में क्षेत्रीय और उप-राष्ट्रीय अस्मिताओं की बढ़ती मुखरता नई राजनीति के लिए एक मज़बूत ज़मीन तैयार कर रही है. तमाम संसाधनों और हिंदू वोट बैंक के बावजूद मोदी और शाह इसे हल्के में नहीं ले सकते.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अमित शाह (फोटो: रॉयटर्स)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अमित शाह (फोटो: रॉयटर्स)

नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ जामिया मिलिया इस्लामिया, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस जैसे अलग-अलग संस्थानों के छात्रों का खुद से उठ खड़ा हुआ विरोध प्रदर्शन हमें यह बताता है कि हमारी राजनीति में कुछ असामान्य हो रहा है.

यह नरेंद्र मोदी के अधीन पूर्वानुमान आधारित राजनीति नहीं रह गई है, जिसकी खासियत अल्पसंख्यकों को आजादी के बाद सबसे आक्रामक तरीके से निशाना बनाकर हिंदुत्व की राजनीतिक गोलबंदी को नई उंचाई पर ले जाने की कोशिश है.

यह काफी महत्वपूर्ण है कि छात्रों के विरोध प्रदर्शनों के साथ-साथ सतह के नीचे खदबदा रही क्षेत्रीय और उप-राष्ट्रीय अस्मितामूलक राजनीति का एक बार फिर से मजबूती से उभार हो रहा है.

मोदी और अमित शाह की मौजूदा मुसीबतों की शुरूआत सीएए को लेकर असम और उत्तर-पूर्व की जातीय भावनाओं को पढ़ पाने में उनकी पूर्ण नाकामी से हुई. 2019 की चुनावी सफलता के घमंड में मोदी और शाह दोनों को ही यह लगा कि उन्होंने असम में हिंदू-मुस्लिम की दरार पैदा करके जातीय दरारों को सफलतापूर्वक भर दिया है.

सीएए का मकसद साफ तौर पर जरूरी कागजात पेश न कर पाने के कारण एनआरसी से बाहर रह रह गए 19 लाख लोगों में शामिल हिंदुओं को बचाना था. लेकिन शाह को असम और उत्तर-पूर्व ने जबरदस्त झटका दिया जहां हाल के दशकों का सबसे बड़ा विरोध प्रदर्शन उठ खड़ा हुआ.

इस क्षेत्र ने जातीय राजनीति पर अपने बहुसंख्यकवादी एजेंडे को लादने की भाजपा की कोशिशों को सीधे-सीधे खारिज कर दिया.

मोदी को भी ऐसा ही झटका लगा, जिन्होंने झारखंड चुनाव अभियान के दौरान अपनी जनसभाओं में खासा वक्त असम के लोगों को यह आश्वासन देने में खर्च किया कि वे उनकी ‘परंपराओं, भाषा और सांस्कृतिक पहचान’ को खतरे में डालने वाले किसी चीज की इजाजत नहीं देंगे.

एनआरसी और सीएए उनके चुनाव अभियान का बड़ा भाग था. एक तरह से इस संदेश का एक लक्ष्य झारखंड के आदिवासी समुदाय भी थे, जहां सतह के नीचे एक ऐसा ही तनाव पनप रहा था.

आदिवासी भाजपा के मुख्यमंत्री रघुबर दास, जिनकी छवि अमित शाह और मोदी द्वारा जनता पर थोप दिए गए एक बाहरी व्यक्ति की थी, को कुर्सी से उखाड़ फेंकने के लिए कमर कसे हुए थे.

यह तर्क भी दिया जा सकता है कि अपने ही विधानसभा क्षेत्र में दास की अपमानजनक हार कुछ अंशों में झारखंड के मतदाताओं द्वारा फिर से अपनी आदिवासी पहचान की अभिव्यक्ति का नतीजा है.  भाजपा झारखंड के 28 आदिवासी सीटों में से सिर्फ दो सीट जीत पाई.

एक हद तक, शिवसेना द्वारा खुद को मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा के नग्न बहुसंख्यकवाद से दूर लेकर जाना और खुद को ‘मराठी मानुष’ की क्षेत्रीय भावना के असली प्रतिनिधि के तौर पर पेश करना क्षेत्रीय राजनीति के एक उभर रहे व्यापक रुझान के अनुरूप है जो ‘एक देश, एक संस्कृति, एक नेता’- जिसकी सौगात अमित शाह नरेंद्र मोदी को देना चाहते हैं- के चौखटे के खिलाफ खुद को खड़ा कर रही है.

इस लिहाज से उद्धव ठाकरे द्वारा जामिया के छात्रों पर पुलिस के हमले की तुलना जलियांवाला बाग से करना, ध्यान खींचने वाला है. उद्धव ने स्पष्टीकरण दिया है कि उन्होंने अपने शब्दों का चुनाव काफी सोच-समझकर किया था.

कुछ भी हो, इस अतिशयोक्ति का एक खास मकसद था और इसके द्वारा शिवसेना संकीर्ण बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद के नाम पर लोगों के खिलाफ किए जा रहे गैरजरूरी हमले के खिलाफ चेतावनी देना चाहती थी.

2019 की जीत ने मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उनके संचालकों को में यह भाव बढ़ा-चढ़ाकर भरने का काम किया कि भाजपा की यह जीत मुख्य तौर पर एक हिंदुत्ववादी एजेंडे के पक्ष में मिला जनादेश है, जिसमें इसके बहुसंख्यकवादी एजेंडे को तेजी और आक्रामक तरीके से लागू करने की मांग छिपी है.

शाह का यह कहना सही है कि भाजपा सिर्फ तीन तलाक को कानूनी अपराध बनाने, अनुच्छेद 370 को समाप्त करने, सीएए-एनआरसी और राम मंदिर जैसे वादों को पूरा कर रही है. लेकिन न ही प्रधानमंत्री और न ही गृहमंत्री को सीएए और एनआरसी के खिलाफ ऐसे शक्तिशाली विरोध प्रदर्शनों के उठ खड़े होने की उम्मीद रही होगी.

अब आलम यह है कि प्रधानमंत्री राष्ट्रव्यापी एनआरसी की योजना से ही इनकार कर रहे हैं, जबकि उनके ही गृह मंत्री ने संसद में इस बाबत बयान दिया था. मुझे लगता है कि सरकार भारत और विदेशों में सीएए के खिलाफ खुद उठ खड़े हुए प्रदर्शनों के विस्फोट के बाद समान नागरिक संहिता को ठंडे बस्ते में डाल देगी.

देश से बाहर भारत के 20 करोड़ मुसलमानों को अपमानित करने पर आमादा एक धर्मांध हिंदू के तौर पर बन रही अपनी छवि को लेकर मोदी जरूर चिंतित होंगे. जिस तरह से मोदी ने देशव्यापी एनआरसी या हिरासत केंद्रों के निर्माण की किसी योजना के होने से इनकार किया, वह शायद विदेशी मीडिया को संदेश देने के लिए ही था.

देश में, निश्चित तौर पर लोगों को यह पता है कि वे सच नहीं बोल रहे हैं. बहरहाल भाजपा के घोषणापत्र के सभी बहुसंख्यकवादी वादों को लागू करने का महत्व अब सबको, जिसमें शायद भाजपा भी शामिल है, समझ में आ रहा है.

ऐसा लगता है कि सीएए और एनआरसी के खिलाफ राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शनों ने क्षेत्रीय दलों में नई ऊर्जा का संचार किया है, जो आने वाले समय में ज्यादा से ज्यादा मुखर होंगे. हालांकि, कांग्रेस 2019 से तेज गति से हुए बदलावों से अभी भी सुन्न पड़ी हुई है, लेकिन फिर भी वह क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन बनाने की भरसक कोशिश कर रही है, जैसा हमने महाराष्ट्र और झारखंड में देखा.

इस बात के लिए निश्चिंत रहा जा सकता है कि मोदी और शाह अपनी राजनीति को इतनी जल्दी नहीं छोड़ देंगे और वे बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद को मजबूत करने की कोशिश करते रहेंगे- कम से कम हिंदी पट्टी में जहां उप-राष्ट्रीयता या जातीय संस्कृति जैसी चीज उस तरह से नहीं पाई जाती है, जैसे पूर्व, उत्तर-पूर्व और दक्षिण में पाई जाती है.

वैसे यह साफ है कि भाजपा को भारत की विविधताओं से भरी संस्कृतियों को ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ की एक छतरी के नीचे लाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है.

इस परियोजना को आगे बढ़ाने की कोशिश बेतरतीब तरह से की गई है. कभी-कभी तो बस थाह लेने भर के स्तर पर. इसकी एक मिसाल एनडीए द्वारा दक्षिणी भारत में हिंदी थोपने की कोशिश है, जिसका वहां तीखा विरोध हुआ.

बंगाल विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए एक बड़ा इम्तिहान होगा. देखना यह है कि भाजपा वहां लोकसभा के मत-प्रतिशत को फिर से दोहराने और उसे सीटों में बदलने में कामयाब हो पाती है या नहीं? हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के रुझानों और दिल्ली चुनावों के चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों से ऐसा लगता है कि सूबायी स्तर पर भाजपा का खेल बिगड़ रहा है.

सीएए के खिलाफ राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन और व्यापक स्तर पर बनी इस समझ कि संविधान की बुनियाद पर हमला किया जा रहा है, मिलकर भारतीय राजनीति को एक महत्वपूर्ण बिंदु पर ले आए हैं.

एक स्तर पर हमें मोदी और अमित शाह का शुक्रगुजार होना चाहिए, अल्पसंख्यकों के खिलाफ जिनके द्वारा सतत तरीके से चलाए गए अभियान ने भारत के शिक्षित युवा वर्ग को जगाने का काम किया है. वे भारत के संविधान के नष्ट हो जाने के असली खतरों को पहचानने लगे हैं.

इस पृष्ठभूमि में क्षेत्रीय और उप-राष्ट्रीय अस्मिताओं की बढ़ रही मुखरता नई राजनीति के लिए एक मजबूत जमीन तैयार कर रही है. सभी संसाधनों और हिंदू वोट बैंक के बावजूद मोदी और शाह इसे हल्के में नहीं ले सकते हैं.

ध्वस्त हो जाने के कगार पर खड़ी अर्थव्यवस्था और बेरोजगार युवकों की बढ़ती हताशा केंद्र से बाहर की ओर जाने वाली राजनीति के लिए ईंधन का काम करेगी.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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