आंकड़े बताते हैं कि राजस्थान में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति जितनी दिख रही है, उससे कहीं भयावह है

विशेष रिपोर्ट: राजस्थान के कोटा स्थित जेके लोन अस्पताल में पिछले एक महीने में 100 से अधिक बच्चों की मौत हुई थी. अस्पताल में साल 2019 में बच्चों की मौत का आंकड़ा 963 है. स्वास्थ्य विभाग के आंकड़े बताते हैं कि प्रदेश के अन्य अस्पताल भी कोटा से बेहतर स्थिति में नहीं हैं.

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कोटा स्थित जेके लोन अस्पताल. (फोटो साभार: ट्विटर/@Pintuchoudhry3)

विशेष रिपोर्ट: राजस्थान के कोटा स्थित जेके लोन अस्पताल में पिछले एक महीने में 100 से अधिक बच्चों की मौत हुई थी. अस्पताल में साल 2019 में बच्चों की मौत का आंकड़ा 963 है. स्वास्थ्य विभाग के आंकड़े बताते हैं कि प्रदेश के अन्य अस्पताल भी कोटा से बेहतर स्थिति में नहीं हैं.

राजस्थान के कोटा स्थित जेके लोन अस्पताल में भर्ती मरीज़. (फोटो: पीटीआई)
राजस्थान के कोटा स्थित जेके लोन अस्पताल में भर्ती मरीज़. (फोटो: पीटीआई)

जयपुर: राजस्थान के कोटा शहर से करीब 20 किमी दूर कैथून की रहने वाली ममता को कुछ ही दिन पहले ही बेटा पैदा हुआ. तबीयत खराब हुई और परिजन बीते 8 जनवरी को उसे कोटा के जेके लोन अस्पताल ले आए. बच्चे की हालत में सुधार नहीं हुआ और उसकी मौत हो गई.

जनवरी के 11वें दिन मौतों के लिए कुख्यात हुए जेके लोन अस्पताल में यह 21वें बच्चे की मौत थी. एक दिसंबर 2019 से अब तक 121 बच्चों की मौत इस अस्पताल में हो चुकी है. यहां साल 2019 में कुल 963 बच्चों की मौत हुई.

ममता के बेटे का इलाज कर रहे डॉक्टरों ने कहा कि बच्चा प्री-मेच्योर और कम वजनी था. उसे सेप्टिसीमिया और दिमागी बुखार हुआ इसीलिए नहीं बचाया जा सका.

कोटा के जेके लोन अस्पताल में बीते एक महीने में ऐसी कई खबरें अखबारों और टीवी चैनलों के जरिये आप लोगों तक पहुंची हैं. ममता की तरह देश में 7 लाख 21 हजार मां हैं जिनके बच्चे पैदा होने के बाद एक साल की उम्र भी पूरी नहीं कर पाते.

सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के मुताबिक प्रदेश में प्रति हजार में से 38 बच्चे मर जाते हैं. ग्रामीण राजस्थान में प्रति एक हजार बच्चों में से 42 बच्चों की मौत हो रही है जबकि शहरों में यह आंकड़ा 28 ही है.

कोटा मामले के बाद सरकारी कमेटियों और अलग-अलग फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट्स में सामने आया कि अस्पताल में कुप्रबंधन और अव्यवस्थाएं इन मौतों की जिम्मेदार हैं. साथ ही जानकार मानते हैं कि अगर इस मामले को लेकर गहलोत सरकार का रवैया संवेदनशीलता भरा होता तो शायद सरकार की इतनी फजीहत भी न होती.

कोटा में मचे हंगामे के बाद भले ही अस्पताल की दशा थोड़ी सुधरी हो, लेकिन बुनियादी कमियां अभी भी दूर नहीं की गई हैं. पूरे राजस्थान में लगभग हर जिले के हालात एक जैसे ही हैं.

कोटा में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा ध्वस्त, मरीजों का सबसे ज्यादा दबाव

राजस्थान के विभिन्न जिलों में सरकारी अस्पतालों की संख्या की बात करें तो नागौर में 1021, अलवर में 933 और जयपुर में 903 अस्पताल हैं, जो कि राज्य में शीर्ष तीन पर हैं. कोटा अस्पतालों की संख्या के मामले में नीचे से छठे पायदान पर है.

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कोटा जिले में सिर्फ 288 सरकारी अस्पताल ही हैं. इसके बाद बूंदी में 265, धौलपुर में 277, जैसलमेर में 209, प्रतापगढ़ में 254 और सिरोही में 277 सरकारी अस्पताल हैं.

राजस्थान स्वास्थ्य विभाग का ध्येय वाक्य स्वस्थ जन, सुरक्षित जीवन है. इसी विभाग की वार्षिक रिपोर्ट इस वाक्य पर कई दाग भी लगा रही है.

उप-स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर जिला अस्पताल स्तर तक के चिकित्सालयों में बेडों की संख्या के मामले में कोटा सबसे पिछड़े जिलों में आता है. जैसलमेर (676), प्रतापगढ़ (709) और सिरोही (726) के बाद कोटा जिले के पास सिर्फ 767 बेड ही हैं.

जयपुर (3230), अलवर (2924) और सीकर (2276) जिलों के अस्पतालों में बेडों की संख्या सबसे ज्यादा है. अलवर और सीकर जिले की जनसंख्या कोटा से काफी कम है, इसके बावजूद इन दोनों जिलों में बेडों की संख्या कोटा से कहीं ज्यादा है.

वहीं, जयपुर जिले में प्रति बेड 2016, अलवर में 1257 और सीकर में 1176 लोगों का एक साल में इलाज होता है. कोटा में एक बेड पर एक साल में 2,544 मरीजों का इलाज होता है. यह आंकड़ा राजस्थान में सबसे ज्यादा कोटा का ही है.

पूरे राजस्थान में 1,357 मरीज एक साल में एक बेड का इस्तेमाल करते हैं. कोटा के छोटे-बड़े 288 सरकारी अस्पतालों में प्रति अस्पताल करीब 6,774 लोग अपना इलाज कराने आते हैं.

ऊपर दिए गए अस्पतालों और बेडों की संख्या में प्रदेश में चल रही मेडिकल कॉलेजों के अंतर्गत आने वाले अस्पताल शामिल नहीं है. क्योंकि मेडिकल कॉलेजों से संबंधित अस्पतालों का आंकड़ा प्रदेश का मेडिकल एजुकेशन विभाग रखता है.

वहां से मिली जानकारी के अनुसार कोटा मेडिकल कॉलेज के तहत आने वाले अस्पतालों में सिर्फ 1687 बेड हैं. इसमें से बच्चों की मौत के लिए बदनाम हुए जेके लोन अस्पताल में 307 बेड ही हैं. जिनमें से बच्चों के लिए सिर्फ 157 बेड हैं.

वहीं, जयपुर की एसएमएस मेडिकल कॉलेज के तहत आने वाले अस्पतालों में 5,686, उदयपुर की आरएनटी मेडिकल कॉलेज के हॉस्पिटलों में 2286, बीकानेर के सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज में 2240, अजमेर के जेएलएन मेडिकल कॉलेज में 1428 और जोधपुर के डॉ. संपूर्णानंद मेडिकल कॉलेज से संबंद्ध अस्पतालों में करीब 3164 बेड हैं. इसके अलावा प्रदेश की सोसायटी एजुकेशन से जुड़े मेडिकल कॉलेजों में करीब 4468 बेड हैं.

अस्पतालों और बेडों की संख्या में कमी पर स्वास्थ्य विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘यह सच है कि प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य व्यवस्था चरमराई हुई है. मरीज अपने गांव के अस्पताल में जाते हैं. वहां से उन्हें जिला स्तर या किसी बड़े अस्पताल में रिफर कर दिया जाता है. बच्चों के मामले में यह सबसे ज्यादा होता है कि उन्हें छोटे अस्पतालों से तुरंत शहर के बड़े अस्पतालों में रिफर कर दिया जाता है. यही कारण है कि बड़े अस्पतालों में मरीजों का दबाव काफी ज्यादा है. इसीलिए कोटा जैसे वाकये हो जाते हैं.’

आंकड़े भी यही कहते हैं. मरीजों का अत्यधिक दबाव और सुविधाओं की कमी के कारण जेके लोन अस्पताल के एसएनसीयू में 2019 में भर्ती किए 3087 बच्चों में से 622 से अधिक की मौत हो गई. बच्चों की मृत्यु का यह आंकड़ा प्रदेश के दूसरे अस्पतालों की तुलना में दोगुना (20.2 फीसदी) है.

छह साल में 6.62 से 5.97 प्रतिशत रह गया स्वास्थ्य बजट

बच्चों की मौतों को लेकर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों से इतर आंकड़े बताते हैं कि स्वास्थ्य जैसा संवेदनशील और गंभीर मुद्दा किसी भी सरकार की प्राथमिकता में उतना नहीं रहा जितना होना चाहिए.

प्रदेश के सालाना बजट में स्वास्थ्य का हिस्सा तो बढ़ा है, लेकिन यह प्रदेश के कुल बजट के अनुपात में नहीं बढ़ा है. 2014-15 में मेडिकल-जन स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग का अनुमानित बजट 8,703 करोड़ रुपये था. 2019-20 में ये बढ़कर 13,039 करोड़ रुपये हो गया.

2014 से 2019-20 के बीच प्रदेश का स्वास्थ्य बजट 49 प्रतिशत बढ़ा है, लेकिन इसी दौरान राजस्थान के कुल बजट में 65 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इस वृद्धि की तुलना में स्वास्थ्य बजट नहीं बढ़ाया गया है. बजट आंकड़ों के अनुसार 2014-15 में स्वास्थ्य बजट प्रदेश के बजट का 6.62 प्रतिशत था जो 2019-20 में घटकर 5.97 प्रतिशत रह गया.

इसके साथ ही अनुमानित बजट में से पूरी राशि भी खर्च नहीं हुई है. 2014-15 में अनुमानित बजट 8703 करोड़ था, लेकिन खर्च सिर्फ 6,459 करोड़ रुपये (74.2 प्रतिशत) ही हो सका.

कोटा के जेके लोन अस्पताल में बच्चों की मौत का आंकड़ा.
कोटा के जेके लोन अस्पताल में बच्चों की मौत का आंकड़ा.

2015-16 में अनुमानित बजट 9,416 करोड़ रुपये था. सरकार और स्वास्थ्य विभाग इसका सिर्फ 82.39 प्रतिशत ही खर्च कर पाए. इसी तरह 2016-17 में विभाग का 9,537 करोड़ रुपये बजट था. सरकारी नुमाइंदे इस पैसे का 86.53 प्रतिशत (8253 करोड़ रुपये) ही इस्तेमाल कर सके.

2017-18 के बजट में सरकार ने विभाग का अनुमानित बजट 9,751 करोड़ रुपये रखा और इस साल 10 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए. इसी तरह 2018-19 में स्वास्थ्य विभाग का अनुमानित बजट 12,813 करोड़ रुपये था. इस साल का खर्च का आंकड़ा अभी उपलब्ध नहीं है लेकिन संशोधित बजट घटाकर 11,581 करोड़ रुपये कर दिया गया है.

इस वित्त वर्ष में प्रदेश की गहलोत सरकार ने स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए 13,039 करोड़ रुपये का बजट रखा है जो कि प्रदेश के पूरे बजट का महज 5.97 प्रतिशत है.

बुनियादी ढांचे और उपकरण खरीदने का फंड इस्तेमाल ही नहीं होता

राजस्थान के सात बड़े शिशु अस्पतालों में 44 वेंटिलेटर, 1430 वॉर्मर, 730 इंफ्यूजन पंप और 900 नेबुलाइजर्स काम नहीं कर रहे हैं. इन अस्पतालों में 450 बेडों की जरूरत है. सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि इन चीजों को खरीदने के लिए काम आने वाले कैपिटल फंड को सरकार और विभाग इस्तेमाल ही नहीं कर पा रहा है.

कैपिटल फंड अस्पतालों में बुनियादी ढांचे से जुड़ी चीजों पर खर्च किया जाता है.

2014-15 में कैपिटल बजट में 1073.78 करोड़ रुपये स्वीकृत हुए. विभाग इसमें से महज 45.1 प्रतिशत यानी 484.32 करोड़ रुपये ही खर्च कर पाया. 2015-16 में 53.16 प्रतिशत, 2016-17 में 40.84 प्रतिशत और 2017-18 में 49.42 प्रतिशत राशि ही स्वास्थ्य विभाग इस मद में खर्च कर सका है.

2018-19 में कैपिटल फंड की अनुमानित राशि 974.54 करोड़ रुपये थी जिसमें से सिर्फ 59.66 प्रतिशत (581.49 करोड़ संशोधित) राशि ही खर्च हुई है. कैपिटल फंड साल 2014-15 में 1073.78 करोड़ रुपये था जो 2019-20 में घटकर 789 करोड़ रुपये (अनुमानित) रह गया है.

प्रदेश में 3114 डॉक्टरों की कमी, 6045 वार्ड बॉय की जरूरत

स्वास्थ्य विभाग की 2018-19 की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक, राजस्थान में 3,114 डॉक्टरों की कमी है. इसमें 94 वरिष्ठ विशेषज्ञ, 1165 कनिष्ठ विशेषज्ञ, 362 वरिष्ठ चिकित्सा अधिकारी, 1409 चिकित्सा अधिकारी और 84 डेंटिस्ट डॉक्टरों के पद खाली हैं.

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इसके अलावा अराजपत्रित अधिकारी जिनमें नर्सिंग स्टाफ से लेकर सफाई कर्मचारी तक शामिल होते हैं, के 33,097 पद खाली हैं. प्रदेश में इनके कुल 88,460 पद स्वीकृत हैं.

आश्चर्यजनक तथ्य है कि राजस्थान के अस्पतालों में 6,045 पद वार्ड बॉय के खाली हैं. 1,344 सफाई कर्मचारियों की कमी है. इसके अलावा 4,790 प्रथम और द्वितीय श्रेणी नर्सों की कमी से प्रदेश के सरकारी अस्पताल जूझ रहे हैं.

राजस्थान के बजट पर काम करने वाली संस्था ‘बजट एनालिसिस एंड रिसर्च सेंटर ट्रस्ट’ के निदेशक नेसार अहमद कहते हैं, ‘इन मौतों की जिम्मेदार सरकारों की नीतियां हैं. स्वास्थ्य के घटते बजट, कम खर्च होती बजट राशि और मेडिकल पेशे से जुड़े तमाम लोगों की कमी के आंकड़े डराने वाले हैं. राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के अनुसार राज्यों को अपने कुल बजट का 8 प्रतिशत तक स्वास्थ्य पर खर्च करना है, लेकिन राजस्थान में यह 6 प्रतिशत या इससे कम है.’

नेसार आगे कहते हैं, ‘केंद्र सरकार ने भी केंद्रीय योजनाओं में फंड की कमी की है. इसका असर राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) पर देखा जा सकता है. एनएचएम का बजट 2015-16 से लगातार कम होता जा रहा है. 2017-18 में यह थोड़ा बढ़ा है लेकिन 14वें वित्त आयोग से पहले के आंकड़ों को नहीं छू पाया है. मेरी राय में सरकार अगर अपने खाते ही ठीक से जांच ले तो समस्या की जड़ तक पहुंच सकती है.’

वे कहते हैं, ‘कांग्रेस ने सत्ता में आने से पहले जवाबदेही और स्वास्थ्य का अधिकार कानून लाने की बात कही थी. एक साल बाद तक उन पर कोई अमल नहीं किया गया है. अगर आज यह कानून होता तो बजट खर्च न करने वाले, कोटा में बच्चों की मौतों के जिम्मेदार अधिकारियों की जवाबदेही तय होती और उन्हें सजा मिलती.’

आंकड़ों के मुताबिक एनएचएम का इस साल का बजट 2101 करोड़ रुपये है. जो कि 2014-15 के 2110 करोड़ रुपये से कम है. 2014-15 में 2110 करोड़ में से सिर्फ 1205 करोड़ रुपये ही राजस्थान सरकार खर्च कर पाई. इसी तरह 2015-16 में 2124 करोड़ में से 1724 करोड़ रुपये ही खर्च हुए. 2017-18 में खर्च राशि थोड़ी बढ़ी है, लेकिन यह नाकाफी है.

बच्चों की मौत में कुपोषण बड़ा कारण

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के अनुसार, राजस्थान में 38.4 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट हैं. 40.8 प्रतिशत बच्चे छोटे कद के हैं और 23.4 प्रतिशत बच्चे शारीरिक रूप से कमजोर हैं.

कुपोषण के मामले में प्रतापगढ़ (55.5 प्रतिशत) और उदयपुर जिला 54.8 प्रतिशत के साथ टॉप पर है. बता दें कि दोनों ही जिलों में आदिवासी की बड़ी संख्या है. बच्चों की कमजोरी के मामले में प्रतापगढ़ (39.2 प्रतिशत) और डूंगरपुर (39.1 प्रतिशत) सबसे आगे हैं.

विधानसभा में सरकार के जवाब व्यवस्थाओं की पोल खोलते हैं

स्वास्थ्य से संबंधित सेवाओं की पोल विधानसभा में दिए सरकार जवाब ही खोल रहे हैं. एक जवाब में सरकार ने माना है कि बाड़मेर जिले के 58 और जैसलमेर के 115 उप-स्वास्थ्य केंद्रों पर महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता कार्यरत नहीं हैं. इन पर नजदीक के उप-स्वास्थ्य केंद्रों से महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं से वैकल्पिक सेवाएं ली जाती हैं. बाड़मेर जिले में डॉक्टरों के 133 और जैसलमेर जिले में 43 पद खाली पड़े हैं.

इसी तरह सवाई माधोपुर जिले की बौली सीएचसी में साल 2009 से सोनोग्राफी मशीन बंद पड़ी है. इसीलिए बीते 10 सालों से बौली सीएचसी में सोनोग्राफी की सुविधा मरीजों को उपलब्ध नहीं है. धौलपुर जिले की बाड़ी विधानसभा क्षेत्र में 78 में से 28 सब-सेंटर्स बिना भवनों के चल रहे हैं.

कोटा में हुई बच्चों की मौत और स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर अपनी सरकार का बचाव करते हुए यूथ कांग्रेस के नेता और मुख्य प्रवक्ता आयुष भारद्वाज कहते हैं, ‘इन अस्पतालों में बच्चे बिल्कुल क्रिटिकल स्थिति में आते हैं. इसीलिए मौतों का आंकड़ा ज्यादा होता है. इन्हीं मौतों को रोकने के लिए 2011 में गहलोत सरकार प्रदेश के सभी सीएचसी में एनबीएसयू लगाए थे.’

उन्होंने कहा, ‘2013 में सरकार बदली तो उनकी देखभाल बंद कर दी गई. पिछली सरकार में स्वास्थ्य विषय प्राथमिकता में नहीं था इसीलिए दो बार स्वास्थ्य मंत्री बदले गए थे. हमारी सरकार में हेल्थ हमेशा प्राथमिकता में रहता है. इसीलिए पिछली सरकार ने निशुल्क दवा योजना शुरू की है तो इस बार निरोगी राजस्थान अभियान की शुरूआत की गई है.’

कोटा स्थित जेके लोन अस्पताल. (फोटो साभार: ट्विटर/@Pintuchoudhry3)
कोटा स्थित जेके लोन अस्पताल. (फोटो साभार: ट्विटर/@Pintuchoudhry3)

वहीं, राजस्थान भाजपा के प्रवक्ता लक्ष्मीकांत शर्मा हमसे बात करते हुए कहते हैं, ‘कोटा का मामला काफी संवेदनशील था, लेकिन सरकार ने शुरुआत में बेहद असंवेदनशीलता दिखाई. अगर सीएम और स्वास्थ्य मंत्री पहले दिन ही कोटा का दौरा कर लेते तो शायद इतनी मौतें नहीं होतीं. सीएम कहते हैं कि बच्चों की मौत होती रहती हैं. सरकार ने गलतियों को छिपाने की कोशिश की. अब तक दोषियों पर कार्रवाई नहीं की है.’

शर्मा आगे कहते हैं, ‘हमारी सरकार ने भामाशाह स्वास्थ्य बीमा योजना जैसी योजना चलाई. एक कार्ड से एक करोड़ परिवार उसका लाभ ले रहे थे. इस सरकार ने आते ही उसे बंद कर दिया. आयुष्मान योजना को भी काफी समय बाद शुरू किया गया. आजादी के बाद से 2014 तक राजस्थान में कांग्रेस ने सिर्फ पांच मेडिकल कॉलेज खोले. हमने अपने पांच साल में सात कॉलेज खोले हैं. आने वाले समय में इसका फायदा प्रदेश को मिलेगा.’

अन्य जिलों में भी बच्चों की मौतों का आंकड़ा भयावह है

दोनों पार्टियों के प्रवक्ता अपनी सरकारों के बचाव में चाहे जो कहें लेकिन अस्पतालों की हालत बहुत दयनीय है. हमने उन जिलों की स्थिति जांचने की कोशिश की.

आंकड़े कहते हैं कि बांसवाड़ा में 2019 में 180 बच्चों की मौत हुई है. साल के अंत के 92 दिनों में 36 नवजातों की मौत बांसवाड़ा के महात्मा गांधी अस्पताल में हुई है.

बूंदी में पिछले साल 82 नवजातों ने दम तोड़ा है. बीते छह साल में यहां के जनाना अस्पताल में 540 नवजातों की मौत हुई है. इस अस्पताल में चार साल पहले लगे 20 हीट वार्मर में से 13 पर तो मॉनिटर ही नहीं लगे हैं. मॉनिटर के कारण बच्चे की पल्स, ऑक्सीजन, एक्सप्रेशन और तापमान का पता चलता है.

वहीं, भीलवाड़ा के महात्मा गांधी अस्पताल में 2019 में 435 नवजात बच्चों की मौत हुई है. यहां हर माह औसतन 39 बच्चे मर रहे हैं. बीते पांच सालों में भीलवाड़ा में 2175 बच्चे अस्पताल में दम तोड़ चुके हैं. इस अस्पताल में 35 लोगों का स्टाफ चाहिए, लेकिन सिर्फ 12 लोग ही कार्यरत हैं. जिले में 168 डॉक्टरों की कमी है.

बाड़मेर के जिला अस्पताल में बीते साल 250 बच्चों की मौत हुई है. 2014 से 2019 तक यहां 1358 बच्चे मरे हैं. उदयपुर में पिछले तीन साल में 5,153 नवजातों ने दम तोड़ा है. 2019 में उदयपुर के महाराणा भूपाल अस्पताल में 18,735 बच्चे भर्ती हुए जिनमें से 1928 नवजातों की मौत हो गई.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)