झारखंड के गिरिडीह ज़िले में पुलिस ने जिस व्यक्ति को नक्सली बताकर मार डाला था, उसे निर्दोष बताते हुए आदिवासी और मज़दूर संगठन प्रदेश में आंदोलन कर रहे हैं.
झारखंड के गिरिडीह जिला के पीरटांड़ प्रखंड के मधुबन थाना अंतर्गत जैन तीर्थावलम्बियों के विश्व प्रसिद्ध तीर्थस्थल पारसनाथ पर्वत की तलहटी में स्थित आदिवासी गांव ढोलकट्टा के समीप 9 जून 2017 को माओवादियों व सीआरपीएफ कोबरा के बीच मुठभेड़ होती है.
उसी दिन शाम में पुलिस दावा करती है कि मुठभेड़ में एक दुर्दांत माओवादी को मार गिराया गया है, साथ ही उसके पास से एक एसएलआर व गोली समेत कई चीजें दिखाई जाती हैं.
10 जून को झारखंड के डीजीपी डीके पांडेय हवाई मार्ग से मधुबन पहुंचते हैं और ‘भारत माता की जय’, ‘सीआरपीएफ की जय’ के नारे के उद्घोष के बीच गिरिडीह एसपी बी. वारियार को मुठभेड़ में शामिल जवानों को बड़ी पार्टी देने के लिए एक लाख रुपये देते हैं. साथ ही अलग से 15 लाख रुपये इनाम देने की घोषणा भी करते हैं.
इस खबर को झारखंड के तमाम अखबारों में प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता है.
मुठभेड़ में मारा गया व्यक्ति क्या सच में दुर्दांत माओवादी था?
इस सवाल का जवाब 11 जून को मिल गया, जब मारे गये आदिवासी की पहचान उजागर हुई तो पता चला कि जिसे मारकर प्रशासन अपना पीठ खुद ही थपथपा रही है और जिसकी हत्या का जश्न भी अब तक प्रशासन मना चुकी है, दरअसल वह एक डोली मज़दूर था, जो कि तीर्थयात्रियों को डोली पर बिठाकर अपने कंधे पर उठाकर तीर्थस्थल का भ्रमण कराता था और साथ ही पारसनाथ पर्वत पर स्थित चंद्र मंदिर के नीचे एक छोटा सा होटल भी चलाता था, जिसमें डोली मज़दूर चावल-दाल व सत्तू खाया करते थे.
उस डोली मज़दूर का नाम मोतीलाल बास्के था. वह धनबाद जिला के तोपचांची प्रखंड अंतर्गत चिरूवाबेड़ा का रहने वाला था, लेकिन कुछ दिन से अपने ससुराल गिरिडीह जिला के पीरटांड़ प्रखंड अंतर्गत ढोलकट्टा में ही रहकर प्रखंड से पास किए गए प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत अपने आवास को बनवा रहा था.
9 जून को वह ढोलकट्टा से पारसनाथ पर्वत स्थित अपने दुकान जा रहा था, लेकिन हमारे देश के अर्द्धसैनिक बल सीआरपीएफ कोबरा ने उसे मुठभेड़ में मार गिराने का दावा कर दुर्दांत माओवादी घोषित कर दिया और उसकी हत्या का जश्न भी सरकारी खजाने से मनाया.
अब जबकि यह बात पूरी तरह से साफ हो चुकी है कि मृतक मोतीलाल बास्के एक डोली मज़दूर था और डोली मज़दूरों के एकमात्र संगठन मज़दूर संगठन समिति का सदस्य भी था, उसकी सदस्यता संख्या 2065 है.
एक आदिवासी होने के नाते वह आदिवासी संगठन सांवता सुसार बैसी का भी सदस्य था और 26-27 फरवरी 2017 को मधुबन में आयोजित मारांड. बुरु बाहा पोरोब नाम के समारोह में विधि व्यवस्था का दायित्व भी संभाला था.
इस समारोह में झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुई थीं. मृतक मोतीलाल बास्के को प्रधानमंत्री आवास योजाना के तहत मकान बनाने के पैसे भी मिले हैं, जिससे वे मकान बना रहे थे.
माओवादी बताकर मोतीलाल बास्के की हत्या पुलिस द्वारा कर दिए जाने का सच पारसनाथ पर्वत के अगल-बगल के गांवों में पहुंचते ही आम लोगों में गुस्सा बढ़ने लगा और 11 जून को मधुबन के हटिया मैदान में मज़दूर संगठन समिति ने एक बैठक कर मोतीलाल बास्के का सच सबके सामने लाई.
इस बैठक में आदिवासी संगठन सांवता सुसार बैसी के अलावा स्थानीय जनप्रतिनिधि भी शामिल हुए और 14 जून को वहीं पर महापंचायत करने का निर्णय लिया गया.
धीरे-धीरे फर्ज़ी मुठभेड़ का सच बाहर आने लगा. 12 जून को भाकपा (माले) लिबरेशन की एक टीम ने अपने गिरिडीह जिला सचिव के नेतृत्व में मृतक के परिजनों से मुलाकात करते हुए इस फर्ज़ी मुठभेड़ की न्यायिक जांच व दोषी पुलिसकर्मियों को सजा देने की मांग के साथ 15 जून को पूरे ज़िले में प्रतिवाद दिवस मनाने की घोषणा की, साथ ही मृतक की पत्नी को 5 हजार रुपये की आर्थिक मदद भी की.
13 जून को झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतागण ढोलकट्टा जाकर मृतक के परिजनों से मुलाकात की व मृतक की पत्नी की बात झारखंड के विपक्ष के नेता व पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से करायी, जिसमें उन्होंने उनको न्याय दिलाने का वादा किया.
14 जून को मधुबन में आयोजित मज़दूर संगठन समिति की महापंचायत में सैकड़ों गांवों के हजारों ग्रामीणों के साथ-साथ झामुमो, झाविमो, भाकपा (माले) लिबरेशन, आदिवासी संगठन सांवता सुसार बैसी व स्थानीय तमाम जनप्रतिनिधि, जिला परिषद सदस्य, प्रखंड प्रमुख व कई पंचायत के मुखिया शामिल हुए.
महापंचायत ने इस फर्ज़ी मुठभेड़ के खिलाफ 17 जून को मधुबन बंद, 21 जून को गिरिडीह में उपायुक्त के समक्ष धरना, 2 जुलाई को पूरे गिरिडीह ज़िले में मशाल जुलूस व 3 जुलाई को गिरिडीह बंद की घोषणा की.
15 जून के अखबारों में भाकपा (माओवादी) का बयान भी आया कि मोतीलाल बास्के उनके पार्टी या पीएलजीए का सदस्य नहीं है. उलगुलान के सृजनकार महान छापामार योद्धा बिरसा मुंडा के शहादत दिवस 9 जून को ही फर्ज़ी मुठभेड़ में एक आदिवासी मज़दूर की हत्या को माओवादी हत्या के रूप में पूरे झारखंड के तमाम अखबारों ने मुख्य पृष्ठ पर जगह दी, लेकिन अब जबकि यह साबित हो चुका है कि मृतक मोतीलाल बास्के माओवादी नहीं था, तो सभी अखबारों ने इन तमाम समाचारों को गिरिडीह के पन्नों में ही कैद कर रखा है.
तमाम अखबारों ने डीजीपी द्वारा एसपी को एक लाख रुपये हत्यारों को पार्टी देने की खबरों को प्रमुखता से छापा था, लेकिन आज कोई अखबार यह सवाल नहीं कर रहा है कि आखिर एक ग्रामीण आदिवासी की हत्या का जश्न क्यों और कब तक?
फर्ज़ी मुठभेड़ की घटना को अब एक सप्ताह होने को हैं, लेकिन देश के मानवाधिकार संगठनों, बुद्धिजीवियों व न्यायपसन्द नागरिकों के कानों पर अब तक जूं भी क्यों नहीं रेंग रही? उनके लिए एक आदिवासी की हत्या और हत्यारे पुलिस अधिकारियों के द्वारा हत्या का जश्न मनाना कोई बेचैनी का सवाल क्यों नहीं बनता?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)