सशस्त्र बलों की कठिनाईयों को गंभीरता से समझने की जरूरत है सिर्फ सोशल मीडिया पर बहस करने से इसका हल नहीं निकलने वाला है
जब भी भारत में पुलिस व्यवस्था के ऊपर बात की जाती है तो भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) अधिकारी अपने ऊपर पड़ने वाले भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों (आईएएस)और राजनीति दल के दवाब का हवाला देते है. लेकिन जब हम बात केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (सीएपीएफएस) के कामकाज की करते हैं तो उनकी ये शिकायतें लागू नहीं होती हैं.
बीते 8 जनवरी को बॉर्डर सिक्यूरिटी फोर्स के जवान तेज बहादुर ने कुछ वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिया था जिसमें सेना में जवानों को मिलने वाले खाने समेत सेना के अधिकारियों पर कई गंभीर आरोप लगाए गए थे.
इन वीडियोज में आधी जली हुई चपाती, पानी से भरी हुई दाल साफतौर पर दिखाई दे रही थी. इस वीडियो को पोस्ट करते हुए जवान ने सेना के अधिकारियों पर आरोप लगाते हुए कहा था सरकार की तरफ से सेना को पूरी तरह से मदद मिलती है लेकिन सेना के कुछ बड़े तबके के अधिकारी खाने के सामान को बाजार में बेच देते है.
जवान के गंभीर आरोपों से भरा वीडियो रातो-रात सोशल मीडिया पर वायरल हो गया और सुबह तक ये वीडियो समाचार चैनलों की टॉप हेडलाइंस में शुमार हो गया.
फिलहाल जब ये मामला देशभक्ति, राजनैतिक शुद्धता की बहस और फेसबुक लाइक्स के बाद मीडिया की सुर्खियों से बाहर है तो यही सही समय है यह जानने का कि आखिर सीएपीएफएस किन मुश्किलों से जूझ रहा है.
जानिए क्या है सीएपीएफएस….?
सीएपीएफएस के तहत भारत में पांच पुलिस सशस्त्र बल है. ये गृहमंत्रालय के अंदर आता है. इसमें सीआरपीएफ और बीएसएफ दो बड़े पुलिस बल है. हालांकि कई बार लोग सीएपीएफएस को सेंट्रल पैरा मिलिट्री फोर्स के नाम से जानते है जो कि गलत है.
केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल पूरी तरह से गृहमंत्रालय के अंतर्गत आता है. इसका रक्षा मंत्रालय से कोई भी संबंध नहीं है. इसका मुख्य कार्य किसी भी राज्य में हुए दंगे–फसाद, सीमा में हुई झड़प या फिर उग्रवाद जैसी घटनाओं में राज्य की सहायता करना है.
सीएपीएफएस का नेतृत्व आर्मी कमांडर्स के बजाय आइपीएस ऑफीसर्स करते हैं. जूनियर और मिडिल रैंक के अधिकारियों की सीधी भर्ती की जाती है. वरिष्ठ पदों पर ज्यादातर अधिकारी आईपीएस से आते हैं सीएपीएफएस से भी कुछ अधिकारियों की वरिष्ठ पदों पर नियुक्ति होती है.
आईपीएस ऑफीसर प्रतिनियुक्ति पर इन बलों में अधिकतम 5 सालों के लिए आते हैं. इसमें से 2 या तीन साल उन्हें फील्ड पोस्टिंग पर रहना होता है.
जानिए सीएपीएफएस की परेशानियां
भारत में केंद्रीय सशस्त्र पुलिस को कुछ गंभीर समस्याओं से जूझना पड़ रहा है. फेसबुक या फिर सोशल मीडिया के जरिए आप सीधी भर्ती के तहत सीएपीएफएस आए जूनियर और मिडिल लेवल के अधिकारियों की वास्तविक समस्याओं को नहीं समझ सकते हैं.
समस्याओं की सूची काफी लंबी है जिसमें से प्रमुख है- अराजक तैनाती, अनियमित विस्तार, ढांचागत कमियां , परिवहन, हथियार और गोला-बारूद की कमी, खराब कार्मिक प्रबंधन, राज्य पुलिस और केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बल नेतृत्व के बीच अप्रभावी समन्वय और अपर्याप्त मेडिकल सुविधा.
अगर आप बीते कुछ सालों के आंकड़ों को देखेंगे तो पाएंगे कि साल 2010 से 2013 के बीच करीब 47000 जवानों ने या तो समय से पहले रिटायरमेंट ले लिया या फिर उसे छोड़ दिया.
सबसे ज्यादा इस तरह के मामले सीआरपीएफ और बीएसएफ में देखने को मिलते है जो कि अपने आप में ही काफी चौंकाने वाली बात है.
हालांकि अगर आप इनके छोड़ने की वजहों की बात करें तो ज्यादातर लोगों का कारण एक ही है जिनमें सही सुविधाएं ना मिलना, समय से छुट्टी न मिलना और मेडिकल की सुविधाओं का अभाव मुख्य है.
सीएपीएफएस केे ग्रुप ए के अधिकारियों के कैडर में ठहराव आ गया है यानी कि उन्हें उचित पदोन्नति नहीं मिल रही है. ऐसे में पूरी निष्ठा और योग्यता से काम करने वाले अधिकारियों का मनोबल प्रभावित हो रहा है.
अधिकारियों के मनोबल प्रभावित होने का कारण सिर्फ पर्याप्त पदों की कमी ही नहीं है. इसका कारण यह भी है कि शीर्ष पदों पर बड़ी संख्या में आईपीएस अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर यहां आते हैं जो कि कैडर अधिकारियों की प्रोन्नति के लिए कोई खास कदम नहीं उठाते हैं.
इन अधिकारियों के लिए जो सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं वह भी बहुत अपर्याप्त हैं. पिछले दो दशकों की बात करें तो सीएपीएफएस की शक्ति में काफी विस्तार हुआ है.
सीआरपीएफ में करीबन 3 लाख जवानों ने ज्वाइन किया तो वहीं बीएसएफ में ढाई लाख जवानों की भर्ती हुई. हालांकि उनके लिए संसाधन और उपकरण अपर्याप्त रहे .
दंतेवाड़ा में माओवादी हमले में 76 सीआरपीएफ जवानों को मौत के बाद अप्रैल 2010 में पुलिस के पूर्व डॉयरेक्टर जनरल ई.एन. राममोहन ने एक जांच बैठाई. इस घटना में महानिदेशक ने पाया कि फोर्से के कैंप में बुनियादी सुविधाओं का अभाव था. जवान न्यूनतम सुरक्षा और बहुत खराब स्थिति में जीवन यापन कर रहे थे.
शहीज जवानों के निधन के बाद के फोटोग्राफ में देखा गया जवानों ने बल की तरफ से मिलने वाले जूतों की बजाय नजदीकी बाजार से खरीदकर जूते पहने हुए थे. सशस्त्र बल की तरफ से जारी किए जूते पहनने लायक नहीं थे. यह हमारे शीर्ष नेतृत्व की विफलता का सबसे सटीक उदाहरण है.
हम आपको शीर्ष नेतृत्व की विफलता का दूसरा उदाहरण बताते हैं. भारत सरकार द्वारा जारी दिशा निर्देशों के अनुसार केंद्रीय सेवाओं के ग्रुप ए कैडर की समीक्षा हर पांच साल में की जाएगी. हालांकि बीएसएफ के मामले में कैडर समीक्षा दो दशकों के बाद 2016 में हुई.
गौरतलब है कि हमारे सीआरपीएफ के ऑफीसर्स ने भी कई बार कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है और उनके मुद्दों में भेदभाव, वित्तीय लाभ जैसी बातें अहम थी.
विवाद यह भी है कि इन अधिकारियों को शीर्ष स्तर पर पदोन्नति का लाभ नहीं मिलता है क्योंकि संगठन में शीर्ष स्तर पर बड़ी संख्या में आईपीएस कैडर के अधिकारियों की नियुक्ति होती है जबकि उसमें से बहुत सारे लोगों को फील्ड में काम करने का अनुभव नहीं होता है.
यह तब होता है जब सीएपीएफएस में कमीशंड अधिकारियों का चयन संघ लोक सेवा आयोग द्वारा किया जाता है. पदोन्नति के समय यह ध्यान नहीं दिया जाता कि बड़ी संख्या में आईपीएस अधिकारियों को फील्ड का अनुभव नहीं होता है.
सवाल ये नहीं है कि है कि तेज बहादुर ने समय से पहले रिटारमेंट के लिए अपनी अर्जी क्यों डाली? सवाल ये भी नहीं है कि वो शाकाहारी है जो मटन करी जवानों को परोसी गई थी वह बहुत बढ़िया थी. यह उनके सर्विस रिकॉर्ड पर सवाल है.
सवाल ये है कि दिन रात देश की सेवा करने वाले कांस्टेबल को 15 से 20 के बाद भी प्रमोशन नहीं किया जाता. यह जवानों के मनोबल के लिए बढ़िया नहीं है. वास्तविकता यह है कि सीएपीएफएस के अधिकारी अपने 35 साल के करियर में एक या दो प्रमोशन लेकर रिटायर हो जाते हैं.
अभी जरूरत संसाधनों के आवंटन, जवाबदेही संरचना और कार्मिक प्रबंधन के मामले में सीएपीएफएस में जरूरी बदलाव किए जाने की है.
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बसंत रथ आईपीएस अधिकारी हैं और जम्मू कश्मीर में कार्यरत हैं. यह लेखक के निजी विचार हैं.