जीएसटी के बारे में जागरूकता फैलाने और लोगों को समझाने की वित्त मंत्रालय की कवायद अब तक बड़े औद्योगिक समूहों तक ही सीमित रही है.
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हर बीतते लम्हे के साथ यह बात और ज्यादा साफ होती जा रही है कि 1 जुलाई से वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लागू करने के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारें पूरी तरह से तैयार नहीं हैं.
करों की अधिकता के साथ-साथ एक ही वस्तु या सेवा के लिए विभिन्न कर-स्तर (टैक्स स्लैब) एक बड़ी समस्या है, जिसका विश्लेषण विशेषज्ञों के साथ-साथ वास्तविक करदाताओं ने भी किया है.
विदेशी और देशी निवेशकों ने अभी से यह कहना शुरू कर दिया है कि अपने वर्तमान स्वरूप में जीएसटी तरक्की की रफ्तार को बढ़ाने या महंगाई को कम करने के मामले में शायद ही उम्मीदों के अनुरूप नतीजे दे पाए.
लेकिन, अगर कम अवधि से लेकर मध्यम अवधि की बात करें, तो बाकी सारी समस्याएं अपनी जगह, सिर्फ प्रक्रियागत जटिलताएं जीएसटी को एक दुःस्वप्न में तब्दील कर सकती हैं.
खासकर उन लाखों-करोड़ छोटे कारोबारियों और सेवादाताओं के लिए जो पहले ही देश के विभिन्न हिस्सों में जीएसटी के विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं. विरोध जताने के लिए दिल्ली और दूसरे शहरों में पिछले हफ्ते बाजारों को बंद रखा गया.
चाहे कारोबारी हों या दुकानदार, सबकी यह शिकायत है कि उनके पास जीएसटी का अनुपालन करने के लिए जरूरी बुनियादी ढांचा नहीं है. उनके ऐसा कहने का मतलब क्या है?
कॉनफेडरेशन ऑफ ऑल इंडियन ट्रेडर्स के अध्यक्ष प्रवीण खंडेलवाल छोटे कारोबारियों और दुकानदारों की मुश्किलों के बारे में बताते हुए कहते हैं,‘भारत में 10 करोड़ के करीब छोटे कारोबारी और दुकानदार हैं. इनमें से करीब 60 फीसदी कंप्यूटर के मामले में निरक्षर हैं. यानी कम से कम 6 करोड़ कारोबारी कंप्यूटर पर काम करने में असमर्थ हैं. लेकिन, जीएसटी का पूरा ढांचा कंप्यूटर पर खड़ा है. जीएसटी का अनुपालन जीएसटीएन नेटवर्क से जुड़े कंप्यूटर सिस्टम के सहारे ही किया जा सकता है. जीएसटीएन नेटवर्क पर सारे व्यापारों, कारोबारियों और दुकानदारों को पंजीकृत किया जाएगा.’
यह एक समस्या है, जिसके बारे में सरकार ने सही ढंग से पूर्वानुमान नहीं लगाया है. केंद्र का कहना है कि इसने कारोबारियों और दुकानदारों की सुविधा के लिए 1,000 से ज्यादा टैक्स रिटर्न केंद्रों की स्थापना की है, मगर खंडेलवाल कहते हैं कि करोड़ों जीएसटी आकलनों के लिए 1000 केंद्र ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं.
ऐसे में कोई बड़ी बात नहीं अगर हम जीएसटी रिटर्न भरने के लिए फिर से नोटबंदी के महीनों जैसी लंबी कतारें देखें क्योंकि कारोबारियों और सेवादाताओं के लिए एक महीने में तीन बार रिटर्न भरना अनिवार्य कर दिया गया है.
जीएसटीएन नेटवर्क हर महीने की 10, 15 और 20 तारीख को इतना भार बर्दाश्त कर भी पाएगा या नहीं, इसकी जांच भी अब तक नहीं हुई है.
लेकिन दुःस्वपन का अंत यहीं नहीं होता है. एक दूसरा दुःस्वप्न भी विभिन्न क्षेत्रों में सेवादाताओं का इंतजार कर रहा है.
भारत के प्रमुख टैक्स लॉयर अरविंद दातार ने कुछ महीने पहले चेन्नई में इसे काफी अच्छी तरह समझाया था. दातार के मुताबिक, रिटर्न दाखिल करने की प्रक्रिया पहाड़ पर चढ़ने के समान कठिन है.
मिसाल के लिए, जैसा उन्होंने कहा, कई राज्यों में डॉयग्नोस्टिक्स सर्विस (जांच-सेवा) प्रदान करने वाले को हर राज्य में हर साल 49 रिटर्न दाखिल करने पड़ेंगे.
फर्ज कीजिए, एक सेवा-प्रदाता 10 राज्यों में अपनी सेवा दे रहा है, तो उसे हर साल 490 रिटर्न भरने पड़ेंगे. वर्तमान समय में ऐसे सेवादाताओं को केंद्रीय स्तर पर सिर्फ दो रिटर्न भरने करने की जरूरत पड़ती है.
इसलिए इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि भारत की कुल जीडीपी का 60 फीसदी सेवा क्षेत्र से आता है, यह अंदाज लगाया जा सकता है कि जीएसटी की प्रक्रिया संबंधी जटिलता का कैसा असर सेवा-व्यापार पर पड़ेगा, जिसका पाला अब तक सिर्फ एक केंद्रीय अथॉरिटी से पड़ता था.
अगर वित्तीय सेवाओं और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के ग्राहक देश भर मे फैले हुए हैं, तो उन्हें रिटर्न भरने के लिए 29 राज्यों का चक्कर लगाना होगा.
बदकिस्मती से, जीएसटी के बारे में जागरूकता फैलाने और लोगों को समझाने की वित्त मंत्रालय की कवायद अब तक बड़े औद्योगिक समूहों तक ही सीमित रही है. जबकि बड़े औद्योगिक समूहों के पास वकील और एकाउंटेंट्स रखने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं.
इसकी जरूरत दरअसल छोटे कारोबारियों और सेवादाताओं को थी, क्योंकि इनके पास इतने संसाधन नहीं हैं. ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जीएसटी के विरोध में कारोबारी सड़कों पर उतर रहे हैं.
जीएसटी के डिजाइन और अपनाई गई प्रक्रिया की अहमियत जीएसटी के पीछे के सिद्धांत से कतई कम नहीं है. खराब डिजाइन और दुरूह प्रक्रिया एक अच्छे कर-सुधार को बदनाम कर सकते हैं.
सरकार का दावा था कि करों की कई दरें रखने का मकसद गरीबों और तुलनात्मक रूप से संपन्न लोगों द्वारा उपभोग किए जाने वाले सामानों पर अलग-अलग दर से कर लगाना है.
अगर ऐसा है, तो इस सिद्धांत को मूर्त रूप देने के लिए 0%, 5% और 18% की तीन कर दरों से काम चलाया जा सकता था. इसके साथ ही तंबाकू या शराब जैसे नुकसानदेह पदार्थों (सिन गुड्स) पर 35-40% की दर से ज्यादा कर लगाया जा सकता था.
लेकिन इसकी जगह अब हमारे सामने 0%, 5%, 12%, 18% और 28% और नुकसानदेह पदार्थों (सिन गुड्स) पर एक विशेष कर है.
वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने यह उम्मीद जताई थी कि काफी कम वस्तुओं पर 28% की दर से कर लगाया जाएगा और इस तरह यह टैक्स स्लैब लगभग निरर्थक हो जाएगा. लेकिन उनकी उम्मीदें झूठी साबित हुई हैं.
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करीब 19 फीसदी वस्तुओं और सेवाओं पर 28 फीसदी की दर से कर लगाया गया है. 28 फीसदी का यह टैक्स स्लैब इतना ज्यादा महत्वपूर्ण और बड़ा हो गया है कि इसे काबू में रखना किसी के लिए भी मुश्किल होगा. यह जीएसटी की योजना को नुकसान पहुंचाएगा.
निश्चित तौर पर जीएसटी के साथ पहला समझौता तब किया गया, जब ऊर्जा और रियल एस्टेट को जीएसटी लागू करने के पहले चरण में शामिल नहीं किया गया. जबकि सारे उत्पादों में ऊर्जा एक बहुत बड़ा इनपुट है और वैल्यू चेन का महत्वपूर्ण भाग है.
प्रक्रिया के हिसाब से सीधे उपभोक्ताओं से जुड़े हुए और व्यापार श्रृंखला की आखिरी कड़ी के तौर पर काम करने वाले लाखों-करोड़ों खुदरा कारोबारियों और दुकानदारों को जीएसटी के लिए तैयार न करके, सरकार ने एक बड़ी गलती की है.
आखिर इसी वजह से तो जीएसटी को एक उपभोग कर कहा जाता है. जीएसटी की कामयाबी इस बात पर निर्भर करेगी कि ये खुदरा कारोबारी जीएसटी के बारे में कितने जागरूक हैं, कितने शिक्षित हैं और जीएसटी तंत्र में कितने दक्ष हैं.
जीएसटी सही तरह से काम करे और इसके तहत कम करों का फायदा निचले स्तर पर खड़े साधारण उपभोक्ताओं तक पहुंचे, यह सुनिश्चित करने का काम आखिरकार खुदरा कारोबारी ही करेंगे और इस तरह महंगाई को काबू में रखेंगे.
केंद्र छोटी और मध्यम अवधि में महंगाई के बढ़ने को लेकर चिंतित है.
राजस्व सचिव हसमुख अधिया ने हाल ही में कहा कि सरकार जीएसटी मे शामिल मुनाफाखोरी विरोधी कानून को उन कारोबारियों को दंडित करने के लिए सख्ती से लागू करेगी, जो कम करों या उच्च लागत क्रेडिट (लागत के ज्यादा होने के कारण मिलने वाला लाभ) का फायदा साधारण उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंचाएंगे.
खुदरा व्यापार एसोसिएशनों ने यह मांग रखी है कि जब तक वे जीएसटी को पूरी तरह से समझ नहीं जाएं और इसमें उनका हाथ पूरी तरह से साफ़ न हो जाए, तब तक सजा वाले प्रावधानों को लागू न किया जाए.
निश्चित तौर पर आनेवाले समय में केंद्र और राज्य सरकारें एक बड़ी चुनौती का सामना करने वाली हैं.
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