इन दिनों कहा जा रहा है- हाथ धोएं, घरों तक सीमित रहें, सामाजिक दूरी बनाए रखें. यह सारे कदम ज़रूरी हैं, मगर सरकार की अपनी ज़िम्मेदारी का क्या? मिसाल के तौर पर अगर स्वास्थ्य प्रणाली मज़बूत नहीं रखी तो फिर तमाम ध्यान रखने के बावजूद जिन्हें संक्रमण हो जाएं उनके बड़े हिस्से के लिए मरने के अलावा कोई चारा नहीं है.
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कई बार ऐसे दृश्य, ऐसी तस्वीरें खींचे जाते वक्त़ ही कालजयी बने रहने का संकेत देती हैं. वह एक ऐसी ही तस्वीर थी. मिलान, जो इटली के संपन्न उत्तरी हिस्से का मशहूर शहर है, वहां अपने डॉक्टरी यूनिफॉर्म पहनी एक टीम मालपेन्सा एयरपोर्ट पर उतर रही थी और मिलान के उस प्रसिद्ध एयरपोर्ट में जमे तमाम लोग खड़े होकर उनका अभिवादन कर रहे थे. (18 मार्च 2020)
यह क्यूबा के डॉक्टर तथा स्वास्थ्य पेशेवर थे जो इटली सरकार के निमंत्रण पर वहां पहुंचे थे. एयरपोर्ट में खड़े लोगों में चंद श्रद्धालु ऐसे भी थे, जिन्होंने अपने सीने पर क्रॉस बनाया, अपने भगवान को याद किया क्योंकि उनके हिसाब से क्यूबा के यह डॉक्टर किसी ‘फरिश्ते’ से कम नहीं थे.
मिलान वही इलाका है जो कोरोना से बुरी तरह प्रभावित इटली के लोम्बार्डी क्षेत्र में स्थित है. दुनिया की सातवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था कही जाने वाली इटली – जिसकी स्वास्थ्य सेवाओं की दुनिया में काफी बेहतर मानी जाती हैं, कोरोना के चलते मरने वालों की तादाद वहां 9,000 पार कर गयी है. ( 28 मार्च 2020)
क्यूबा की यह अंतरराष्ट्र्रीयतावादी पहल इस मायने में भी मायने रखती है कि इटली उन मुल्कों में शुमार रहा है जिसने क्यूबा पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने में हमेशा अमेरिका का साथ दिया है.
और यह कोई पहली टीम नहीं है जो क्यूबा से दूसरे मुल्कों में रवाना हुई है. इसके पहले कोरोना से जूझने के लिए क्यूबा की टीमें पांच अलग अलग मुल्कों में भेजी गयी है: वेनेजुएला, जमैका, ग्रेनाडा, सूरीनाम और निकारागुआ.
एक ऐसे समय में जब विकसित कहे जाने वाले मुल्कों में कोरोना नामक फिलवक्त़ असाध्य लगने वाली बीमारी से मरने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है, अस्पतालों से महज मरीजों की ही नहीं बल्कि डॉक्टरों एव स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की मरने की ख़बरें आना अब अपवाद नहीं रहा, इस छोटे-से एक करोड़ आबादी के इस मुल्क ने अपनी दखल से जबरदस्त छाप छोड़ी है.
आलम यह है कि कोरोना के चलते उपजे वैश्विक संकट से जूझने की अग्रणी कतारों में क्यूबा दिख रहा है. यह वही क्यूबा है जिस पर अमेरिका की तरफ से पचास साल से अधिक समय से आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए हैं और अमेरिका की इस अन्यायपूर्ण हरकत का तमाम पूंजीवादी मुल्कों ने साथ दिया है.
हमें नहीं भूलना चाहिए कि इन प्रतिबंधों को संयुक्त राष्ट्र संघ की तरफ से गैरकानूनी घोषित किया गया है और क्यूबा का आकलन है कि सदियों से चले आ रहे इन प्रतिबंधों ने उसे 750 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है.
सोवियत संघ के विघटन के बाद वहां आर्थिक स्थिति पर काफी विपरीत असर पड़ा है. गौरतलब है कि क्यूबा में लोगों की औसतन उम्र 78 साल के करीब पड़ती है जो संयुक्त राज्य अमेरिका के बराबर है और अगर प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर खर्चे को देखें तो वहां अमेरिका की तुलना में महज 4 फीसदी खर्च होता है.
कहने का तात्पर्य कि चाहे निजी बीमा कंपनियां हों, गैरजरूरी इलाज हो, बीमारियों का निर्माण हों या अस्पताल में अधिक समय तक भर्ती रखकर होने वाले छूत के नए संक्रमण हो, अमेरिका में मरीजों का खूब दोहन होता है.
वहां स्वास्थ्य रक्षा का फोकस बीमारी केंद्रित है वहीं क्यूबा में वह निवारण केंद्रित है.
मालूम हो कि चीन में कोरोना से मरनेवाले मरीजों में तेजी से कमी आयी है जिसमें एक महत्वपूर्ण कारक के तौर पर क्यूबा द्वारा विकसित एंटीवायरल ड्रग अल्फा 2 बी का उल्लेख करना जरूरी है.
यह दवाई वर्ष 2003 से चीन में निर्मित हो रही है जहां क्यूबा सरकार की मिल्कियत वाली फार्मास्युटिकल कंपनी के साथ मिलकर यह उत्पादन हो रहा है. इसे इंटरफेरॉन कहते हैं जो एक तरह से प्रोटीन्स होते हैं जो मनुष्य की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं.
शायद ‘मुनाफे के लिए दवाईयां’ के सिद्धांत पर चलने वाले मौजूदा मॉडल में ऐसी कामयाबियों पर गौर करने की फुर्सत नहीं है. क्यूबा ने इस दवा को डेंगू जैसी बीमारी से लड़ने में बेहद प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया है.
आखिर क्यूबा इस स्थिति में कैसे पहुंचा यह लंबे अध्ययन का विषय है. फिलवक्त़ इतना ही बताना काफी रहेगा कि क्यूबा की सार्वभौमिक स्वास्थ्य प्रणाली, जिस ‘चमत्कार’ को लेकर पश्चिमी जगत के तमाम विद्वानों ने कई किताबें भी लिखी हैं और बीबीसी जैसे अग्रणी चैनलों ने उस पर विशेष डॉक्युमेंट्री भी तैयार की है.
अपनी चर्चित किताब ‘सोशल रिलेशंस एंड द क्यूबन हेल्थ मिरैकल’ (2010) में एलिजाबेथ काथ बताती हैं कि ‘क्यूबा में स्वास्थ्य नीति पर अमल में व्यापक स्तर पर लोकप्रिय सहभागिता और सहयोग दिखता है, जिसे सार्वजनिक स्वास्थ्य को वरीयता देने की सरकार की दूरगामी नीति के तहत हासिल किया गया है. सरकार का इतना राजनीतिक प्रभाव भी है कि वह शेष जनता को इसके लिए प्रेरित कर सके.’
व्यापक इंसानियत के प्रति क्यूबाई जनता के सरोकार की एक ताज़ी मिसाल मार्च महीने के मध्य में समूची दुनिया के मीडिया में आयी जब उसने ब्रिटेन के ऐसे जहाज को अपने यहां उतरने की अनुमति दी, जिस जहाज पर सवार कई यात्राी कोविड-19 बीमारी का शिकार हुए थे और कैरेबियन समुद्र में वह जहाज महज पानी में तैर रहा था.
यह ख़बर मिलने पर कि उसमें सवार यात्राी कोविड-19 का शिकार हुए हैं, किसी मुल्क ने उन्हें अपने यहां उतरने की अनुमति नहीं दी थी.
क्यूबाई इंकलाब के महान नेता चे ग्वेरा- जो 1967 में सीआईए के गुर्गों के हाथों शहीद हुए थे- ने अपनी जनता को लिखे अंतिम पत्र में लिखा था ‘अनटिल विक्टरी, ऑलवेज’ (विजयी होने तक हमेशा). क्यूबा की जनता आज भी उनके संदेश को दिलों में संजोए है.
निश्चित ही कोरोना का कहर अभी जारी है और जैसा कि जानकार बता रहे हैं कि आने वाला समय समूची विश्व की मानवता के लिए जबरदस्त चुनौतियों का समय है, कितने लोग इसमें कालकवलित होंगे और कितने बच निकलेंगे इसका अनुमान लगाना संभव नहीं.
लेकिन एक बात तो तय है कि आपदा के ऐसे समय में लोगों/मुल्कों की खुदगर्जी और निस्वार्थी भाव ही सामने नहीं आ रहा बल्कि इस आपदा का लाभ उठाने में कॉरपोरेट सम्राटों की क्या कारगुजारियां चल रही हैं, वह भी साफ दिख रहा है.
आपदा का समय मनुष्य के एक और पहलू को बखूबी उजागर करता है, जिसे उसका अहमकपना भी कह सकते हैं.
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ताली बजाओ ! कोरोना भगाओ !!
‘जस्ट हाउ स्टुपिड आर वी? फेसिंग द ट्रुथ अबाउट अमेरिकन वोटर’ (हम लोग कितने जड़बुद्धि हैं? अमेरिकी मतदाता की सच्चाई से रूबरू)
21वीं सदी की पहली दहाई के अंत में इतिहासकार रिंक शेन्कमॅन की आयी किताब में अमेरिकी मतदाता की जड़बुद्धि/प्रतिभा की पड़ताल की थी.
यूएस न्यूज को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने स्पष्ट किया था कि वह आखिर यह पड़ताल करने के लिए क्यों प्रेरित हुए और ‘दुनिया के सबसे ताकतवर जनतंत्र का दिशा-निर्देशन करने के लिए अमेरिकी कितने कम तैयार हैं?’
दक्षिण एशिया के इस हिस्से में रहने वाले लोगों के बारे में, खासकर हम भारतीयों के बारे में ऐसा कोई अध्ययन हुआ हो, जो हमारी अपनी ‘जड़बुद्धि’ की पड़ताल करता हो, ऐसी जानकारी नहीं है.
वैसे यह अलग बात है कि यहां दैनंदिन जीवन में इतना कुछ होता रहता है कि ऐसा प्रतीत होता है कि यहां ऐसे पड़ताल की पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है.
खतरनाक कोविड-19 वायरस – और उससे उत्पन्न परिस्थिति – जिसने फिलवक्त़ समूची दुनिया में हलचल मचा दी है, उसने हमें एक अवसर प्रदान किया है हम आम समयों में भारतीयों द्वारा प्रकट किए जाने वाले विवेक की चर्चा करें.
मीडिया में यह ख़बरें भी आयी है कि किस तरह एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री अपने सहयोगियों के साथ बाकायदा एक मंत्र दोहरा रहे हैं जिसमें कोरोना को ‘जाने के लिए’ – गो कोरोना, कोरोना गो – कहा जा रहा है.
या किस तरह एक हिंदुत्ववादी संगठन की तरफ से कोरोना वायरस से ‘मुक्ति पाने’ के लिए गोमूत्र पार्टी का आयोजन किया गया था.
मालूम हो कि अभी तक इस बीमारी का कोई इलाज उपलब्ध नहीं है जिसके चलते पूरी दुनिया में 16,000 से अधिक लोग मर गए हैं और लाखों लोग प्रभावित हैं.
इटली, जो विश्व की सातवें नंबर की अर्थव्यवस्था है, तथा जिसकी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था अच्छे में शुमार की जाती है, वह उस त्रसदी का प्रतीक बना है.
अगर हम विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी अपडेट को देखें तो पाते हैं कि जहां पहली कोविड-19 केस उजागर होने के बाद 1,00,000 केस तक पहुंचने में 67 दिन का वक्त़ लगा, वहीं अगला चक्र 11 दिन में तय हुआ तथा महज चार दिन में और एक लाख केस इसमें जुड़ गए.
किसी संभावित मरीज को या मरीज को अलग-थलग रखने के अलावा तथा उसे दवाई देते रहने का अलावा अन्य कोई तरीका मौजूद नहीं हैं, अधिक से अधिक उसके निवारण के लिए हम एक दूसरे से शारीरिक दूरी बनाए रख सकते हैं.
इस विकसित होते घटनाक्रम को देखते हुए यह देखना अकल्पनीय था कि भारत के लोगों ने 22 मार्च को- जिस दिन प्रधानमंत्री के आह्वान पर जनता कर्फ्यू का पालन किया गया था, जिसका मकसद था कोरोना के इलाज में लगे डॉक्टरों एवं स्वास्थ्यकर्मियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाए- क्या किया ?
सबसे अहम बात थी कि उस पूरे दिन गोया फेक न्यूज और अफवाहों की बहार आयी थी – जिसकी अगुआई निश्चित ही दक्षिणपंथ से जुड़े आईटी सेल कर रहे थे.
यह कहा जा रहा था कि किस तरह ‘तालियां पीटने से वायरस मर जाता है’ या किस तरह दिन भर का ‘जनता कर्फ्यू’ वायरस के विस्तार की श्रृंखला को तोड़ देगा.
इस बकवास का सिलसिला- जिसे ‘भक्तगणों’ की तरफ से खूब आगे बढ़ाया जा रहा था, इस कदर आगे बढ़ा कि सरकार की संस्था प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो को आगे आकर यह सफाई देनी पड़ी कि तालियों के स्पंदन से कोई वायरस नहीं मरता है.
NO ! The vibration generated by clapping together will NOT destroy #Coronavirus infection#PIBFactCheck: The #JantaCurfew clapping initiative at 5pm is to express gratitude towards the Emergency staff working selflessly to counter #coronavirusinindia #Covid19India pic.twitter.com/WHfK4guxys
— PIB Fact Check (@PIBFactCheck) March 22, 2020
दूसरे कोरोना वायरस से लड़ने के अपने उत्साह और उन्माद को प्रदर्शित करते हुए लोग ठीक शाम बजे देश के अलग-अलग हिस्सों में जुलूसों में निकले और इस तरह उन्होंने वायरस के निवारण की प्रारंभिक कदम के तौर पर रेखांकित सामाजिक दूरी के विचार को सिर के बल ला खड़ा किया.
उन्होंने नारे लगाए, बर्तन पीटे और पारंपरिक वाद्य बजाए’और कोरोना को जाने का आह्वान किया. यह सिलसिला पूरे मुल्क में चला.
आखिर ऐसे ‘कोरोना उत्सव’ को (जैसा कि एक पढ़ी-लिखी महिला ने 22 मार्च की शाम को अपनी तस्वीरें फेसबुक पर साझा करते लिखा था) कैसे समझा जाए जबकि हक़ीकत यही है जानकारों का यह कहना है कि ‘भारत आने वाले समय में कोरोना वायरस का हॉट स्पॉट बनने वाला है और सबसे खराब स्थिति यही होगी कि भारत की लगभग 60 फीसदी आबादी उससे संक्रमित होगी.
एक बात तो तय है कि भारतीय अपने बारे में जो दावे करते हैं और जमीन पर जो वास्तविक हालत हैं उसमें गहरा अंतराल है.
भारत का संविधान जो दुनिया में अपने किस्म का अनोखा है, जिसमें ‘वैज्ञानिक चिंतन विकसित करने, अनुसंधान-खोज सुधार की प्रवृत्ति को विकसित करना’ नागरिकों के कर्तव्यों में शुमार किया गया है.(धारा 51 ए)
लेकिन हक़ीकत यही है कि आज़ाद भारत की सत्तर साल से अधिक की यात्रा के बाद, यही उजागर होता है कि इस विचार की स्वीकार्यता बेहद सतही है.
भारतीय जनता का विशाल बहुमत अभी भी सभी किस्म की अतार्किक, अवैज्ञानिक चीजों और परिघटनाओं पर यकीन करता है और जिनमें पढ़े-लिखे अग्रणी हैं.
क्या यह कहा जा सकता है कि भारतीय (खासकर मुखर तबके से संबद्ध) लोग) किसी किस्म की ‘आभासी श्रेष्ठताबोध के संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह’ (cognitive bias of illusory superiority) से ग्रसित हैं’ जो इस बात से संबंधित है कि ‘अपनी क्षमता की कमी को पहचानने में भी वह अक्षम हैं.’
इस परिघटना की चर्चा सामाजिक मनोविज्ञानी डेविड डनिंग और जस्टिन क्रूगर करते हैं. उनके मुताबिक आभासी श्रेष्ठताबोध का संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह दरअसल कम क्षमतावाले लोगों के आंतरिक भ्रम और उच्च क्षमता वाले लोगों को लेकर बाह्य गलत धारणा से उपजता है.
(The miscalibration of the incompetent stems from an error about the self, whereas the miscalibration of the highly competent stems from an error about others.)
निश्चित ही एक ऐसे मुल्क और उसकी अवाम के लिए जो अपने आप को ‘विश्व गुरू’ समझती है और ऐसा दावा भी करती है, यह प्रश्न ही अपने आप में कुफ्र समझा जा सकता है.
अमेरिकन थिंक टैंक, प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा वैश्विक रुखों के सर्वेक्षण (2007) के नतीजे इस मामले में गौर करने वाले हैं जिसके मुताबिक किस तरह भारतीय अपने आप को ‘दुनिया में नंबर’ 1 मानते हैं. (The God Market- How globalisation is making India more Hindu, Page 145, Random House 2009)
इस सर्वेक्षण में 47 देशों के लोगों से पूछा गया था कि क्या वह इस बात से सहमत या असहमत हैं: ‘हमारे लोग सर्वोत्कृष्ट नहीं हैं, लेकिन हमारी संस्कृति अन्यों से बेहतर है.’
इस बात को रेखांकित किया जा सकता है कि भारतीय इस फेहरिस्त में अव्वल थे. लगभग 93 फीसदी ने इस बात को स्वीकारा कि हमारी संस्कृति बाकियों से श्रेष्ठ है, जिनमें से 64 फीसदी लोगों ने इस मामले में कोई किंतु- परंतु भी नहीं कहा.
भारत के 93 फीसदी की तुलना में 69 फीसदी जापानी, 71 फीसदी चीनी और 51 फीसदी अमेरिकी अपनी संस्कृति के श्रेष्ठ होने की बात को मानते थे.
इस बात को दोहराना जरूरी है कि इस क्षेत्र में हिंदुत्व वर्चस्ववाद के उभार के बाद अपनी ‘श्रेष्ठता’ की इस भावना को नया बल मिला है. यह एक ऐसी हक़ीकत है कि जिसे हिंदुत्व वर्चस्ववाद के हिमायतियों ने बखूबी इस्तेमाल किया है.
आपदा कॉरपोरेट क्षेत्र की मुनाफे की लूट के सिद्धांत को भी केंद्र में ला रख देती है और बताती है कि जनता का स्वास्थ्य उन थैलीशाहों के लिए वाकई में क्या मायने रखता है.
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‘वांछित मौतें, घातक उपेक्षा’
‘बेला चाओ ! बेला चाओ !!
वह गीत जो कभी 19 वीं सदी की इटली के कामगार औरतों (धान बीनने वाली) के संघर्षों में जन्मा था और जो बाद में वहां के फासीवाद विरोधी संघर्ष का अपना समूहगान बना, वह पिछले दिनों रोम की सड़कों पर गूंजता दिखा.
गौरतलब था कि कहीं कोई लोग एकत्रित नहीं थे अलबत्ता आप उनके घरों की खिड़कियों से या उनकी बालकनियों से उनकी आवाज़ सुन सकते थे.
एक ऐसे समय में जब पूरा मुल्क – जो दुनिया की सातवीं बड़ी अर्थव्यवस्था है – अपने घरों में ‘कैद’ है, लोग अपने अपने घरों तक सीमित है और कोरोना के चलते मरने वालों की तादाद कई हजार हो चुकी है, अपने-अपने घरों से एक ही समय में किया गया यह समूहगान एक तरह से उनका अपना तरीका था कि दुख की इस घड़ी में खुशी के चंद पल ढूंढने का और अपने आप को उत्साहित रखने का तथा एक दूसरे के प्रति एकजुटता प्रदर्शित करने का.
जैसे-जैसे दुनिया अपनी सांस रोके इस महामारी के फैलाव को देख रही है और गौर कर रही है कि किस तरह सरकारों एवं नगर पालिकाओं और निगमों को इसे रोकने के लिए अभूतपूर्व कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है, परस्पर एकजुटता और उम्मीद की ऐसी तमाम कहानियां दुनिया के अलग अलग हिस्सों से ही आ रही है.
निराशा के इन लम्हों में ही यह जानना सुखद था कि क्यूबा और चीन के डॉक्टर तथा पैरामेडिक्स की एक टीम इटली पहुंची है और वहां स्वास्थ्य महकमे को मदद पहुंचा रही है.
अगर हम अपने मुल्क को देखें तो यहां कोरोना नियंत्रण में सूबा केरल की हुकूमत की कोशिशें और किस तरह जनता भी इन कोशिशों से जुड़ी है, इसे काफी सराहना मिली है.
देखने में यह आया है कि न केवल यहां के स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस खतरे को पहले भांपा और ऐसे कदम बढ़ाये ताकि प्रभावित इलाकों से – मुख्यतः वुहान – आने वाले लोगों को क्वारंन्टाइन करने अर्थात अलग रखने के लिए कदम उठाये.
ऐसे मामलों में जहां ऐसे यात्राियों के संपर्क में उनके परिवार वाले भी आए थे, तो उन्हें भी सुरक्षित अलग रखने का इंतजाम किया.
‘द टेलीग्राफ’ की ख़बर थी कि किस तरह केरल सरकार के साथ काम करनेवाले डॉक्टर अपनी ‘श्मशान शिफ्ट’ भी कर रहे हैं अर्थात ‘मृतक के शरीर की जांच के लिए श्मशान ग्रहों का भी दौरा कर रहे हैं).
जनता को राहत पहुंचाने में किस तरह सरकारी मुलाजिम भी जुटे हैं इसे उजागर करने वाली एक तस्वीर भी काफी वायरल हुई है जिसमें आंगनबाड़ी में कार्यरत एक महिला एक बच्चे के घर पहुंची है ताकि मिड डे मील का पैकेज उसे दिया जाए.
दरअसल कोरोना के चलते केरल सरकार ने तमाम स्कूल और आंगनबाड़ियां बंद की हैं और कर्मचारियों को निर्देश दिया है कि वह बच्चों के घरों पर मिड डे मील पैकेज पहुंचाये.
हम यह भी देख रहे हैं कि इस महामारी ने – बकौल टेडरॉस अधानोम, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक हैं – दुनिया की तमाम राजधानियों में व्याप्त ‘नैतिक क्षय’ (Moral Decay) को भी उजागर किया है.
महानिदेशक महोदय इस स्थिति को देख कर विचलित थे कि इस महामारी के रोकथाम के लिए कोई गंभीर प्रयास करने के काम से किस तरह इन तमाम सरकारों ने इनकार किया है.
विकसित दुनिया के इन अग्रणियों के इस लापरवाही भरे रवैये को देखते हुए, जहां वह लोगों के स्वास्थ्य के बनिस्बत कॉरपोरेट क्षेत्र के मुनाफे को लेकर चिंतित दिखे, उन्हें यह याद दिलाना पड़ा कि मानवीय जीवन हमारे लिए कितना अनमोल है.
राष्ट्रपति ट्रंप, जो दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के कर्णधार हैं, दरअसल जनता के स्वास्थ्य के प्रति इस आपराधिक लापरवाही तथा कॉरपोरेट मुनाफे की अधिक चिंता के प्रतीक के तौर पर सामने आए हैं.
उनकी यह बेरूखी तबभी बरकरार रही जब अमेरिकी सरकार के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एलर्जी और संक्रामक रोगों के संस्थान के निदेशक एंथनी फौसी ने यह ऐलान किया कि यह ‘मुमकिन’ है कि इस महामारी से अमेरिका के लाखों लोग कालकवलित हो सकते हैं.
देश के नाम उन्होंने दिए संबोधन में (12 मार्च) लोगों को यह उम्मीद थी कि वह इस बीमारी की रोकथाम के लिए कदमों का ऐलान करेंगे- जैसे अस्पतालों के विस्तार के लिए या जांच के लिए उपलब्ध संसाधनों को बढ़ाने या अग्रणी चिकित्सा कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए सबसे बुनियादी सुरक्षात्मक उपकरण प्रदान करने के लिए सुविधाएं देना- मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.
उन्होंने ऐलान किया कि वह बिजनेस के लिए 50 बिलियन डॉलर का कर्जा दे रहे हैं- ताकि कोरोना के चलते उत्पन्न आर्थिक संकट से वह निजात पा लें- और अमेरिकी कांग्रेस से यह अपील की कि वह कॉरपोरेट के पक्ष में कर कटौती का ऐलान करे.
यह भी देखने में आ रहा है विकसित पूंजीवादी दुनिया के अन्य नेताओं की भी इस मामले में प्रतिक्रिया कोई खास भिन्न नहीं है.
सर पैटरिपक वालेन्स, जो जॉन्सन के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार हैं, उन्होंने एक तरह से ब्रिटिश सरकार के मन में क्या चल रहा है इसे जुबां दी, जब उन्होंने जोर दिया कि ‘ब्रिटिश हुकूमत को चाहिए कि वह इसके लिए अधिक कोशिश न करे कि कोरोना वायरस लोगों में संक्रमित हो: यह संभव भी नहीं है और वांछनीय भी नहीं.’
ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अख़बार द टेलीग्राफ के मशहूर स्तंभकार ने गोया सत्ताधारी तबके के सरोकारों को प्रकट किया जब उन्होंने खुलकर लिखा ‘कोविड-19 दूरगामी तौर पर लाभप्रद भी हो सकता है कि वह निर्भर बुजुर्गों को अधिक प्रभावित करे.’
चाहे डोनाल्ड ट्रंप हों, बोरिस जॉनसन हों या पूंजीवादी जगत के तमाम कर्णधार हों, इस महामारी ने इस हक़ीकत को और उजागर किया है कि मितव्ययिता की नीतियां- जिसका मतलब स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य अवरचनाओं पर सार्वजनिक खर्चों में कटौती- जो अलग-अलग मुल्कों में अलग-अलग स्तरों पर मौजूद हैं उनका जनता के स्वास्थ्य पर बेहद विपरीत प्रभाव पड़ने वाला है.
नेशनल हेल्थ सर्विस – वह मॉडल जिसे ब्रिटिश सरकार ने अपनाया वह ऐसा संकट है जो इन विभिन्न मुल्कों में हावी होता दिख रहा है.
मुनाफा आधारित मौजूदा प्रणाली की संरचनात्मक सीमाएं- जिसे आम भाषा में पूंजीवाद कहा जाता है- वह भी ऐसी घड़ी में बेपर्द हो रही हैं कि ऐसी कोई महामारी को नियंत्रित करने के लिए कोई दूरगामी योजना वह बना नहीं सकती.
यह आम जानकारी है कि ऐसे किसी वायरस के भविष्य में प्रकोप को नियंत्रित रखने का सबसे महत्वपूर्ण उपाय वैक्सीन ही हो सकते हैं. आज जबकि कोरोना सुर्खियों में है, विगत दो दशकों में हम ऐसे वायरसों से कई प्रकोपों से हम गुजरे हैं – फिर वह चाहे सार्स हो, मेर्स हो, जीका हो या इबोला हो.
ऐसे प्रकोपों से अनुसंधानकर्ताओं को इनके वैक्सीन बनाने के लिए प्रेरित भी किया मगर इबोला को छोड़ कर कहीं भी सफलता हाथ नहीं लगी है. इसका कारण समझना कोई मुश्किल नहीं है जिसे ‘द गार्डियन’ ने स्पष्ट किया है:
मौजूदा ढांचे में दोनों दुनिया की सबसे ख़राब बातें मौजूद हैं – वह नये ख़तरों को लेकर अनुसंधान शुरू करने में बेहद ढीली दिखती है क्योंकि पैसे ही नहीं हैं और उसे तुरंत छोड़ देने में भी माहिर है जब उसे पता चलता है कि भविष्य में इसके लिए पैसे नहीं होंगे.
यह बाज़ार आधारित प्रणाली है और बाज़ार हमेशा ही हमसे धोखा करता रहा है.
सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की बढ़ती असफलता और एक ऐसा राज्य जिसे जनता के स्वास्थ्य की तुलना में कॉरपोरेट के मुनाफों की चिंता है, ऐसी पृष्ठभूमि में ऐसी महामारी जैसी स्थिति सरकारों के कर्णधारों के लिए तमाम जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ देने का बहाना बनती है और वह व्यक्तिगत नागरिक पर ही सारी जिम्मेदारी डालकर मुक्त हो जाते हैं, जैसा कि इन दिनों कहा जा रहा है- नियमित हाथ धोएं, घरों तक सीमित रहें, सामाजिक दूरी बनाए रखें.
निश्चित ही यह सारे कदम जरूरी हैं, मगर सरकार की अपनी जिम्मेदारी का क्या? मिसाल के तौर पर अगर स्वास्थ्य प्रणाली मजबूत नहीं रखी तो फिर तमाम ध्यान रखने के बावजूद जिन्हें संक्रमण हो जाएं उनके बड़े हिस्से के लिए मरने के अलावा कोई चारा नहीं है.
हर महामारी या आपदा की जिम्मेदारी नागरिक पर डालने की बात गोया ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर के उस कथन की ही पुष्टि करती है कि ‘अब कोई समाज नहीं है, अब महज व्यक्तिगत पुरूष और स्त्रियां हैं, और परिवार हैं. और कोई भी सरकार उसके लोगों के बिना कुछ भी नहीं कर सकती और लोगों को तो सबसे पहले अपना ध्यान रखना होता है.’
यह वही थैचर थी जिन्हें पश्चिमी जगत में इस बात के लिए नवाज़ा जाता हैं कि उन्होंने राष्ट्रीकृत उद्योगों के निजीकरण का रास्ता सुगम किया और कल्याणकारी राज्य को सीमित करती गयीं- जिसका मतलब था चाहे शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक अवरचनागत उद्योगों से राज्य की विदाई औेर मुनाफा कमाने को केंद्र में रखना.
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)