अस्सी के दशक में अशांति से निपटने के लिए ज्योति बसु सरकार ने दार्जिलिंग की पहाड़ियों को अर्धसैनिक बलों से पाट दिया था. सैन्य बलों की उपस्थिति ने स्थानीय लोगों में सिर्फ दहशत फैलाने का काम किया.
दार्जिलिंग की पहाड़ियों में छाई अशांति पश्चिम बंगाल के आम नागरिकों और शायद राज्य सरकार के लिए भी एक झटके की तरह है. शायद गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) को भी गोरखालैंड की मांग को मिले व्यापक जन समर्थन से आश्चर्य हुआ हो.
राजनीति का यह स्वभाव है कि हम स्थिति को जितना शांतिपूर्ण मानते हैं, स्थितियां उतनी ज़्यादा बेचैनी और विवाद को अपने भीतर छिपाए रहती हैं.
सड़क की संघर्षपूर्ण राजनीति से उठकर आने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी यह बात बख़ूबी जानती हैं. लेकिन सत्ता, शासक को थपकियां देकर सुला देती है और ख़तरनाक ढंग से हैरान करना राजनीति की आदत है.
18 जुलाई, 2011 को जीजेएम, पश्चिम बंगाल और केंद्र सरकार के साथ तीन-तरफ़ा समझौते के तहत दार्जिलिंग पहाड़ियों में गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन (गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन या जीटीए) का गठन किया गया था.
पश्चिम बंगाल के एक राज्य अधिनियम के सहारे जीटीए ने अगस्त, 2012 में दार्जिलिंग गोरखा हिल्स काउंसिल का स्थान लिया. यह एक राजनीतिक प्रक्रिया थी, जिसकी कामयाबी के लिए सरकार और गोरखा राजनीतिक आंदोलन, दोनों को स्वायत्तता के सिद्धांत के प्रति सम्मान और दूरदर्शिता प्रदर्शित करने की ज़रूरत थी.
फिर भी, इसमें आश्चर्य नहीं कि कुछ सालों के भीतर ही सरकार और जीजेएम एक बार फिर संघर्ष में आमने-सामने हैं.
चाहे कश्मीर हो या नगालैंड, कई उदाहरण हमें बताते हैं कि स्वायत्तता के सिद्धांत में स्थायित्व, स्थिरता या पवित्रता जैसी कोई चीज़ नहीं है.
इसमें काफी कुछ स्वायत्तता के समझौते के घोषित प्रावधानों से बाहर होता है, जिसकी निगरानी के लिए अक्सर न तो कायदे की कोई व्यवस्था होती है, न ही कोई समझौते की रखवाली करने वाला होता है. दार्जिलिंग की पहाड़ियों में विवाद के शुरू होने में कोई वक़्त नहीं लगा.
जीजेएम, जीटीए के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाना चाहता था, साथ ही वह ज़्यादा पैसा, ज़्यादा शक्ति और पहाड़ियों पर इस सीमा तक नियंत्रण चाहता था ताकि वह दूसरों पर अंकुश लगा सके और उन्हें बलपूर्वक अपने अधीन ला सके.
दूसरी ओर सरकार जवाबदेही की गारंटी चाहती थी और जीजेएम और जीटीए के दुआर क्षेत्रों के मैदानों और यहां तक कि पहाड़ियों में बढ़ रहे प्रभाव पर भी लगाम लगाना चाहती थी. इस दौरान जीजेएम ने हड़तालों और आंदोलन के दूसरे तरीकों की घोषणा की, लेकिन सरकार इन्हें किसी तरह असफल करने या रोकने में कामयाब रही.
जैसी राजनीतिक स्थिति बन रही थी, उससे जीजेएम का आधार खिसकता हुआ दिखाई दे रहा था, क्योंकि सरकार ने पहाड़ियों में लेपचा जैसे विभिन्न अल्पसंख्यक समूहों के लिए विकास बोर्डों के गठन की नीति अपनाई, जिसका जीजेएम ने विरोध किया.
इसे दार्जिलिंग के लोगों को जातीय आधार पर बांटने की कोशिश के तौर पर देखा गया. ऐसा करते हुए जीजेएम ने यह बात सुविधाजनक ढंग से भुला दी कि गोरखा आंदोलन क्षेत्रीय स्वायत्तता के साथ-साथ एक जातीय आंदोलन भी था.
पहाड़ियों में सरकार की विकास नीतियों को जीटीए के कार्यों में हस्तक्षेप के तौर पर देखा गया. मुख्यमंत्री द्वारा दार्जिलिंग पहाड़ियों की लगातार यात्राओं को लेकर जीजेएम ने अपनी नाखुशी छिपाई नहीं थी.
जीजेएम ने यह आरोप भी लगाया कि मुख्यमंत्री यहां सिर्फ चिंगारी को हवा देने के लिए आती हैं. लेकिन सरकार ने इन संकेतों की ओर ध्यान नहीं दिया.
उसने कभी यह नहीं समझा कि शासक और जनता के बीच नज़दीकियां हमेशा अच्छी चीज़ नहीं होती और इससे जनता में डर भी पैदा हो सकता है.
भालू का गले लगना, मौत को गले लगाने के बराबर माना जा सकता है. कुछ भी हो, राजनीतिक प्रक्रिया ने नए झगड़ों को जन्म दिया. इसके बाद पहाड़ियों की राजनीति में कलह का बढ़ना लाज़मी था.
सरकार द्वारा पहाड़ियों में विकास बोर्डों की स्थापना की गई. कैलिम्पोंग को एक नया ज़िला बना दिया गया. सत्ताधारी दल तृणमूल कांग्रेस ने अपने कार्यालय खोले और इसने बाक़ायदा चुनावों में शामिल होना शुरू किया और मिरिक नगरपालिका सीट पर जीत भी दर्ज की.
इस बीच यह कैलिम्पोंग के पूर्व विधायक हरका बहादुर छेतरी जैसे जीजेएम के कुछ सक्रिय सदस्यों को तोड़ने में भी कामयाब रही. मध्यमार्गियों को हाशिये पर डाल दिया गया.
हालात ऐसे बन गए कि या तो आप जीजेएम में हो सकते थे या तृणमूल में. इस प्रक्रिया में बीच की ज़मीन दरक गई.
तृणमूल कांग्रेस और पश्चिम बंगाल की सरकार नगरपालिका चुनावों में बढ़े हुए मत-प्रतिशत से ही खुश थी. उसे इस बात का ख़्याल नहीं रहा कि विरोधी के ख़िलाफ़ लंबी लड़ाइयों में बीच की ज़मीन को संभाल कर रखना कितनी अहमियत रखता है.
इसका नतीजा यह हुआ कि लड़ाई की आग जब भड़क उठी तो इसकी लपटों को बुझाने के लिए बीच की कोई ज़मीन मौजूद नहीं थी. अपनी सफलताओं पर इतरा रही सरकार ने तय सीमाओं को लांघने का काम किया.
पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने तीन ग़ैरज़रूरी काम किए…
पहला: इसने अचानक यह घोषणा कर दी कि पश्चिम बंगाल की भाषा के तौर पर बंगाली को सभी स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य है.
दूसरा: इसने दार्जिलिंग में कैबिनेट बैठक करने का फैसला किया.
तीसरा: इसने जीटीए की स्पेशल ऑडिट का आदेश दिया.
गौरतलब है कि जीटीए का कार्यकाल जून में समाप्त हो रहा था और अगला चुनाव जुलाई में होना था. स्पेशल ऑडिट पहले कराया जा सकता था.
सच्चाई यह है कि पिछले पांच सालों से सरकार खामोश थी. जहां तक दूसरे क़दम का सवाल है, पूरी सरकार के दार्जिलिंग में डेरा डालने की कोई ज़रूरत नहीं थी.
ख़ासतौर पर विरोधी की नाराज़गी को देखते हुए. लेकिन वास्तव में पहला क़दम सबसे बड़ी चूक साबित हुई.
अगर बंगाली को एक वैकल्पिक भाषा (तीसरी या चैथी भाषा) बनाना था तो मुख्यमंत्री द्वारा अचानक इसे सभी स्कूलों में अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाने की घोषणा करने की कोई ज़रूरत नहीं थी.
आख़िर, यह सिर्फ़ नेपालीभाषी गोरखाओं से जुड़ा हुआ सवाल नहीं था, बल्कि यह सभी भाषाई अल्पसंख्यकों से जुड़ा सवाल था.
इसमें संथाल भी शामिल थे, जिन्होंने लंबा संघर्ष करके संथाली भाषा और अल-चिकी लिपि में शिक्षा पाने का अधिकार हासिल किया है.
इस मामले में सतर्कता, राय-मशविरे और समझदारी दिखाने की ज़रूरत थी. दरअसल भाषाई नीति के मामले में हमेशा इसकी उम्मीद की जाती है.
सरकार कम से कम ऐसी नीति की घोषणा एक प्रशासनिक बैठक से करने से तो ज़रूर बच सकती थी. लेकिन सरकार ने इसकी गंभीरता पर कोई विचार किए बग़ैर बेहद लापरवाह तरीके से यह घोषणा कर दी.
जनकल्याणकारी योजनाओं और विकास कार्यक्रमों को अमलीजामा पहनाने में लगी कोई सरकार प्रशासन को माई-बाप सरकार की तरह चलाती हैं. संवाद या राय-मशविरा करना उसके स्वभाव में नहीं होता.
आदेश देना ही उनका स्टाइल बन जाता है. ज़िले की प्रशासनिक बैठकें साम्राज्यवादी अदालतों में बदल जाती हैं, जहां अधिकारियों की पेशी, सुनवाई और प्रशंसा की जाती है या उन्हें बर्ख़ास्त कर दिया जाता है.
यह स्टाइल एक सीमा तक ही प्रभावशाली है. ये बैठकें नीतियों की औचक घोषणा का मौका बन जाती हैं. शासन की इस शैली की सीमा जल्द ही प्रकट हो जाती है.
जब मुख्यमंत्री ने अचानक शांतिपूर्ण अकादमिक माहौल के लिए कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट पर रैलियों और प्रदर्शनों पर पाबंदी लगाने की घोषणा की थी तब भी दरअसल यही हुआ था.
ऐसे मसले पर जिससे आज़ादी की मांग का इतिहास जुड़ा हुआ है, यह क़दम दूसरे तरीके से भी उठाया जा सकता था.
यह फैसला आंशिक रूप में लिया जा सकता था और वह भी अकादमिक समुदाय से राय-मशविरे के बाद. संक्षेप में आदेशों के सहारे शासन चलाने का यह तरीका आज नहीं तो कल उलटा पड़ना ही था.
निश्चित तौर पर एक दिन पहाड़ियों में आया यह उबाल शांत पड़ जाएगा. मगर सवाल है, इसकी क्या कीमत चुकानी होगी? और इससे सरकार की वैधता और दार्जिलिंग की पहाड़ियों में राजनीति के लिए जगह को जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई कैसे होगी? क्या इस सबके बाद भी सरकार को संवाद पर आधारित शासन और एक बीच की ज़मीन को बचाए रखने का महत्व समझ में आया है?
अभी हर कोई बातचीत की ज़रूरत के बारे में बात कर रहा है. लेकिन सरकार के सामने सवाल है कि वह दार्जिलिंग की पहाड़ियों में विरोधी को बातचीत के लिए राजी कैसे करे?
इसके लिए सबसे पहले सरकार को न सिर्फ यह तय करना होगा कि वह बातचीत के रास्ते पर गंभीरता और ईमानदारी के साथ चलना चाहती है या नहीं, बल्कि उसे धीरे-धीरे स्थिति को सामान्य करने की कोशिश भी करनी होगी ताकि बातचीत का माहौल बन सके और विरोधी बातचीत से इनकार कर पाने की स्थिति में न रहे.
यह तय है कि बातचीत के रास्ते में पूर्वशर्तों की रुकावटें आएंगी, जो किसी भी शांति-वार्ता के लिए स्वाभाविक है. क्या सरकार पूर्वशर्त के तौर पर पहाड़ियों में जारी आम हड़ताल को वापस लेने की मांग करेगी? या फिर जीजेएम पुलिस बलों, ख़ासतौर पर केंद्रीय बलों को वापस हटाने की पूर्वशर्त रखेगा?
सरकार को मध्यस्थों की तलाश करनी पड़ेगी, जिनमें से ज़्यादातर संभवतः विरोधी पाले में चले गए हैं. कुछ भी हो, हालात को सामान्य बनाना अभी पहला काम है.
ऐसे हालातों में शांति बहाल करना और राजनीतिक प्रक्रिया को सामान्य बनाना किसी भी सरकार के लिए कहीं ज़्यादा मुश्किल होता है. पहल करने का ज़िम्मा सरकार पर है, क्योंकि सरकार ही राज्य की जनता का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है.
सरकार को अपनी गंवाई हुई वैधता फिर से हासिल करनी होगी. नागरिक अशांति के दूसरे मामलों से इस मामले की समानता चौंकाने वाली है. इन समानताओं को देखते हुए सरकार को विनम्र और समझदार बनना चाहिए, जैसा कि यासिर अराफात (नोबल पुरस्कार प्राप्त फिलिस्तीनी नेता) कहा करते थे, ‘शांति बहादुरों का काम है’.
दूसरी बात, अगर सरकार को यह लगता है कि ज़्यादा सशस्त्र बल तैनात करके वह इस गतिरोध को तोड़ पाएगी तो वह गलतफहमी में है.
उसे यह याद रखना चाहिए कि 1980 के दशक में अशांति से निपटने के लिए ज्योति बसु सरकार ने दार्जिलिंग की पहाड़ियों को अर्धसैनिक बलों से भर दिया था. लेकिन इसने वहां की आम जनता में शत्रुता का भाव ही पैदा किया.
सैन्य बलों की उपस्थिति ने सिर्फ स्थानीय लोगों में दहशत फैलाने का काम किया. उस वक़्त से ही वहां सरकार का इक़बाल लगातार गिरता गया.
आज भी पश्चिम बंगाल की सरकार अर्धसैनिक बलों और सेना की मदद और केंद्र सरकार के राजनीतिक सहयोग से मौजूदा गतिरोध से निकल सकती है.
मगर इससे वह भविष्य में केंद्र की संजीवनी पर निर्भर हो जाएगी. ज़ाहिर है इसके लिए उसे बहुत बड़ी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ेगी.
सबसे अहम बात ये है कि अगर सरकार पहाड़ियों में विरोधी के कठोर और आक्रामक रुख़ से मुकाबला करना चाहती है, तो उसे अनिवार्य तौर पर वहां बनाए गए अपने राजनीतिक जनाधार पर भरोसा करना होगा.
बशर्ते उसने वास्तव में वहां कोई जनाधार बनाया हो या वह जनाधार अब तक सुरक्षित हो. यहां तक कि सिलिगुड़ी में भी शांति के पक्ष में कोई लोकप्रिय गोलबंदी नहीं दिखाई देती.
शांति की ओर फिर से लौटने के लिए पुलिस, प्रशासनिक तरीकों और आदेशों के सहारे राज करने के तरीके को छोड़ना होगा और राजनीतिक गोलबंदी पर ज़्यादा भरोसा जताना होगा.
सरकार फिलहाल इन दोनों विकल्पों को दरकिनार कर रही है और इस उम्मीद में समय बिता रही है कि शायद सबसे ख़राब दौर पार हो चुका है.
हो सकता है सबसे बुरा दौर सचमुच बीत गया हो मगर एक सवाल को नहीं भुलाना चाहिए- आख़िर इसके लिए क्या कीमत चुकानी पड़ी? हमने क्या सबक लिया, ख़ासतौर पर सरकार ने क्या सबक लिया?
कभी-कभी लोकलुभावनवाद अच्छा होता है, मगर हमें इसकी सीमा से भी परिचित होना चाहिए. जब लोकलुभावनवाद को ज़रूरत से ज़्यादा खींच दिया जाता है और यह चालाकीभरा और दूरदर्शिता से खाली हो जाता है, तो प्रभावहीन हो जाता है. तब समाज के भीतर की दरारें साफ़-साफ़ दिखाई देने लगती हैं.
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