कोरोना वायरस चलते पूरे देश में लागू लॉकडाउन के बीच किसान रबी फसलों की बिक्री को लेकर चिंतित हैं. कई राज्यों में फसलें कट भी चुकी हैं. किसानों को उनके उत्पाद की ब्रिकी को लेकर सरकार से उचित घोषणा और प्रबंधन का इंतज़ार है.
नई दिल्ली: कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण और पूरे देश में लागू लॉकडाउन के बीच कृषि जगत रबी फसलों की बिक्री को लेकर चिंतित है. कई राज्यों में अधिकतर फसल कट चुकी है और किसानों को उनके उत्पाद की ब्रिकी को लेकर सरकार से उचित घोषणा और प्रबंधन का इंतजार है.
जाहिर है कि खरीदी के दौरान इस महामारी से किसी भी तरह का खतरा उत्पन्न की संभावनाओं को खत्म करने के लिए केंद्र एवं राज्यों की खरीद एजेंसियों को काफी विकेंद्रीकृत तरीका अपनाना पड़ेगा, जैसे कि गांव स्तर पर या कुछ गांवों के समूह स्तर पर खरीद केंद्र स्थापित कर खरीदी करनी होगी.
किसानों को लागत का उचित मूल्य दिलाने में खरीद केंद्र बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. हालांकि आधिकारिक आंकड़े दर्शाते हैं कि केंद्र एवं राज्य सरकारें खरीद केंद्रों को स्थापित करने और उसके सही तरीके से संचालन में प्रभावी नहीं रही हैं.
आलम ये है कि साल 2015-16 से साल 2019-20 के बीच देश में गेहूं के खरीद केंद्र करीब 25 फीसदी घट गए हैं, जबकि इस दौरान कृषि उत्पादन काफी बढ़ा है.
इस गिरावट की प्रमुख वजह बिहार राज्य रहा है. द वायर द्वारा भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक साल 2015-16 में गेहूं की खरीदी के लिए बिहार में 9,035 खरीद केंद्र लगाए गए थे, जो कि 2019-20 में 82 फीसदी से ज्यादा की कमी के साथ घटकर सिर्फ 1,619 हो गए.
इस बीच राज्य में 2016-17 में 7,457 केंद्र, 2017-18 में 6598 केंद्र और 2018-19 में 7,000 खरीद केंद्र गेहूं की खरीदी के लिए लगाए गए थे.
ऐसे केंद्रों की कमी के कारण बड़ी संख्या में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का लाभ नहीं मिल पाता है और इसके चलते बाजार में कृषि उत्पाद का मूल्य एमएसपी से काफी कम बना रहता है.
राज्य में खरीद केंद्र में कमी का प्रभाव गेहूं की खरीदी की स्थिति पर साफ तौर से देखा जा सकता है. पिछले पांच सालों में बिहार में कुल उत्पादन का एक फीसदी भी गेहूं की खरीदी नहीं हुई है.
पिछले साल बिहार में कुल उत्पादन का सिर्फ 0.05 फीसदी की खरीदी हुई थी. इससे पहले रबी खरीदी वर्ष 2018-19 में गेहूं की मात्र 0.29 फीसदी खरीदी हुई, जबकि पिछले साल देश में कुल गेहूं उत्पादन में 5.8 फीसदी हिस्सा बिहार का था.
भारत सरकार हर साल एक निश्चित समय के दौरान रबी और खरीफ की फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीदती है. इस खाद्यान्न का केंद्र की खाद्य सुरक्षा योजना, मिड-डे मील, पोषण कार्यक्रम इत्यादि के तहत वितरण किया जाता है.
इसमें से एक स्तर तक बफर स्टॉक भी रखा जाता है जिसका इस्तेमाल कोरोना वायरस जैसे किसी आपदा के समय लोगों को भोजन मुहैया कराने के लिए किया जाता है.
मुख्य रूप से दो तरीके से खरीदी की जाती है. पहला ये कि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) अपनी और राज्य एजेंसियों के जरिये सेंट्रल पूल के लिए खाद्यान्न खरीदती है.
दूसरा, विकेंद्रीकृत खरीद प्रणाली (डीसीपी) है, जिसके तहत राज्य में खाद्यान्न की खरीद, भंडारण और वितरण राज्य सरकारें खुद ही करती हैं और राज्य में चल रही कल्याणकारी योजनाओं के लिए खाद्यान्न का आवंटन करने के बाद जितना सरप्लस बच जाता है, उसे एफसीआई के सेंट्रल पूल में भेज दिया जाता है.
जब कभी राज्य के पास राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एक्ट के तहत जरूरी अनाज की कमी हो जाती है तो भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) अन्य राज्यों से खरीद कर इन जरूरतों को पूरा करता है.
इस समय देश के 17 राज्य डीसीपी के दायरे में हैं. बिहार ने 2013-14 के खरीफ सीजन से गेहूं और धान के लिए खरीद की विकेंद्रीकृत खरीद प्रणाली (डीसीपी) अपना ली थी, जिसके तहत राज्य में व्यापार मंडल और प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों (पैक्स) के जरिये खरीदी की जाती है.
हालांकि बिहार की स्थिति इतनी खराब रही है कि वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत बांटे जाने वाले अनाज तक के लिए भी गेहूं की खरीदी नहीं कर पाते हैं.
बिहार में एफसीआई के महाप्रबंधक संदीप कुमार पांडेय ने कहा, ‘पिछले पांच-छह सालों में बिहार में गेहूं की खरीद लगभग निल (शून्य) है. राज्य में 80 फीसदी खाद्यान्न जरूरत को हम बाहर से खरीद कर पूरा करते हैं.’
बिहार के पूर्व विधायक और अखिल भारतीय किसाम महासभा के महासचिव राजाराम सिंह कहते हैं कि राज्य में खरीदी न होने की एक बड़ी वजह ये है कि यहां पर जो लोग खेती करते हैं, वे जमीन के असली मालिक नहीं है.
उन्होंने बताया कि बड़ी संख्या में लोग पट्टे पर खेती करते हैं. चूंकि जो लोग बटाईदार हैं, उनके पास जमीन का कागज नहीं होता है, इसके चलते वे एमएसपी पर अपना उत्पाद नहीं बेच पाते हैं.
उन्होंने कहा, ‘लंबी लड़ाई के बाद किसानों को सैद्धांतिक रूप से ये सफलता मिली थी कि जिनकी खुद की जमीन नहीं भी है, और वे दूसरे की जमीन पर खेती करते हैं, तब भी उनके अनाज की खरीदी एमएसपी पर हो. लेकिन ये कभी लागू नहीं हो पाया. जब किसान अपना अनाज बेचने जाता है तो उससे कागज मांगा जाता है, जो कि वो दे नहीं पाता.’
गेहूं उत्पादन वाला एक अन्य बड़ा राज्य राजस्थान में पहले से ही खरीद केंद्रों की संख्या काफी कम थी. बीते पांच सालों में इसमें और कमी आई है.
साल 2015-16 में गेहूं की खरीद के लिए राजस्थान में 271 खरीद केंद्र लगाए गए थे. इसमें से 155 केंद्र एफसीआई के और 116 केंद्र राज्य एजेंसियों के थे. हालांकि 2019-20 आते-आते ये संख्या घटकर मात्र 204 रह गई. इस बीच 2016-17 में राज्य में 303 खरीद केंद्र, 2017-18 में 208 और 2018-19 में 229 खरीद केंद्र लगाए गए थे.
पिछले साल राजस्थान में 14 लाख टन गेहूं की खरीद हुई थी, जो कि कुल उत्पादन का 14.57 फीसदी है. इस दौरान देश के कुल गेहूं उत्पाद में 9.3 फीसदी हिस्सा राजस्थान का रहा. हालांकि एमएसपी से लाभान्वित किसानों की संख्या अभी भी काफी कम है. राजस्थान के सिर्फ चार फीसदी किसान एमएसपी पर खरीदी के दायरे में आते हैं.
उत्तर प्रदेश में ज्यादा हैं खरीद केंद्र, लेकिन कम है खरीदी
उत्तर प्रदेश देश में गेहूं का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है, लेकिन यहां के सिर्फ सात फीसदी किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिलता है.
पंजाब के 80 फीसदी से ज्यादा किसानों को एमएसपी का लाभ मिलता है, जबकि यहां पर देश के करीब तीन फीसदी ही गेहूं किसान हैं.
एमएसपी की सिफारिश करने वाली केंद्रीय कृषि मंत्रालय के अधीन संस्था कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने अपनी कई रिपोर्ट्स में ये कहा है कि किसानों को एमएसपी दिलाने और घरेलू बाजार में एमएसपी से कम मूल्य बिक्री की समस्या का समाधान करने के लिए खरीदी मशीनरी को मजबूत करने की जरूरत है.
सीएसीपी ने यह भी कहा है कि देश के सुदूर क्षेत्रों से एमएसपी पर खरीदी के लिए खरीद एजेंसियां अस्थायी खरीद केंद्र खोलकर एमएसपी का लाभ पहुंचाएं.
द वायर द्वारा प्राप्त किए गए दस्तावेजों के मुताबिक, अन्य राज्यों के मुकाबले उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा खरीद केंद्र हैं लेकिन इसके मुकाबले खरीदी काफी कम है.
पिछले साल गेहूं की खरीदी के लिए उत्तर प्रदेश में कुल 6685 और एक जिले में औसतन 89 खरीद केंद्र, राजस्थान में कुल 204 और एक जिले में औसतन छह खरीद केंद्र, मध्य प्रदेश में कुल 3,545 और एक जिले में 68 खरीद केंद्र और पंजाब में कुल 1,836 और एक जिले में औसतन 83 खरीद केंद्र लगाए गए थे.
हालांकि इसके बावजूद उत्तर प्रदेश में कुल उत्पादन का 11.30 फीसदी ही खरीदी हुई. जबकि देश के कुल उत्पादन में सबसे ज्यादा 31.4 फीसदी हिस्सा यूपी का था. पंजाब में कुल उत्पाद का 72.62 फीसदी खरीदी हुई थी. हरियाणा में सबसे ज्यादा 79.97 फीसदी खरीदी हुई थी. मध्य प्रदेश में भी काफी कम 38.76 फीसदी ही खरीदी हुई.
अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) के अध्यक्ष वीएम सिंह कहते हैं कि कम खरीदी का प्रमुख वजह खरीदे केंद्रों और बड़े व्यापारियों के बीच का नेक्सस है.
उन्होंने कहा, ‘जो भी खरीद केंद्र हैं वो या तो बंद पड़े रहते हैं या फिर छोटे किसानों से उत्पाद खरीदने के बजाय बड़े व्यापारियों का अनाज खरीदते हैं. किसानों को इन केंद्रों की जानकारी न होने और इनमें व्याप्त भ्रष्टाचार का लाभ उठाकर बड़े व्यापारी पहले एमएसपी से काफी कम दाम पर किसानों से गेहूं खरीदते हैं और फिर उसी गेहूं को एमएसपी पर बेच देते हैं.’
देश में साल 2015-16 में जहां गेहूं की खरीदी के लिए 20,088 खरीद केंद्र थे. वहीं साल 2016-17 में इसकी संख्या घटकर 18,181 रह गई. इसके बाद 2017-18 में खरीद केंद्रों की संख्या और कम होकर 17,596 पर पहुंच गई.
हालांकि 2018-19 में गेहूं के खरीद केंद्रों में बढ़ोतरी हुई और ये आंकड़ा 19,280 पर पहुंच गया. लेकिन अगले ही साल 2019-20 गेहूं के खरीद केंद्रों में काफी ज्यादा की गिरावट आई और साल 2015-16 की तुलना में 26.13 फीसदी की कमी के साथ ये संख्या घटकर सिर्फ 14,838 ही रह गई है.
करीब 95 फीसदी खरीद केंद्र राज्य एजेंसियों के हैं. 2019-20 में गेहूं खरीदी के लिए एफसीआई के 728 खरीद केंद्र थे, जो कि कुल खरीद केंद्र का सिर्फ पांच फीसदी ही है.
इन केंद्रों की घटती संख्या का प्रभाव किसानों पर साफ तौर से देखा जा सकता है. साल 2019-20 के रबी खरीद सीजन में कुल 35.6 लाख किसानों को एमएसपी का लाभ मिला था जो कि 2018-19 में लाभान्वित 39.8 लाख किसानों के मुकाबले करीब चार लाख कम है, जबकि इस दौरान गेहूं का उत्पादन काफी बढ़ा है.
साल 2016-17 में गेहूं का कुल उत्पाद 9.85 करोड़ टन था, जो कि 2018-19 में बढ़कर 10.36 करोड़ टन हो गया. इसमें से 3.4 करोड़ टन की खरीदी की गई थी, मतलब कुल उत्पादन के करीब 33 फीसदी की ही खरीदी हुई.
खरीद केंद्रों की कमी के चलते न सिर्फ किसानों को एमएसपी का लाभ नहीं मिल पाता, बल्कि कृषि उत्पाद का बाजार मूल्य भी एमएसपी से कम पर बना रहता है.
कृषि उत्पादों का प्रतिदिन बाजार मूल्य बताने वाली सरकारी एजेंसी एगमार्कनेट के मुताबिक, 2019-20 के रबी खरीदी सीजन में मार्च से जून महीने के बीच उत्तर प्रदेश में करीब 56 फीसदी दिन गेहूं का बाजार मूल्य एमएसपी से कम रहा. इसी तरह राजस्थान में 42 फीसदी दिन गेहूं का बाजार मूल्य एमएसपी से कम रहा. वहीं मध्य प्रदेश में 27.7 फीसदी दिन गेहूं का बाजार मूल्य कम रहा.
इससे पहले 2018-19 के रबी खरीदी सीजन में उत्तर प्रदेश में 98.9 फीसदी दिन और राजस्थान में 84.1 फीसदी दिन गेहूं का बाजार मूल्य एमएसपी से कम रहा था. देश के कुल गेहूं उत्पादन में 41 फीसदी हिस्सा राजस्थान और उत्तर प्रदेश का है.