क़र्ज़माफी को किसानों को दिए गए खैरात के तौर पर न देख कर उस क़र्ज़ के एक छोटे से हिस्से की अदायगी के तौर पर देखा जाना चाहिए, जो हम पर बकाया है.
पंजाब के फसली क़र्ज़माफी की घोषणा करने वाले राज्यों की जमात में शामिल होने के बाद राजनीतिक माहौल इस विचार के पक्ष में काफी झुक गया है.
इससे पहले तेलंगाना और फिर आंध्र प्रदेश ने किसानों के लिए क़र्ज़माफी की घोषणा करने के मामले में अगुआई की थी. लेकिन क़र्ज़माफी के ताजा राउंड में पहले उत्तर प्रदेश फिर महाराष्ट्र और अब पंजाब ने क़र्ज़माफी की घोषणा करके 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले क़र्ज़माफी के राष्ट्रव्यापी अभियान के लिए जमीन तैयार कर दी है.
ठीक इसी समय जनमत का निर्माण करने वाली दुनिया ने एक सुर में इस विचार को खारिज कर दिया है. कई अर्थशास्त्रियों और नीति-निर्माताओं ने इस विचार के वायरस के संक्रमण की चेतावनी भी दी है.
अखबारों के संपादकीय पन्ने इस ‘मूर्खतापूर्ण लोकलुभावनवाद’ और चुनावी राजनीति की मजबूरियों के खिलाफ तर्कों से रंग गए हैं. बैंकरों ने उन नैतिक खतरों के प्रति आगाह किया है, जिन्हें ऐसे फैसले न्यौता दे सकते हैं.
अर्थशास्त्री सरकारों की वित्तीय सेहत पर इस फैसले के प्रभावों को लेकर चिंतित हैं. कई कृषि विशेषज्ञों ने इसे एक चकमेबाजी करार दिया है, जिससे किसानों की बदहाली का कोई हल नहीं निकलेगा. केंद्रीय वित्तमंत्री ने ऐसी क़र्ज़माफियों की किसी किस्म की जिम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ लिया है.
किसान आंदोलन आमतौर पर ऐसे तर्कों की आलोचना इनमें छिपे पाखंड के कारण करता है और इन्हें किसानों के खिलाफ राजनीतिक साजिश का सबूत मानता है. उनका संदेह निराधार नहीं है.
क्या आपको ऐसी कोई नैतिक छटपटाहट तब दिखी थी, जब मनमोहन सिंह की सरकार ने 2009 में भारतीय उद्योग को संभावित आर्थिक मंदी के असर का अनुमान लगाते हुए, जी हां सांसे थाम कर सुनिए, 3 लाख करोड़ रुपये का राहत पैकेज दिया था?
या आपको ऐसी छटपटाहट तब दिखी थी, जब सरकार ने बड़े आकार के कॉरपोरेट ऋणों को हास्यास्पद शर्तों पर पुनर्गठित (रीस्ट्रक्चर) कर दिया था.
क्या हम सरकार द्वारा टेलीकॉम कंपनियों और पॉवर सेक्टर को राहत देने के विचारों पर ऐसी ही वित्तीय चेतावनियां सुन रहे हैं, जबकि हम किसानों की क़र्ज़माफी की नैतिकता पर बहस कर रहे हैं?
आखिर क्या हुआ कि नोटबंदी के दौरान अपनी खामोशी के कारण सबकी आंखों में खटकने वाले आरबीआई के गवर्नर इस मुद्दे पर बोलते हुए पाए जा रहे हैं? क्या यह सच नहीं है कि उनके वित्तमंत्री के बॉस ने ही उत्तर प्रदेश में क़र्ज़माफी का वादा किया था?
फिर भी यह सवाल का जवाब नहीं है. दो गलत मिलकर एक सही नहीं बन सकते, जैसा कि टीवी एंकर मौका पाते ही करते हैं. हमें इस सवाल का सामना पूरी ईमानदारी और तथ्यों के आधार पर करना चाहिए- ‘क्या फसली क़र्ज़माफी जायज है?
फसली क़र्ज़माफी के विचार की ज्यादातर आलोचनाएं गलत सवाल पूछने के कारण जन्म लेती हैं- क्या फसली क़र्ज़माफी भारतीय किसानों की समस्याओं का समाधान है?
इसका स्वाभाविक जवाब हैं, नहीं. क़र्ज़माफी उद्योग जगत के लिए उस हालत में तो पूरी तरह से कारगर हो सकती है, जब वह किसी खराब साल में उम्मीदों के उलट व्यापार में नुकसान का सामना कर रहा हो.
लेकिन यह किसानों की समस्या का पूरा समाधान नहीं कर सकता है, जो कभी न खत्म होने वाले संकट से वाबस्ता हैं. किसानी एक आय न देनेवाला और कई दफे घाटे का पेशा है.
जब तक हम किसान की आय के मुख्य मुद्दे का हल नहीं निकालते, तब तक खाली क़र्ज़माफी सिर्फ उनकी समस्या को टालने का काम करेगी जिसका अंजाम एक और क़र्ज़माफी की नौबत के तौर पर निकलेगा.
इसलिए यह दलील कोई नहीं दे सकता है कि क़र्ज़माफी अपने आप में पर्याप्त है. दरअसल सही सवाल यह होना चाहिए कि क्या आय के संकट का समाधान वर्तमान क़र्ज़ के बोझ को समाप्त किए बगैर किया जा सकता है? क्या फसली क़र्ज़माफी जरूरी है, भले ही पर्याप्त न हो?
चलिए हम सबसे पहले नैतिक करार वाले तर्क का सामना सबसे पहले करते हैं- यानी, जो क़र्ज़ लेता है, उसे क़र्ज़ को चुकाना भी चाहिए. इस बात से किसी को क्या इनकार हो सकता है!
करारों का सम्मान किया ही जाना चाहिए, उन अपवाद स्थितियों को छोड़कर जब व्यक्ति के नियंत्रण के बाहर वाली परिस्थितियों की वजह से करार को पूरा करना नामुमकिन हो जाए. या क़र्ज़ लेने वाला इतना बड़ा हो कि उसे हर हाल में डूबने से बचाना जरूरी हो.
बड़े निगमों को इन्हीं आधारों पर आर्थिक राहत दी जाती है या उनके क़र्ज़ को खाते से मिटाया जाता है. अगर यह एक जायज तर्क है, तो किसानों के मामले में यह और ताकत से लागू होता है.
भारत के बहुसंख्यक किसान अपने क़र्ज़े को चुकाने की स्थिति में नहीं हैं. उनकी आय गुजर-बसर करने के स्तर से भी कम है, भले नकारात्मक न हो. इसकी वजह यह नहीं है कि वे आलसी हैं या नाकाबिल हैं.
वे उन हालातों के शिकार हैं, जो उनके काबू से बाहर हैं. मसलन, व्यापार की नुकसानदेह शर्तें, उदासीन सरकारी नीतियां, जलवायु परिवर्तन आदि. और किसानों की संख्या इतनी ज्यादा है कि उनको डूबने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता.
ऐसी परिस्थितियों में उन पर क़र्ज़ की शर्तों का डंडा चलाना अमानवीय और अनैतिक है; यह करार को बेकार बना देने वाली स्थिति है.
हमें इस तर्क को और आगे लेकर जाने की जरूरत है. वास्तव में किसान सिर्फ एक गरीब, लाचार पीड़ित नहीं है, जो सिर्फ इसलिए क़र्ज़माफी का हकदार है कि वह क़र्ज़ नहीं चुका सकता.
हमें इस मौत के फंदे की जड़ तक जाने की जरूरत है. आज किसान इस कारण क़र्ज़ के दलदल मे डूबा हुआ है, क्योंकि उसकी आय तेजी से बढ़ती लागत और बढ़ते खर्च के साथ कदम मिला कर नहीं चल सकी.
इसके पीछे मुख्य वजह पिछले पांच दशकों की राज्य की नीतियां हैं. 1967-68 के अकाल के बाद से नीति-निर्माताओं का सारा जोर सिर्फ पर्याप्त मात्रा में सस्ते खाद्यान्न की आपूर्ति पर रहा.
यह एक प्रशंसायोग्य मकसद था. लेकिन, इस नैतिक जवाबदेही का आर्थिक बोझ किसानों पर डाल दिया गया. सरकार की नीतियां इस तरह से बनाई गईं, ताकि फसल की कीमत कम रखी जा सके.
इसने किसानी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ कर रख दी. पिछले पांच दशकों में किसानों ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए सैकड़ों करोड़ों का नुकसान सहा है. इस तरह से देखें, तो यह देश किसानों का क़र्ज़दार है.
किसानों पर बकाया बैंकों का क़र्ज़, हम पर बाकी किसानों के इस राष्ट्रीय क़र्ज़ का एक छोटा सा हिस्सा है. मौजूदा क़र्ज़ को माफ कर देना, वास्तव में सरकार के लिए एक सस्ता विकल्प है.
क़र्ज़माफी को किसानों को दिए गए खैरात के तौर पर न देख कर उस क़र्ज़ के एक छोटे से हिस्से की अदायगी के तौर पर देखा जाना चाहिए, जो हम पर बकाया है.
अंत में हम वित्तीय तर्क पर आते हैं? क्या हम यह क़र्ज़माफी बर्दाश्त कर सकते हैं? यह एक तुलनात्मक और राजनीतिक मुद्दा है. यह हमारी प्राथमिकताओं पर निर्भर करता है. और यह इस समझ पर निर्भर करती है कि ‘हम’ कौन हैं, भारत किससे है?
सामान्य तौर पर इस ‘हम’ के दायरे में टीवी देखने वाला, जनमत बनाने वाला तबका आता है, जिसका ग्रामीण भारत से कोई रिश्ता नहीं है. लेकिन, इस छोटे मगर ताकतवर तबके को भी जरूर इस तथ्य का ध्यान रखना चाहिए कि भारत की सफलता की कहानी ग्रामीण उपभोग पर ही आधारित है.
अगर इस ‘हम’ में सारे भारतीय शामिल हैं, जिनमें बहुसंख्यक किसान भी हैं, तो क़र्ज़माफी का भार उठा सकने का सवाल दूसरी ही रोशनी में सामने आता है. निश्चित तौर पर अगर हम बुलेट ट्रेन,कॉरपोरेटों के लिए कर-माफी, वित्तीय राहत, ऋण-पुनर्गठन का भार उठा सकते हैं, तो किसानों को एक और आखिरी बार बड़ी राहत का भी भार उठा सकते हैं.
लेकिन, यह तर्क-प्रणाली फसली क़र्ज़माफी को लेकर सभी सवालों और आपत्तियों का जवाब नहीं दे सकती. निश्चित तौर क़र्ज़माफी की कोई योजना बनाते वक्त कई सवालों पर विचार किए जाने की जरूरत है. मसलन, क्या ऐसी क़र्ज़माफी उन किसानों को सजा देने के समान नहीं होगी, जिन्होंने अपना क़र्ज़ समय पर चुका दिया?
इतनी बड़ी क़र्ज़माफी के बाद ग्रामीण बैंकिंग को ढहने से कैसे बचाया जाएगा? हम अगली बार किसानों को क़र्ज़ अदा करने के लिए कैसे मनाएंगे? हम किसानों को साहूकारों और महाजनों के क़र्ज़ के फंदे से कैसे बचा सकते हैं? और सबसे बढ़कर हम प्रकृति और बाजार के उठापटक के बावजूद किसानों के लिए आय का एक न्यूनतम स्तर तय करने के मूल मुद्दे को कैसे सुलझानेवाले हैं?
ऐसे मुद्दों पर गंभीरता से विचार किए बगैर की गई क़र्ज़माफी के असफल होने का खतरा है. वास्तव में क़र्ज़माफी के हालिया दौर के साथ भी यही से बसे बड़ा जोख़िम है, क्योंकि उनमें भी इन मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया गया है.
यही वह नुक्ता है, जिस ओर मैं फसली क़र्ज़माफी के आलोचकों का ध्यान खींचना चाहता हूं. क़र्ज़माफी के पक्ष या विपक्ष में बहस करने की जगह, आइए हम किसानों के लिए एक आखिरी बार क़र्ज़माफी और उनकी पक्की आमदनी सुनिश्चित करने के बारे में बहस करते हैं.
(योगेंद्र यादव राजनीतिक कार्यकर्ता, चुनाव विश्लेषक और स्वराज अभियान के संस्थापक हैं.)
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