स्पेन में प्रति 1,000 व्यक्तियों के लिए 3 अस्पताल बेड और 4.1 डॉक्टर हैं. भारत में यह आंकड़ा प्रति 1,000 व्यक्तियों के लिए 0.7 अस्पताल बेड और 0.8 डॉक्टर का है. बावजूद इसके स्पेन को कोरोना महामारी के चलते सभी निजी अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण करना पड़ा. भारत सरकार इस संकट का जवाब कैसे देगी, यह देखने वाली बात है.
पूरी दुनिया कोरोना महामारी के खिलाफ लड़ रही है, जिसने मनुष्यों को अपने धीरज, विवेक और विज्ञान की सीमाओं का परीक्षण करने के लिए मजबूर कर दिया है.
दुनिया भर में 20 लाख से अधिक कोरोना पॉजिटिव केस आ गए हैं और 1.20 लाख से ज्यादा लोग मारे गए हैं. भारत में 11 हजार से अधिक कोरोना पॉजिटिव केस हैं और यहां मृत्यु दर 3% है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सभी देशों को सलाह दी है कि ‘हर कोरोना संक्रमित मामले का पता लगाएं, अलग करे, परीक्षण और इलाज करें और हर संपर्क का पता लगाएं, अपने अस्पतालों को तैयार करें, अपने स्वास्थ्यकर्मियों को सुरक्षित रखें और प्रशिक्षित करें.’
विभिन्न देशों ने अपनी क्षमताओं के अनुसार इस मॉडल को अपनाया और लगभग सभी देशों ने निजी अस्पतालों पर अधिक सरकारी नियंत्रण सुनिश्चित करने के लिए नीतियों में सुधार किया हैं.
स्पेन ने कोरोना वायरस से लड़ने के लिए देश के सभी निजी अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं का राष्ट्रीयकरण कर दिया, जब मामले 9,191 थे और संबंधित मौतें 309 थीं.
जर्मनी और दक्षिण कोरिया एक सप्ताह में 5 लाख से अधिक कोरोना परीक्षण कर रहे हैं और निजी अस्पतालों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ा दिया है. फलस्वरूप जर्मनी और दक्षिण कोरिया में कोरोना मृत्यु दर क्रमश: 1.2% और 1.5% है, जो की न्यूनतम हैं.
कोरोना महामारी से लड़ने के लिए भारत में लॉकडाउन को 3 मई तक बड़ा दिया हैं. हमारा मकसद ‘रोकथाम करना, तैयारी करना और घबराना नहीं है.
लॉकडाउन ने शारीरिक संपर्कों को कम करके वायरस के प्रसार को रोकने में मदद की, इसके बाद संक्रमित क्षेत्रों से आने वाले सभी संदिग्ध मामलों का पता लगाना, अलग करना और उनका परीक्षण करना होगा.
लेकिन कई लोगों ने अपने यात्रा विवरणों को छुपाया और परीक्षणों के लिए आगे नहीं आए, कुछ तो क्वारंटाइन केंद्रों से भाग निकले. इनके कई कारण हो सकते हैं जैसे सरकारी अस्पतालों के रखरखाव और खराब स्वच्छता, अधिक उपचार व्यय या अज्ञानता या गलत सूचना आदि.
कोरोना से लड़ने के लिए हमें लोगों का सहयोग सुनिश्चित करने की आवश्यकता है, लेकिन इसके लिए दो शर्तों को पूरा करना होगा.
पहली, सभी परीक्षण केंद्रों- निजी और सार्वजनिक दोनों में कोविड-19 परीक्षण निशुल्क की जानी चाहिए क्योंकि भारतीयों को निजी स्वास्थ्य सुविधाओं का अधिक बार उपयोग करने की आदत है.
और भारत में निजी स्वास्थ्य संस्थानों को प्रति परीक्षण 4,500 रुपये लेने की अनुमति है, जो निजी प्रयोगशालाओं को लगभग गरीब लोगों के लिए दुर्गम बनाता है.
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में केंद्र को कोरोना परीक्षण को किफायती बनाने संबंधी निर्देश दिये हैं.
दूसरी, कोरोना का उपचार सभी अस्पतालों- निजी और सार्वजनिक- में मुफ्त किया जाना चाहिए क्योंकि सामान्य समय में भी, अधिक महंगे स्वास्थ्य व्यय के कारण लोग परीक्षण और उपचार के लिए नहीं जाते है.
मुंबई में एक व्यक्ति को निजी अस्पताल में कोरोना के उपचार की लागत 12 लाख रुपये आयी, हर कोई इसे वहन नहीं कर सकता, यहां तक कि आयुष्मान भारत भी प्रत्येक परिवार के लिए मात्र 5 लाख रुपये तक का बीमा कवरेज प्रदान करता है.
महामारी संकट और लॉकडाउन में आजीविका के नुकसान के कारण, ज्यादातर लोग एक महंगे उपचार नहीं झेल सकते हैं, इसलिए वे कोविड-19 परीक्षणों से संकोच करेंगे.
खतरा यह भी है कि वे अफवाहों के माध्यम से प्रसारित होने वाले एक वैकल्पिक उपाय का चयन कर सकते हैं. वे कोरोना को आम सर्दी के लक्षण समझकर नजरअंदाज कर सकते हैं.
इसके अलावा अभी लॉकडाउन अवधि के दौरान उनकी प्राथमिकताएं भोजन और अन्य बुनियादी आवश्यकताओं तक पहुंच है.
भारतीय स्वास्थ्य सुविधाएं निजी क्षेत्र और अमीर लोगों के प्रति पक्षपाती है. निजी क्षेत्र में देश के 58% अस्पताल, अस्पतालों में 29% बेड और 81% डॉक्टर शामिल हैं.
निजी स्वास्थ्य सेवा की लागत देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा से लगभग चार गुना अधिक है. फिर भी अधिकांश आबादी निजी स्वास्थ्य सुविधाओं को पसंद करती है.
हमारी 70% स्वास्थ्य सुविधाएं निजी अस्पतालों के पास हैं लेकिन ये अब गरीब लोगों का इन अस्पतालों में इलाज नहीं कर रहे हैं.
जलगांव के एक तेज बुखार से पीड़ित 22 वर्षीय डॉक्टर ने कम से कम पांच निजी अस्पतालों के दरवाजे खटखटाए लेकिन कोरोनोवायरस संदिग्ध होने के कारण उसे प्रवेश से इनकार कर दिया गया.
वकोला के एक 71 वर्षीय व्यक्ति की मृत्यु हो गई क्योंकि उसे निजी अस्पतालों द्वारा प्रवेश से वंचित कर दिया गया था.
सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं ने कोरोना को हराने के लिए कार्य स्थागित कर दिया हैं और अब 1930 के दशक की मंदी के बाद से दुनिया में सबसे गहरी शांति-मंदी देखी जा सकती है.
इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार, कोरोना वायरस के कारण पैदा हुए संकट से असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे लगभग 40 करोड़ भारतीयों पर गरीबी में डूबने का खतरा मंडरा रहा है, जिसके ‘भयावह परिणाम हो सकते हैं.
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) ने भारत में बेरोजगारी दर 23% से अधिक होने का अनुमान लगाया है.
अर्थव्यवस्था को पटरी पर आने और लोगों को रोजगार मिलने में समय लगेगा. चूंकि भारत में उच्च स्वास्थ्य व्यय गरीबी का एक प्रमुख कारण रहा है, यह संकट कई लोगों को कर्ज और अत्यधिक गरीबी के दुष्चक्र में धकेल सकता है.
भारत में पहले ही बहुत अधिक गरीबी (29%, रंगराजन रिपोर्ट) हैं. कोरोना वायरस संकट भारत में गरीबी को ‘वंशानुगत’ बना देगा, यदि सरकार इन चिंताओं को दूर करने के लिए संकट का अधिक प्रभावी ढंग से जवाब नहीं देती है.
यह कई लोगों को आत्महत्या या कम क्रय शक्ति के कारण स्वास्थ्य सुविधाओं की दुर्गमता से संबंधित मौतों के लिए मजबूर कर सकता है.
मध्यम वर्ग नौकरियों के नुकसान से अधिक प्रभावित होगा और शहरी तथा ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में गरीबी में धकेल दिया जाएगा क्योंकि वे महंगी निजी स्वास्थ्य सेवाओं का अधिक उपयोग करते हैं.
आम भारतीय न तो महंगे सशुल्क कोरोना परीक्षणों का और न ही निजी अस्पतालों में खर्चीले इलाज का खर्च उठा सकते हैं.
और अगर ये मामले अज्ञात रहते हैं, तो यह एक सतत राष्ट्रीय खतरा होगा क्योंकि कोविड 19 एक अत्यधिक संक्रामक बीमारी है.
इस दिशा में आंध्र प्रदेश सरकार ने पहले ही कदम उठा लिया है, जिसने स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे को बढ़ावा देने के लिए 58 निजी अस्पतालों पर नियंत्रण कर लिया है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, स्पेन में प्रत्येक 1,000 व्यक्तियों के लिए 3 अस्पताल बेड और 4.1 डॉक्टर हैं.
भारत में प्रत्येक 1,000 व्यक्तियों के लिए 0.7 अस्पताल बेड और 0.8 डॉक्टर हैं. फिर भी स्पेन को कोरोना महामारी के कारण सभी निजी अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण करना पड़ा.
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि सरकार इस संकट का जवाब कैसे देगी, यह भारत में गरीबों के भविष्य को आकार देने वाला है.
आगे सार्वजनिक सेवाओं की गुणवत्ता और सामर्थ्य इस संकट के दौरान किए जाने वाले कार्यों औरनिर्णयों पर निर्भर करेगा.
इन सभी मुद्दों को संसद के एक अधिनियम या राष्ट्रपति द्वारा एक अध्यादेश द्वारा संबोधित किया जा सकता है.
यदि ऐसी स्थिति बनी रहती है, तो इस कानून में कम से कम तीन साल की अवधि के लिए तृतीयक सेवाओं सहित स्वास्थ्य क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण का प्रावधान होना चाहिए, जो संसद के एक अधिनियम द्वारा विस्तारित किया जा सकता है.
अब सवाल यह है कि क्या ऐसा करने के लिए हमारे नेताओं के पास राजनीतिक इच्छाशक्ति है?
(लेखक ने मध्य प्रदेश में प्रधानमंत्री ग्रामीण विकास फेलो के रूप में काम किया है.)