क्या जीएसटी के रूप में ‘इंस्पेक्टर-राज’ की वापसी हो रही है?

सरकार ने जीएसटी लागू करने की तैयारियां समय पर पूरी नहीं की हैं जिसके कारण एक बार फिर नोटबंदी जैसी अफ़रातफ़री मचने की आशंका पैदा हो गई है.

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(फोटो : पीटीआई)

सरकार ने जीएसटी लागू करने की तैयारियां समय पर पूरी नहीं की हैं जिसके कारण एक बार फिर नोटबंदी जैसी अफ़रातफ़री मचने की आशंका पैदा हो गई है.

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देश के सबसे बड़े टैक्स-सुधार के तौर पर पहली जुलाई से जीएसटी लागू करने की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है. तीस जून की रात संसद के सेंट्रल हाॅल में विशेष सत्र बुलाकर धूमधाम से इसकी घोषणा की जाएगी. लेकिन जीएसटी लागू करने की तैयारियों को लेकर असमंजस की स्थिति ने कई आशंकाओं को जन्म दिया है.

साथ ही, जीएसटी की घोषणा को 15 अगस्त 1947 की आधी रात की आज़ादी से जोड़ा जाना व्यवसायी वर्ग के जले पर नमक छिड़कने जैसा दिखता है. विडंबना यह है कि तीस जून की रात देश के विभिन्न हिस्सों में व्यवसायी समूह जीएसटी का विरोध करके इसे ग़ुलामी का प्रतीक बताएंगे.

पहले तो तैयारियां पूरी किए बग़ैर जीएसटी लागू करने के तरीक़ा ही हैरान करने वाला है. सामान्य तौर पर किसी भी नए क़ानून को लागू करना ऐसा चुनौतीपूर्ण नहीं होता है.

जीएसटी क़ानून को देश भर में लागू करना एक बड़ी चुनौती है. जीएसटी नेटवर्क पहली जुलाई तक सही तरीक़े से काम करने लगेगा अथवा नहीं, इसे लेकर संदेह बरक़रार है.

जीएसटी लागू करने के लिए लगभग एक दर्जन से भी ज़्यादा नियमावली अधिसूचित करना और उससे संबंधित साॅफ्टवेयर तैयार करना, आवश्यक मानव-संसाधन का प्रबंध और उनका प्रशिक्षण सुनिश्चित करना, व्यवसायी वर्ग को नए सिस्टम के अनुकूल तैयार करना तथा उनके रिटर्न अपलोड करने के लिए प्रोफेशनल टीम तैयार करना जैसी विविध चुनौतियां हैं.

हक़ीक़त यह है कि इनमें से ज़्यादातर मोर्चे पर तैयारियां अधूरी हैं. ऐसा बुनियादी आधार तैयार करने के बजाय तीस जून को समारोहपूर्वक जीएसटी क़ानून लागू करने की उत्सवधर्मी प्रवृति ने आशंकाओं को जन्म दिया है.

जानकार लोग हैरान हैं कि जीएसटी का बैक-इंड साॅफ्टवेयर अब तक नहीं बन पाया है. इसी साॅफ्टवेयर के ज़रिये विभागीय अधिकारियों द्वारा जीएसटी संबंधी समस्त दस्तावेज़ों की देखरेख की जाएगी.

इसके अभाव में यह सिस्टम की काम नहीं करेगा. जीएसटी का फ्रंट-इंड साॅफ्टवेयर लगभग तैयार है. लेकिन उसकी भी टेस्टिंग और उसका प्रशिक्षण नहीं हो पाया है.

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जीएसटी के विरोध में विभिन्न राज्यों के अलग-अलग शहरों में व्यापारियों का प्रदर्शन जारी है. (फोटो: पीटीआई)

बैक-इंड साॅफ्टवेयर कब आएगा, और फिर उसका प्रशिक्षण कब मिलेगा, इस पर भी अनिश्चितता बरक़रार है. साॅफ्टवेयर बनाने वाली कंपनी ने भी समय की मांग की जिसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया. बैंक अधिकारियों के समूहों ने भी इतने कम समय में पूरी तैयारी होने की असमर्थतता जतायी है.

इसी तरह, जीएसटी क़ानून लागू करने से संबंधित विभिन्न नियमावली भी अब तक अधिसूचित नहीं की गई है. अब तक सिर्फ़ रजिस्ट्रेशन और कंपोजिशन संबंधी नियमावलियों की अधिसूचना अब तक नहीं हो सकी है.

लगभग एक दर्जन नियमावलियों की अधिसूचना जारी होने के साथ ही उनसे संबंधित साॅफ्टवेयर को नियमावली के अनुरूप विकसित करना, उनका प्रशिक्षण प्रदान करना भी महत्वपूर्ण कार्य है.

नियमावलियों की अधिसूचना के बाद उनकी प्रतियां प्रोफेशनल लोगों तथा अधिकारियों तक पहुंचाने का काम कब तक पूरा हो सकेगा, यह अब तक स्पष्ट नहीं है.

इसके अलावा, जीएसटी के इनवाॅइस फॉरमेट में दी जानी वाली जानकारियों का विवरण भी अब तक उपलब्ध नहीं कराया गया है. इससे टैक्स प्रोफेशनल्स उलझन में हैं कि आख़िर वे किस तरह इतने सारे डाटा संग्रहीत करेंगे.

हालांकि फ़िलहाल प्रथम दो माह में रिटर्न दाख़िल करने की अवधि में छूट दी गई है. लेकिन इससे ख़ास फ़र्क नहीं आएगा क्योंकि अंततः व्यवसायियों या उनके प्रोफेशनल्स को सारे डाटा तो संबंधित प्रारूप में जमा करने ही होंगे. इसलिए प्रारंभ में ही अगर स्पष्टता नहीं हुई तो ज़्यादा अराजकता उत्पन्न होगी.

ऐसी बुनियादी आशंकाओं के बीच वित्तमंत्री ने दो-टूक कह दिया है कि सरकार पहले से ही पहली जुलाई से जीएसटी लागू करने की घोषणा कर चुकी है, इसलिए व्यवसायियों की बहानेबाजी नहीं चलेगी.

लेकिन ऐसा कहते समय वित्तमंत्री यह भूल गए कि स्वयं सरकार ने जीएसटी लागू करने की तैयारियां समय पर पूरी नहीं की हैं जिसके कारण एक बार फिर नोटबंदी जैसी अफ़रा-तफ़री मचने की आशंका पैदा हो गई है.

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जीएसटी के विरोध में विभिन्न राज्यों के अलग-अलग शहरों में व्यापारियों का प्रदर्शन जारी है. (फोटो: पीटीआई)

यह सच है कि पहली जुलाई से जीएसटी लागू करने की घोषणा काफी पहले से की जाती रही है. लेकिन जब जीएसटी की नियमावलियां, टैक्स की दरें और साॅफ्टवेयर जैसे बुनियादी काम ही जून के तीसरे सप्ताह तक पूरे नहीं हो सके हों, तो व्यवसायियों और प्रोफेशनल्स का क्या कसूर?

गत दिनों एसोचैम तथा अखिल भारतीय व्यवसायी संघ सहित विभिन्न वाणिज्य संस्थाओं ने जीएसटी की तैयारी पूरी नहीं होने के तथ्य प्रस्तुत करते हुए कुछ और अवधि लेने का आग्रह किया.

लेकिन समझा जाता है कि राजनीतिक श्रेय लेने की होड़ में केंद्र सरकार अब व्यावहारिक जटिलताओं पर विचार करने की मनःस्थिति में नहीं रह गई है.

एसोचैम ने पत्र लिखकर बताया कि जीएसटी नेटवर्क के साॅफ्टवेयर में कई तरह की विसंगतियां हैं. इसके रिटर्न फॉरमेट में कई प्रकार की त्रुटियों के कारण काम बाधित हो चुका है.

इसके कारण रिटर्न फॉरमेट को पूरी तरह से बदलना पड़ा है और परिणामस्वरूप इसके साॅफ्टवेयर में भी व्यापक बदलाव की नौबत आ गई है.

एसोचैम ने यह भी स्पष्ट किया कि विभागों में सूचना तकनीक संबंधी कमियों के कारण बड़ी संख्या में व्यवसायी अब तक नए सिस्टम में माइग्रेशन भी नहीं कर पाए हैं.

दिलचस्प यह है कि जीएसटी काउंसिल की बैठकों में केंद्र एवं विभिन्न राज्यों के संबंधित अधिकारियों द्वारा ऐसे बिंदुओं की जानकारी दिए जाने के बावजूद पहली जुलाई से जीएसटी लागू करने पर सरकार अडिग है.

जीएसटी की पूरी प्रणाली इंटरनेट कनेक्टिविटी पर आधारित है. संभवतः ऐसा मान लिया गया है कि व्यवसाय की सभी कड़ियों से जुड़े सभी लोगों की सूचना तकनीक तक समुचित पहुंच है तथा सभी स्थानों पर इंटरनेट की सहज कनेक्टिीविटी भी है.

लेकिन इसका वास्तविक आकलन नहीं करना, इसके वैकल्पिक तरीक़ों की कोई परवाह नहीं करना भी व्यावहारिक पहलुओं को नज़रअंदाज़ करने का द्योतक है.

इस अफरा-तफरी के बीच, तीस जून की रात संसद के सेंट्रल हाॅल में विशेष सत्र बुलाकर जीएसटी को सन सैंतालिस की आज़ादी जैसे ऐतिहासिक पलों के समकक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास हैरान करने वाला है.

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तमाम शहरों में व्यापारी बाज़ार बंद करके जीएसटी के ख़िलाफ़ अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं. (फोटो: पीटीआई)

जीएसटी महज एक टैक्स-प्रणाली है जो किसी पूर्ववर्ती प्रशासनिक व्यवस्था में कोई सकारात्मक या नकारात्मक बदलाव मात्र है.

इसे ‘आज़ादी’ जैसे महान शब्द के समतुल्य रखना बचकाना है. आज़ादी की अवधारणा से इसका दूर-दूर तक का वास्ता नहीं. यह वैसा ही है, जैसे कोई क्रीम या मलहम वाली कंपनी अपने नए उत्पाद को ‘कील-मुंहासों से आज़ादी’ बताकर विज्ञापन कर देती है.

पंद्रह अगस्त की आधी रात की आज़ादी से तुलना करना तभी प्रासंगिक होता, जब देश में व्यापक नागरिक-स्वतंत्रता क़ायम करने वाला कोई बड़ा क़ानूनी सुधार हुआ हो.

वर्ष 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 को लागू करना ऐसी उपलब्धि कही जा सकती है. लेकिन टैक्स प्रणाली में तकनीकी बदलाव के साथ आज़ादी शब्द को जोड़ना महज प्रतीकों के माध्यम से बड़ी चीज़ों को छोटा करने के समान है.

दरअसल, मोदी सरकार की ख़ासियत किसी विषय को प्रतीकों और भावनाओं के साथ जोड़कर एक काल्पनिक दुनिया बनाने की है.

जीएसटी के साथ एक नारा दिया जा रहा है- ‘एक देश, एक टैक्स’. जबकि जीएसटी में टैक्स के पांच स्लैब हैं. दुनिया में सबसे ज़्यादा ऐसा टैक्स हमारे देश में ही है. लेकिन इसे नारों, प्रतीकों के ज़रिये ‘एक’ बनाना और ‘आज़ादी’ के प्रतीक से जोड़ देना प्रचार-कला या प्रोपेगैंडा मात्र है.

अमेरिका की संस्था ‘इंस्टीट्यूट आॅफ प्रोपेगैंडा एनालिसिस’ ने ऐसे प्रयासों के लिए ‘ग्लीटरिंग जनरलिटीज‘ शब्द का प्रयोग किया है. इसके अनुसार किसी प्रचार के लिए आकर्षक सामान्यीकरण करते हुए किसी लोकप्रिय भावना या संदर्भ का उपयोग किया जाता है.

इसके कारण लोग प्रचारित की जा रही वस्तु या विचार पर चिंतन के बजाय उससे जोड़ी गई भावना में बह जाते हैं. तीस जून का जश्न वास्तव में देश की बड़ी आबादी को जीएसटी के स्याह-सफेद पर चिंतन के बजाय स्वाधीनता और देशभक्ति की धुनों और काल्पनिक जगत में ले जाएगा.

जबकि जीएसटी तो किसी भी रूप में आज़ादी का प्रतीक नहीं. यह तो ग़ुलामी है. यह न तो कोई क्रांतिकारी बदलाव है और न ही यह सिस्टम किसी को कोई राहत देने वाला है.

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जीएसटी के विरोध में विभिन्न राज्यों के अलग-अलग शहरों में व्यापारियों का प्रदर्शन जारी है. (फोटो: पीटीआई)

सच तो यह है कि यह व्यवसायी वर्ग और प्रोफेशनल्स के बड़े हिस्से को तरह-तरह के हिसाब-किताब और फॉरमेट की जटिलताओं में उलझाने वाली दकियानूस क़िस्म की कर-प्रणाली है.

इसके बदले सिर्फ़ उत्पादन-स्तर या प्रारंभिक स्तर पर टैक्स लेकर नीचे की तमाम कड़ियों को पूरी तरह आज़ाद कर देना या सिर्फ़ बैंकिंग लेन-देन पर मामूली टैक्स लेकर देश में टैक्स-मुक्त अर्थव्यवस्था की स्थापना का प्रयोग किया जा सकता था.

ऐसा किया गया होता, तो निश्चय ही इसे ‘टैक्स से आज़ादी’ कहा जा सकता था. तब तीस जून के ढोल-नगाड़े की आवाज़ भी ऐसी कर्कश नहीं लगती.

कहा जा रहा है कि छोटे व्यवसायियों को कंपोजिशन स्कीम के तहत 75 लाख तक के कारोबार पर महज एक फ़ीसदी टैक्स देकर सारी झंझट से आज़ादी मिल जाएगी.

यह कहना बेहद आसान है. लेकिन व्यवहार में देखें तो उस व्यवसायी को 75 लाख का माल ख़रीदते समय तो पूरा टैक्स चुकाना ही होगा. इसके बाद जब वह सालाना 75000 रुपये जमा करेगा, तो बदले में उसे इसका कोई इनपुट क्रेडिट नहीं मिलेगा. यानी उसे यह पूरी राशि अपनी गाढ़ी कमाई से जमा करनी होगी.

इसके बावजूद उसे समय-समय पर टैक्स प्रोफेशनल्स की सेवा लेनी ही होगी और उनकी फ़ीस चुकाने का अतिरिक्त बोझ भी आएगा. इसके अलावा, कंपोजिशन स्कीम वाले व्यवसायी का माल ख़रीदने वाले का इनपुट क्रेडिट नहीं मिलेगा. इसलिए वह सिर्फ़ इंड-यूजर को ही माल बेच सकेगा. यानी सेमी-होलसेलर क़िस्म के छोटे व्यवसायी इस स्कीम का लाभ नहीं ले सकेंगे.

इसी तरह, बड़े व्यवसायियों को यह आशंका कि समय पर रिटर्न जमा करने में चूक या किसी तकनीकी ग़लती के कारण जेल जाने की भी नौबत आ सकती है.

जीएसटी की जटिल प्रणाली में व्यवसायी वर्ग ख़ुद को काफ़ी असहाय अवस्था में पा रहा है जिसे अपनी ज़िंदगी अब टैक्स प्रोफेशनल्स और सरकारी अधिकारियों के हाथों ग़ुलाम दिख रही है. उस पर यह आज़ादी का जश्न!

लिहाजा, तथाकथित आज़ादी का यह जश्न अगर देश में व्यवसायियों के बड़े हिस्से को चिढ़ाने वाला लगे, तो कोई आश्चर्य नहीं. व्यवसायी वर्ग का बड़ा हिस्सा मोदी समर्थक माना जाता है.

उसने देश में बड़े पैमाने पर टैक्स सरलीकरण की उम्मीद की थी. उसके लिए अच्छे दिन का मतलब ‘इंस्पेक्टर-राज’ से आज़ादी था. लेकिन जीएसटी के रूप में एक बड़ी टैक्स-ग़ुलामी में उलझते व्यवसायी समुदाय के लिए आज़ादी का यह जश्न एक बुरा सपना मात्र ही है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)