झारखंड सरकार ने लॉकडाउन में दूसरे राज्यों में फंसे मज़दूरों को आर्थिक मदद देने के लिए एक मोबाइल ऐप लॉन्च किया था, लेकिन ऐसे ज़्यादातर मज़दूरों का कहना है कि स्मार्टफोन न होने, निरक्षरता या तकनीकी मुश्किलों जैसी कई वजहों से वे अब तक सरकार की मदद से महरूम हैं.
देश के अलग अलग हिस्सों में काम के अवसरों पर ताला लगते ही मजदूरों की बड़ी आबादी वापस अपने घर-गांव व कस्बों में वापस लौटना चाहती है और यह कवायद लॉकडाउन के बाद से ही चल रही है.
कई मजदूर पैदल और साइकिल के भरोसे अपने घर की तरफ चल दिए, लेकिन प्रवासी मजदूरों का एक बड़ा तबका वहीं फंस गए, जहां वह मजदूरी करने गए थे.
दूसरे राज्यों में फंसे झारखंड के ऐसे प्रवासी मजदूरों की मदद के लिए झारखंड सरकार ने सहायता मोबाइल ऐप लॉन्च किया.
दावा था कि इस सहायता योजना मोबाइल ऐप के माध्यम से दूसरे राज्यों फंसे सभी मजदूरों को एक सप्ताह के अंदर चिह्नित कर सरकार मजदूरों तक एक हजार रुपये की आर्थिक सहायता पहुंचाएगी, लेकिन जिन मजदूरों के पास स्मार्टफोन नहीं है उनका क्या होगा?
इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए देश के विभिन्न राज्यों में फंसे हुए झारखंड के कुछ मजदूरों से बात की.
झारखंड के लातेहार जिला के रहने वाले रमेश टानाभगत त्रिपुरा के अगरतला के एक ईंट-भट्टे में मजदूरी करते थे. उनके साथ उनकी पत्नी भी त्रिपुरा में लॉकडाउन की वजह से फंसी हुई हैं.
साथ में उनका दो साल का बेटा और चार साल की बेटी भी है. उन्होंने बताया, ‘लॉकडाउन की वजह से हमें बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. बंदी के बाद से यहां हमारे पास न कोई काम है और न तो कोई कमाई का जरिया.’
नरेश और उनकी पत्नी दोनों ईंट भट्ठे में काम करते थे. दिन भर काम करने के बाद 300 से 400 रुपये मिलते थे, लेकिन दो महीने से काम बंद होने की वजह से अब उनके बचे-खुचे पैसे भी खत्म होने की कगार पर है.
उन्होंने बताया, ‘पैसे बचाने के लिए हम सिर्फ दो टाइम ही खाना खाते हैं.’ आगे बेहद उदास स्वर ने वे कहते हैं, ‘हमें सबसे ज्यादा दुख तब होता है जब बच्चे बिस्कुट या चॉकलेट मांगते हैं और हम पैसे न होने के कारण उन्हें न बिस्कुट खरीद पाते हैं और न चॉकलेट.
जब उनसे झारखंड सरकार के सहायता ऐप के बारे पूछा तो उनका कहना था, ‘इस बारे में हमें कोई जानकारी नहीं है. अगर जानकारी होती भी तो हम इस योजना का फायदा नहीं उठा पाते क्योंकि हम उतने पढ़े-लिखे नहीं हैं कि ये सब समझ पाएं और हमारे पास बड़ा वाला मोबाइल (स्मार्टफोन) भी नहीं है.’
उन्होंने आगे बताया, ‘हमारे तक कोई सरकारी मदद नहीं पहुंच रही. अगर पहुंच भी रही तो न के बराबर. अपने पैसे से ही गुजर-बसर कर रहे हैं. जब तक हो पाएगा करेंगे। उसके बाद देखा जाएगा, हम गरीब हैं, हमें भूखे रहने की आदत है.’
बता दें कि राज्य सरकार के अनुसार झारखंड के तकरीबन 9 लाख लोग दूसरे राज्यों में फंसे हैं, जिसमे से 6.43 लाख प्रवासी मजदूर हैं और बाकी लोग नौकरी व अन्य काम के वजह से हैं.
एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, महाराष्ट्र में झारखंड के 1.07 लाख, गुजरात में 72.01 हजार, आंध्रप्रदेश में 65.10 हजार, तेलंगाना में 41.80 हजार, दिल्ली में 37.60 हजार, मध्य प्रदेश में 30.4 हजार, तमिलनाडु में 27.50 हजार, कर्नाटक में 20.10 हजार, हरियाणा में 19.50 हजार, उत्तर प्रदेश में 19 हजार, पंजाब में 3.3 हजार, केरल में 3.1 हजार, राजस्थान में 2.8 हजार, हिमाचल प्रदेश में 2.3 हजार और बिहार में 1.5 हजार मजदूर हैं.
अगरतला के ही ईंट भट्टे में काम करने वाले 22 वर्षीय हरविलास उरांव ने बताया कि उनके पास कोई मोबाइल फोन ही नहीं है. तीन महीने पहले एक था, जो खो गया.
नया फोन लेने की बात पर वे कहते हैं, ‘यहां पेट भरने को पैसा नहीं है मोबाइल कहां से खरीदें? जब कभी घर पर बात करने का मन होता है तो किसी से फोन मांगकर बात कर लेते हैं. झारखंड की सरकार से हम उम्मीद लगाए बैठे थे कि वो हमारी कुछ मदद करेगी लेकिन हमें यहां पूछने वाला कोई नहीं है.’
खाने-पीने के बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया, ‘सब्जी खाए हुए बहुत दिन हो गया. खाने के नाम पर बस जैसा-तैसा दाल-चावल खाकर भूख मिटा लेते हैं.’
हरिविलास बताते हैं कि वे छह महीने पहले ही त्रिपुरा गए थे. वे कहते हैं, ‘लगा था कि दूसरे राज्य में मजदूरी करने पर अच्छे पैसे मिलते होंगे.’ हालांकि उन्हें अभी तक कोई पगार नहीं मिली है. बस बीच-बीच में खर्च के लिए थोड़े पैसे मिलते थे.
उन्होंने बताया, ‘भट्ठे में पांच महीने या जब काम पूरा हो जाए तभी एक साथ पैसा मिलता है. इस बीच खर्च के लिए हफ्ते में 500 रुपये मिलते हैं.’
हरिविलास आगे कहते हैं, ‘जब दो महीना काम कर लिए तो हमेशा उस दिन का इंतेजार करते थे, जिस दिन अपना पूरा मेहनताना मिलेगा. सोचे थे घर वालों को पैसा भेजेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मुश्किल से तीन या चार महीना काम किए होंगे, उसके बाद काम बंद हो गया और तब से बस बैठे हैं.
इसी ईंट भट्ठे में सूरजमणि काम करती हैं. वे कहती हैं, ‘हम अपने घर से इतना दूर है. यहां न खाने का कोई ठिकाना, न मदद के लिए कोई हाथ. सरकार पैसा भी दे रही थी तो उन लोगों जिनके पास बड़ा फोन है. हम गरीब लोग, जिनके पास खाने को पैसा नहीं होता है, वो उतना महंगा मोबाइल फोन कहां से लाएंगे!’
ज्ञात हो कि इस ऐप के माध्यम से करीब तीन लाख प्रवासी लोगों ने पंजीकरण कराया है. नगर विकास विभाग के प्रधान सचिव विनय कुमार चौबे के अनुसार बीते गुरुवार देर शाम तक 1.92 लाख प्रवासी मजदूरों को एक-एक हजार रुपये की आर्थिक मदद पहुंचा दी गई है.
लेकिन इस सरकारी मदद से अब भी दूसरे राज्यों में फंसे झारखंड के मजदूर वर्ग का एक बड़ा हिस्सा वंचित है.
झारखंड के रामगढ़ जिले के पतरातू प्रखंड निवासी मुहम्मद गफ़्फ़ार राजमिस्त्री का काम करते हैं. लॉकडाउन की वजह से वे उत्तराखंड के हल्द्वानी में फंसे हुए हैं.
वे बताते हैं, ‘यहां बंदी होने के बाद से ही मेरे पास कोई काम नहीं है. जो पैसा कमाया था वो खर्च होता जा रहा है. हमारे तक मदद के नाम पर बस एक बार राशन पहुंचा था.’
गफ़्फ़ार आगे बताते हैं, ‘मुझे सहायता ऐप के बारे यहां के लोगों से मालूम हुआ था लेकिन मेरे पास न स्मार्टफोन है और न तो बैंक एकाउंट. अब मेरे पास मात्र 300 से 400 रुपये बचे है.’
गफ़्फ़ार अपने परिवार का ज़िक्र करते हुए बताते हैं कि झारखंड में पत्नी और बच्ची अकेले है. वे कहते हैं, ‘यदि हम अपना ही पेट नहीं पाल पा रहे हैं तो उनका क्या होगा. ऐसे में हमारी नज़र सरकार पर टिकी है, मगर सरकार भी हम जैसे लोगों के लिए कुछ नहीं कर रही.’
झारखंड के मजदूरों की एक बड़ी संख्या महाराष्ट्र में भी फंसी है. उनकी संख्या करीब एक लाख से ज्यादा है. इनमें से एक सिमडेगा की रहने वाली रश्मि वेडिंग हैं.
रश्मि मुंबई के गांधीनगर में मजदूरी करती हैं. बीते डेढ़ महीने में बाकी मजदूरों की तरह ही रश्मि तक सरकारी मदद के नाम पर दो बार पांच किलो चावल और एक किलो चीनी पहुंचे थे, लेकिन समय के साथ चुक गए.
उन्होंने यह भी बताया कि अभी बीते दो हफ्ते से उन्हें राशन भी नहीं मिला है. सहायता ऐप के बारे में वे कहती हैं, ‘हमारे पास स्मार्टफोन नहीं है, लेकिन मेरे एक जानने वाले के पास है. हमने कई दिनों तक रजिस्ट्रेशन की कोशिश की, मगर ऐप को कैसे इस्तेमाल करना है, नहीं समझ आया.’
रश्मि आगे बताती हैं, ‘हम बेहद पिछड़े इलाके से आते हैं, उतने पढ़े-लिखे भी नहीं हैं जो यह सब समझ पाएं. पति साल 2018 में गुजर गए थे तो अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाने के लिए मैं यहां कुछ पैसे कमाने आई थी, लेकिन यहां भी महज डेढ़ महीने ही काम चला, उसके बाद से जो थोड़ा-बहुत कमाया था उसी से काम चलाया, अब हमारे पास पैसा खत्म हो गया है, तो एक दूसरे से मदद मांगकर गुजारा कर रहे हैं.’
वे कहती हैं, ‘हम सुबह नाश्ता नहीं करते, बस दोपहर और रात में खाना बनाते हैं. कई बार रात को हम आधे पेट खाकर ही सो जाते हैं और सुबह के लिए एक-दो रोटी बचा लेते हैं ताकि बच्चे उसी में से खा लें.’
सहायता ऐप के लॉन्च होने के बाद से ही इसके यूज़र्स को अलग-अलग तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा. विभिन्न राज्यों में फंसे लोगों ने सरकार को ट्विटर पर ऐप को इस्तेमाल करने में आ रही कठिनाइयों के बारे बताया है.
एक यूजर ने लिखा है, ‘झारखंड कोरोना सहायता ऐप में आधार संबंधित समस्या हो रही है. आधार पर फोटो क्लियर नहीं होने के कारण,पंजाब के लुधियाना में फंसे पलामू के उपेन्द्र सिंह का सहायता ऐप पर रजिस्ट्रेशन रिजेक्ट हो गया. दोबारा रजिस्ट्रेशन नहीं हो पा रहा है.’
वहीं कई लोग ऐप के सत्यापन में आई दिक्कत को लेकर ट्वीट कर रहे थे.
@HemantSorenJMM @JharkhandCMO मेरे गाँव का एक युवक बंगाल में फसा हुआ है। उसका नाम राजेश बेहरा, पिता लूलू बेहरा है। उसका आधार सं. 410183797167 उसके द्वारा झारखंड कोरोना सहायता ऐप से आवेदन का कोशिश कर रहा है परंतु उसका सत्यापन नही ही रहा है। उसे सहयोग की सख्त आवश्यकता है। pic.twitter.com/hjmG4ikCWy
— Karan (TRILOCHAN)🐦 (@karan_ksd) April 25, 2020
एक अन्य यूजर ऐप न चलने को लेकर लिखा था कि झारखंड सरकार को सहायता के लिए कुछ अन्य उपाय करने को कहा है.
ऐसी शिकायतों की फेहरिस्त लंबी थी, कुछ को उपयोग के दौरान पेमेंट आईडी को लेकर परेशानी हो रही थी, तो कुछ तकनीकी कारणों से आगे नहीं बढ़ पा रहे थे.
हालांकि इन शिकायतों पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का कहना था कि कोरोना सहायता ऐप में आ रही तकनीकी कठिनाइयों को जल्द दूर कर लिया जाएगा.
लेकिन आज जब झारखंड कोरोना सहायता ऐप पर आवेदन की अवधि समाप्त हो गई है, तब भी लोग ट्विटर पर इसके इस्तेमाल में आने वाले दिक्कत के बारे में लिख रहे हैं.
ज्ञात हो कि प्रवासी मजदूरों को उनके खाते में आर्थिक मदद पहुंचाने के लिए 16 अप्रैल को झारखंड कोरोना सहायता मोबाइल ऐप पर आवेदन की अवधि समाप्त हो गई है.
यदि दूसरे राज्यों फंसे प्रवासियों की संख्या में सहायता ऐप के माध्यम से पंजीकृत प्रवासियों की संख्या को घटा दें, तब भी करीब छह लाख प्रवासी ऐसे हैं जिनके लिए झारखंड सरकार की यह डिजिटल सहायता काम नहीं आई.
इस बारे में झारखंड के श्रम मंत्री सत्यानंद भोक्ता से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो पाया. उनका बयान मिलने पर रिपोर्ट में जोड़ा जाएगा।
श्रम मंत्री के अलावा जब श्रम विभाग के सचिव से बात की गई तो उन्होंने इस मुद्दे पर किसी भी तरह की टिप्पणी करने से और किसी भी सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया.
यह समस्या सिर्फ इन चंद मजदूरों की नहीं है बल्कि अन्य राज्यों में बिना रोजी-रोटी के साधन के फंसे झारखंड के उन लाखों मजदूरों की है, जो अपनों से दूर हैं और किसी भी तरह के सरकारी मदद से महरूम हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)