कैग ने चार निजी कंपनियों और मिज़ोरम सरकार के अधिकारियों को 2012-2015 के दौरान राज्य द्वारा चलाई जाने वाली लॉटरियों में हुई भीषण धांधलियों के लिए आड़े हाथों लिया है.
मुंबई: भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने चार निजी कंपनियों और मिजोरम सरकार के अधिकारियों को 2012-2015 के दौरान राज्य द्वारा चलाई जाने वाली लॉटरियों में हुई भीषण धांधलियों के लिए आड़े हाथों लिया है.
इन चार कंपनियों में से एक के तार सुभाष चंद्रा के नेतृत्व वाले एस्सेल समूह से काफ़ी नज़दीक से जुड़े हुए हैं, जिसके सबसे बड़े शेयरहोल्डरों में सुभाष चंद्रा के बेटे और भाई शामिल हैं.
इन कथित धांधलियों में ज़्यादा गंभीर आरोप करीब 11,808 करोड़ की राशि राज्य के खज़ाने में जमा नहीं कराने का है, जो उसमें जमा कराई जानी थी.
साथ ही एक और गंभीर आरोप यह भी है कि इस पूरे खेल में राजस्व बंटवारे के एक गलत मॉडल का इस्तेमाल किया गया.
सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक इन दोनों फैसलों से राज्य सरकार को राजस्व का भारी नुकसान हुआ और डिस्ट्रीब्यूटरों ने चांदी काटी.
सीएजी ने लॉटरी टिकट वितरण कंपनियों और राज्य सरकार के अधिकारियों पर लॉटरी का आयोजन करने के लिए टेंडर देने की प्रक्रिया में हेराफेरी करने, कर-चोरी और लॉटरीज (रेगुलेशंस) एक्ट 1998 और लॉटरीज (रेगुलेशन) रूल्स, 2010 के खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन का भी आरोप लगाया है.
2010-11 से 2014-15 के बीच मिजोरम राज्य की लॉटरियों की जांच के बाद महालेखा परीक्षक ने चार कंपनियों द्वारा नियमों के उल्लंघन से मिजोरम की सरकार को हजारों करोड़ रुपये का नुकसान होने का अनुमान लगाया है.
इस टिप्पणी का महत्व समझने के लिए यह जानना फायदेमंद होगा कि मिजोरम का कुल वार्षिक बजट इस साल 8,000 करोड़ रुपये का है.
द वायर ने एस्सेल ग्रुप के अधिकारियों को एक विस्तृत प्रश्नावली भेजी है. उनकी तरफ से जवाब आने पर उन्हें रिपोर्ट में शामिल किया जाएगा.
मुख्य बातें
मिजोरम राज्य की लॉटरियों पर सीएजी की रिपोर्ट ने टेंडर देने की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी को लेकर किसी को नहीं बख्शा है.
रिपोर्ट के मुताबिक कागज़ी और ऑनलाइन लॉटरी निकालने के लिए चार कंपनियों- एम/एस. तीस्ता डिस्ट्रीब्यूटर्स, ई-कूल गेमिंग सॉल्यूशंस प्राइवेट लिमिटेड, एम/एस. एनवी इंटरनेशनल और सम्मिट ऑनलाइन ट्रेड सॉल्यूशंस प्राइवेट लिमिटेड को सेंट्रल विजिलेंस कमीशन (केंद्रीय सतर्कता आयोग) के दिशा-निर्देशों का पालन किए बगैर टेंडर दिए गए.
सीएजी का आरोप है कि ये टेंडर मनमाने ढंग से दिए गए, न कि उस मान्य प्रक्रिया के मुताबिक जिसके अनुसार राज्य सरकार को लॉटरी टिकटों की बिक्री से सबसे ज़्यादा राजस्व देने का वादा करने वाली कंपनी को टेंडर मिलना चाहिए था.
इस रिपोर्ट में लगभग मज़ाक के स्वर में इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया गया है कि कैसे इनमें से एक डिस्ट्रीब्यूटर (एनवी इंटरनेशनल) के पास ऑनलाइन लॉटरियों की मार्केटिंग करने के लिए कोई बुनियादी ढांचा ही नहीं था.
लेकिन इसके बावजूद उसे एक उप-एजेंट के तौर पर नियुक्त कर दिया गया, जिसने बदले में लॉटरी निकालने का अधिकार ई-कूल और सम्मिट ऑनलाइन को किराए पर दे दिया.
ई-कूल गेमिंग के बारे में हम क्या जानते हैं?
कम से कम 15 साल साल पहले की मीडिया रिपोर्टों से इसके बारे में कुछ जानकारी मिलती है. इन रिपोर्टों में ई-कूल गेमिंग को ऑनलाइन लॉटरी कारोबार में हिस्सेदारी के लिए उत्सुक बताया गया है और इसकी पहचान एस्सेल ग्रुप की एक कंपनी के तौर पर की गई है.
ध्यान देने लायक बात ये है कि सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक ई-कूल गेमिंग सॉल्यूशंस के सबसे बड़े शेयरहोल्डर चंद्रा के बेट अमित गोयनका और उनके भाई अशोक गोयल हैं. ये दोनों एस्सेल समूह में वरिष्ठ पदों पर कार्यरत हैं.
इसके आगे यह रिपोर्ट ई-कूल और पैन इंडिया नेटवर्क नाम की एक लॉटरी कंपनी के बीच नजदीकी संबंध को उजागर करती है.
यहां यह गौरतलब है कि चंद्रा काफी गर्व से इस कंपनी के अपने साम्राज्य का हिस्सा होने का दावा करते हैं, जिसके सर्वेसर्वा उनके बेटे गोयनका हैं.
सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक, ई-कूल ने टेंडर हासिल करने के बाद महाराष्ट्र, पंजाब और सिक्किम में लॉटरी निकालने का ठेका पैन इंडिया को दे दिया.
इतना ही नहीं, सीएजी के पर्यवेक्षणों से ऐसा लगता है कि पैन इंडिया लॉटरी की बिक्री के लिए महाराष्ट्र और सिक्किम की सरकार को शुल्क अदा कर रही थी.
एस्सेल ग्रुप की वेबसाइट के मुताबिक, ‘वह पैन इंडिया के मार्फत प्लेविन ब्रांडनेम के तले लॉटरियों का कारोबार करता है.’ ‘प्लेविन’, पैन इंडिया नेटवर्क लिमिटेड का लॉटरी और गेमिंग ब्रांड है, जो एस्सेल समूह का हिस्सा है. पैन इंडिया नेटवर्क लिमिटेड एक सुरक्षित ऑनलाइन लॉटरी नेटवर्क की सुविधा मुहैया कराने के लिए ज़रूरी बुनियादी ढांचा, डेटा कम्युनिकेशन, मार्केटिंग सपोर्ट और सेवाएं प्रदान करने के व्यवसाय में है.’
अपनी आत्मकथा द ज़ेड फैक्टर: माय जर्नी एज़ द रॉन्ग मैन एट द राइट टाइम में चंद्रा ने भी पैन इंडिया का जिक्र उनके समूह की अहम कंपनियों में से एक के तौर पर किया है, जिसका वार्षिक टर्नओवर 400 मिलियन डॉलर से ज़्यादा है.
सीएजी ने यह भी कहा है कि टेंडर हासिल करने वाली कंपनियों ने लॉटरी टिकटों की बिक्री से हुई आमदनी को भी राज्य की संचित निधि में जमा नहीं कराया है, जबकि लॉटरीज (रेगुलेशन) रूल्स, 2010 के तहत ऐसा किया जाना ज़रूरी है.
सीएजी की रिपोर्ट का यह भी कहना है कि 11,834 करोड़ रुपये के मूल्य के लॉटरी टिकट की बिक्री में से सिर्फ 25.45 करोड़ रुपये राज्य के खजाने में जमा कराए गए. यानी जमा नहीं कराई गई रकम 11,808 करोड़ रुपये के आसपास ठहरती है.
रिपोर्ट के मुताबिक यह नियमों का साफ-साफ उल्लंघन है और राज्य के खजाने को इसके कारण राजस्व का भारी नुकसान उठाना पड़ा है.
लॉटरी: राज्य बनाम केंद्र
आखिर कैसे भारतीय राज्यों ने अपनी लॉटरियों की देखरेख करनी शुरू कर दी और आखिर वह क़ानूनी ढांचा कौन सा है, जिसके भीतर यह धंधा चलता है?
भारत के संविधान निर्माताओं ने राज्य और केंद्र सरकार द्वारा आयोजित की जाने वाली लॉटरियों को जुए और सट्टेबाजी के अन्य रूपों से अलग रखने का फैसला किया.
इसलिए, जहां जुआ और सट्टेबाजी राज्यसूची के अंदर आता है, राज्य सरकारों द्वारा लॉटरियों के आयोजन और लॉटरियों की अंतरराज्यीय बिक्री के विनियमन की ज़िम्मेदारी केंद्र पर है.
लॉटरियों को जुए और सट्टेबाजी के दूसरे रूपों से अलग रखने के पीछे तर्क यह था कि लॉटरी योजनाओं के सहारे राज्य सामाजिक योजनाओं के लिए धन और संसाधन जुटा सकेंगे.
आज़ादी के बाद 1968 में केरल लॉटरी स्कीम शुरू करने वाला पहला राज्य बना. कई दूसरे राज्यों, जैसे महाराष्ट्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु ने अलग-अलग समय पर अपनी लॉटरी योजनाएं चलाई हैं.
1998 तक राज्यों द्वारा निकाली गई लॉटरियों को लेकर कोई क़ानून नहीं था. इसका परिणाम यह होता था कि एक राज्य द्वारा अधिकृत की गई लॉटरी भारत भर में कहीं भी बेची जा सकती थी. इसलिए राज्य सरकारें उनके नाम पर लॉटरियां निकालने और उन्हें पूरे भारत में बेचने का ठेका निजी लॉटरी कंपनियों को दे देती थीं.
संसद ने 1998 में लॉटरीज (रेगुलेशंस) एक्ट पारित किया, जिसके द्वारा किसी राज्य सरकार द्वारा लॉटरी ड्रॉ आयोजित करने की संख्या की सीमा तय की गई, राज्य सरकारों को दूसरे राज्यों द्वारा आयोजित लॉटरियों पर लगाम लगाने का अधिकार दिया गया. लॉटरियों पर राज्य सरकार के प्रतीक चिह्न को छापना ज़रूरी कर दिया, एक अंक की लॉटरियों पर पाबंदी लगा दी गई और कई अन्य रुकावटें भी लगा दी गईं.
वीडियोकॉन, एस्सेल और एस्सार
सुप्रीम कोर्ट ने 1999 में लॉटरीज (रेगुलेशंस) एक्ट के नियमों का हवाला देते हुए राज्य सरकारों को दूसरे राज्यों द्वारा निकाली गई लॉटरियों पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार दे दिया.
सर्वोच्च अदालन ने अपने फैसले में कहा कि कोई राज्य सरकार तभी दूसरे राज्यों की लॉटरियों पर प्रतिबंध लगा सकती है, जब वह खुद अपनी लॉटरी योजना न चलाती हो.
यानी, कोई राज्य या तो सारी लॉटरियों पर प्रतिबंध लगाए या फिर अगर वह अपनी लॉटरी योजना चलाता हो, तो उसे दूसरे राज्यों या उनके द्वारा अधिकृत डिस्ट्रीब्यूटरों को भी अपने राज्य की सीमा के भीतर लॉटरी बेचने की इजाजत देनी होगी.
1990 के दशक के अंत और 2000 के दशक की शुरुआत में लॉटरी के कारोबार में भारी बढ़ोतरी हुई क्योंकि राज्य सरकारों ने खुले हाथों से लॉटरियां निकालने के टेंडर बांटे.
लॉटरी कारोबार में वीडियोकॉन के वेणुगोपाल धूत, इस्पात के प्रमोद मित्तल (लक्ष्मी मित्तल के भाई), एस्सार के रूइया बंधु और आईपीएल के पूर्व कमिश्नर ललित मोदी जैसे कई बड़े उद्योगपतियों ने भी हाथ आजमाया.
एस्सेल समूह के चेयरमैन और 2016 में भाजपा के सहयोग से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर राज्यसभा के सांसद बनने वाले सुभाष चंद्रा लॉटरी कारोबार में पहलकदमी करने वालों में थे.
चंद्रा ने सिक्किम सरकार से लॉटरियां बेचने का टेंडर हासिल किया और ‘प्लेविन’ ब्रांडनेम से ऑनलाइन लॉटरी का विचार लेकर आए.
1990 के आखिरी दशक और 2000 की शुरुआत में चंद्रा के ही ज़ी टेलीविजन नेटवर्क पर ‘खेलो इंडिया खेलो’ के लोकप्रिय टैगलाइन के साथ प्लेविन लॉटरी का खूब प्रचार हुआ करता था.
लेकिन, 2000 के दशक के शुरुआती वर्षों के बाद धोखाधड़ी, टेंडरों में जालसाज़ी और कर-चोरी के आरोपों के कारण लॉटरी कारोबार में गिरावट आने लगी.
ऐसे में जब लॉटरी कारोबार को लेकर बनी अनिश्चितता और ज़्यादातर बड़े राज्यों द्वारा लॉटरी के हर रूप पर पाबंदी लगाने के फैसले के कारण (पंजाब, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल इसके प्रमुख अपवाद हैं, जो आज भी प्राइवेट डिस्ट्रीब्यूटरों को टेंडर देते हैं.)
जब ज़्यादातर कॉरपोरेट घराने लॉटरी कारोबार से बाहर निकल गए, एस्सेल समूह एक मात्र बड़ा व्यावसायिक घराना था, जिसने इस उद्योग पर लगे धोखाधड़ी और दूसरी गड़बड़ियों के आरोपों के बावजूद अपने लॉटरी कारोबार को जारी रखा.
जांच में देरी
सीएजी की रिपोर्ट ने लॉटरी व्यवसाय की निगरानी और उसका उचित नियमन करने के मामले में मिज़ोरम सरकार की नाकामी का भी जिक्र किया है.
उसकी यह टिप्पणी बेहद महत्वपूर्ण है कि ऑनलाइन लॉटरी टिकट निकालने के लिए जिन सर्वरों का उपयोग हो रहा था, उन पर राज्य सरकार का न तो कोई नियंत्रण था, न ही उस तक उसकी पहुंच ही थी.
चार कंपनियों द्वारा उपयोग में लाये जाने वाले ऑनलाइन लॉटरी सिस्टम में धोखाधड़ी और जालसाजी को आसानी से अंजाम दिए जाने का खतरा था.
इसके अलावा इस बात की भी स्पष्ट संभावना नज़र आती है कि किसी ड्रॉ में एक ही नंबर के कई लॉटरी टिकट जारी किए गए, जिससे विजेताओं को पुरस्कार देने की प्रक्रिया की ईमानदारी और निष्पक्षता पर सवाल खड़े होते हैं.
देश के सबसे बड़े ऑडिट निकाय द्वारा सामने लाए गए ये चौंकाने वाले तथ्य निजी लॉटरी डिस्ट्रीब्यूटरों के क्रियाकलापों की गंभीरतापूर्वक जांच की ज़रूरत पर बल देते हैं.
लेकिन, यह बेहद आश्चर्यजनक है कि सीएजी द्वारा भारी नुकसान के अनुमान के बावजूद प्रवर्तन एजेंसियों और सरकारों की इस मामले में कोई दिलचस्पी नज़र नहीं आ रही है, जबकि यह रिपोर्ट विधानसभा में छह महीने पहले, दिसंबर, 2016 में ही रख दी गई थी.
पिछले कुछ महीनों से इस मामले को लेकर कुछ विरोध दिखाई दे रहा है और मिजोरम के कुछ राजनीतिक दलों और नागरिक समाज द्वारा इस पूरे मामले की सीबीआई जांच की मांग की जा रही है.
जब इस लेखक ने गृह मंत्रालय में इस मामले में एक आरटीआई अर्जी दायर की, तब वहां से जवाब आया कि मंत्रालय, सीएजी रिपोर्ट के आधार पर लॉटरीज (रेगुलेशन) रूल्स को और सख्त करने पर विचार करेगा.
लेकिन आज तक न तो मिजोरम सरकार ने, न ही केंद्र सरकार ने राज्य के खजाने में जमा नहीं कराई गई रकम को वसूल करने की दिशा में कोई कदम उठाया है, न ही भ्रष्ट लॉटरी डिस्ट्रीब्यूटरों पर ही कोई प्रतिबंध लगाया है.
(जय सयता glaws.in नाम की वेबसाइट का संचालन करते हैं जो जुए, सट्टेबाजी और लॉटरी से संबंधित क़ानूनों से जुड़े घटनाक्रमों पर नज़र रखने के लिए समर्पित भारत की पहली और एकमात्र वेबसाइट है.)
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