ऊपर से शांत दिखने वाली भीड़ का हिंसक बन जाना अब हमारे वक्त़ की पहचान बन रहा है. विडंबना यही है कि ऐसी घटनाएं इस क़दर आम हो चली हैं कि किसी को कोई हैरानी नहीं होती.
15 वर्ष का जुनैद ख़ान, जिसकी चाहत थी कि इस बार ईद पर नया कुर्ता पाजामा, नया जूता पहने और इत्र लगा कर चले, लेकिन सभी इरादे धरे के धरे रहे गए. उसे शायद ही गुमान रहा होगा कि ईद की मार्केटिंग के लिए दिल्ली की उसकी यात्रा ज़िंदगी की आख़िरी यात्रा साबित होगी. दिल्ली बल्लभगढ़ लोकल ट्रेन पर जिस तरह जुनैद तथा उसके भाइयों को भीड़ ने बुरी तरह पीटा और फिर ट्रेन के नीचे फेंक दिया, वह ख़बर सुर्ख़ियां बनी है.
दिल्ली के एम्स अस्पताल में भरती उसका भाई शाकिर बताता है कि किस तरह भीड़ ने पहले उन्हें उनके पहनावे पर छेड़ना शुरू किया, बाद में गाली गलौज करने लगे और उन्हें गोमांस भक्षक कहने लगे और बात बात में उनकी पिटाई करने लगे. विडम्बना है कि समूची ट्रेन खचाखच भरी थी, मगर चार निरपराधों के इस तरह पीटे जाने को लेकर किसी ने कुछ नहीं बोला, अपने कान गोया ऐसे बंद किए कि कुछ हुआ ही न हो.
ट्रेन जब बल्लभगढ़ स्टेशन पर पहुंची तो भीड़ में से किसी ने अपने जेब से चाकू निकाल कर उन्हें घोंप दिया और अगले स्टेशन पर उतर कर चले गए. एक चैनल से बात करते हुए हमले का शिकार रहे मोहसिन ने बताया कि उन्होंने ट्रेन की चेन भी खींची थी, मगर उनकी पुकार सुनी नहीं गई. इतना ही नहीं, रेलवे पुलिस ने भी मामले में दखल देने की उनकी गुजारिश की अनदेखी की.
विडंबना ही है कि उधर बल्लभगढ़ की यह ख़बर सुर्ख़ियां बन रही थी, उसी वक़्त कश्मीर की राजधानी श्रीनगर की मस्जिद के बाहर सादी वर्दी में तैनात पुलिस अधिकारी को आक्रामक भीड़ द्वारा मारा जा रहा था. जुनैद अगर नए कपड़ों के लिए मुंतज़िर था तो अयूब पंडित को अपनी बेटी का इंतज़ार था जो बांगलादेश से पहुंचने वाली थी.
ऊपर से शांत दिखने वाली भीड़ का हिंसक बन जाना अब हमारे वक्त़ की पहचान बन रहा है. विडंबना यही है कि ऐसी घटनाएं इस क़दर आम हो चली हैं, कि किसी को कोई हैरानी नहीं होती.
हुक़ूमत का हैरतअंगेज़ मौन
और जिन लोगों एवं तंजीमों को जनता ने हुक़ूमत संभालने का ज़िम्मा दिया है, जिनसे यह उम्मीद की जाती है कि वह क़ानून की हिफ़ाजत करेंगे, संविधानप्रदत्त अधिकारों के उल्लंघन पर कार्रवाई करेंगे, वह भी इस मामले में अजीब सा मौन ओढ़े दिखते हैं. उन्हें सुदूर किसी मुल्क़ में तूफ़ान से मरे लोगों के लिए संवेदना ज़ाहिर करने का वक्त़ मिलता है, यह अपने आप में अच्छी बात है, मगर उनके अपने ही देश में आक्रामक भीड़ मासूमों को ख़त्म कर दे और इस हत्या को आस्था के आधार पर औचित्य प्रदान कर दे, तब वह ट्वीट तक करने के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं और न ही अन्य किसी तरीक़े से संवेदना प्रगट करने की जहमत उठाते हैं. हां, कभी कभार ऐसी घटनाओं पर जब लोग अधिक उद्वेलित होते हैं, तो बाॅलीवुडमार्का अंदाज़ में यह डायलाॅग ज़रूर बोलते हैं कि ‘जनता को नहीं उन्हें मारा जाए.’
हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण हैं जब लोग किसी शरारती अफ़वाह के चलते हमले का शिकार हुए हैं, या जब उन्हें किसी मनगढ़ंंत मामले में सलाख़ों के पीछे डाला गया है, या जब अग्रणी विद्वानों की उपस्थिति वाले सेमिनारों पर हमले हुए हैं, सहभागियों को पीटा गया है और पुलिस चुपचाप देखती रही है. इस ‘बर्बरता का अब अधिकाधिक सामान्यीकरण’ होता दिखता है. यह भी दिखने में आ रहा है कि किस तरह क़ानून का राज के स्थापित सिद्धांतों को सर के बल खड़ा कर दिया जाता है.
भले ही तत्काल इस समूचे गतिविज्ञान का आकलन करना मुश्किल हो मगर भविष्य के समाजविज्ञानियों के पास बहुत सारी सामग्री उपलब्ध होगी ताकि वह साबित कर सकें कि किस तरह एक आक्रामक झुंड राज्य में समाहित हो जाता है और किस तरह राज्य की मशीनरी खुद आक्रामक भीड़ में रूपांतरित होती दिखती है.
राजस्थान के प्रतापगढ़ का वह प्रसंग सभी को याद होगा जब जफर हुसैन नामक वामपंथी कार्यकर्ता को- जो स्वच्छ भारत अभियान के तहत खुले में शौच करने वाली महिलाओं के फोटो खींचने की सरासर गैरकानूनी गतिविधि का विरोध कर रहा था, उसे कथित तौर पर नगरपालिका के एक अधिकारी के आदेश पर उसके कर्मचारियों ने पीट कर मार डाला. इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त़ तक इस मामले में अभी किसी की गिरफतारी होने की ख़बर नहीं आई थी, अलबत्ता ‘सरकारी कामकाज में बाधा डालने के नाम पर मृतक जफर पर मुकदमा अवश्य दर्ज किया गया था.’
वैसे आम लोगों के सामने भी इस हिंसा के उदघाटन की विशिष्टताएं स्पष्ट हैं. यह हिंसा इस किस्म की है कि पीड़ितों को ‘असली हमलावरों’ में आसानी से तब्दील किया जा सकता है और हमलावरों को ‘शहीद’ के तौर पर पेश किया जा सकता है. याद करें, दुलीना, झज्जर में मरी हुई गाय को छीलने के आरोप में हुई (2003) पांच दलितों की हत्या – जब यह परिघटना इतनी जोरदार ढंग से हमारे यहां उपस्थित नहीं हुई थी – जब हजार से अधिक लोगों की आक्रामक भीड़ ने उन निरीहों को ‘गोहत्या’ के आरोप में पुलिस स्टेशन के सामने तमाम वरिष्ठ पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारियों की मौजूदगी में पीट कर मार डाला था और पुलिस ने उन मृतकों के खिलाफ ही यह कहते हुए केस दर्ज किया था कि उन्होंने भीड़ को उकसाया.
अभी पिछले माह जब झारखंड के जमशेदपुर के निकट स्थित आदिवासी बहुल क्षेत्र में दो अलग अलग घटनाओं में सात लोग आक्रामक झुंड द्वारा मार दिए गए थे, जब वाट्सएप के जरिए बच्चा चोरी करने वाले गिरोहों को लेकर अफवाहें फैलाई गईं, उन्हीं दिनों अग्रणी अख़बार इंडियन एक्स्प्रेस ने देश के अलग अलग भागों से आक्रामक झुंड द्वारा अंजाम दी गई हत्याओं की ख़बरों की एक फेहरिस्त पेश की थी, जिनका फोकस उसके पहले के तीन महीनों पर था. गौरतलब है कि उसी अख़बार ने इस तथ्य को रेखांकित किया था कि ‘पुलिस चुपचाप खड़े देखती रही जब झारखंड की उपरोक्त घटना में से एक में चार लोगों को मारा जा रहा था.’
मई 2, 2017: दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं के एक झुंड ने एक व्यक्ति की हत्या कर दी, जब वह दूसरे समुदाय से जुड़ी महिला के साथ कहीं चला गया. उस आदमी को पीट कर मार दिया गया. यूपी पुलिस द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक हिंदू युवा वाहिनी के कार्यकर्ता इस हत्या में मुब्तिला थे.
अप्रैल 30, 2017: एक झुंड ने गाय की चोरी के आरोप में मध्य आसाम के नागौन जिले के पास दो व्यक्तियों को मार डाला. अबू हानिफा उम्र 23 और रियाजुददीन अली, उम्र 24 का गांव की उग्र भीड़ ने पीछा किया और उन्हें बुरी तरह मारा. पुलिस ने इन दोनों को बचाया मगर उन्हें अस्पताल ले नहीं जाया जा सका.
अप्रैल 22, 2017: एक जानवर प्रेमी समूह से कथित तौर पर जुड़े चार लोगों ने दिल्ली के कालकाजी क्षेत्र में एक ट्रक को रोका और अंदर बैठे लोगों को यह कहते हुए बुरी तरह पीटा कि वह मवेशियों की तस्करी कर रहे हैं.
अप्रैल 21, 2017: जम्मू कश्मीर के रियासी जिले में स्वयंभू गोरक्षकों ने पांच लोगों के एक परिवार पर- जिनमें नौ साल का एक बच्चा भी शामिल था- हमला किया. यह हमला शाम को तब हुआ जब यह खानाबदोश परिवार तलवारा इलाके में अपने जानवरों को कही ले जा रहा था.
अप्रैल 1, 2017: पहलू खान नामक मुस्लिम व्यक्ति को राजस्थान के अलवर के पास सैंकड़ों स्वयंभू गोरक्षकों के झुंड ने पीट कर मार डाला. अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब राजस्थान सरकार ने गोहत्या के लिए उम्र कैद की सज़ा मुकर्रर की थी.
मार्च 9, 2017: त्रिपुरा में एक बांगलादेशी सिक्युरिटी गार्ड को भीड़ ने पीट कर मार डाला, जो बारह लोगों के समूह का हिस्सा था और गांव में चोरी करने के इरादे से पहुंचा था.
संगठित एवं पूर्वनियोजित हिंसा
एक महत्वपूर्ण बात जिस पर गौर किया जाना चाहिए कि इस हिंसा में कुछ भी स्वतःस्फूर्त जैसा नहीं है. भले ही ऊपर से नज़र आता हो कि लोगों का गुस्सा अचानक फूट पड़ा, यह सभी घटनाएं बिल्कुल संगठित एवं पूर्वनियोजित होती हैं, जबकि हमलावरों को भी यह स्पष्ट पता होता है कि हिंसा का सार्वजनिक प्रगटीकरण या उसको सोशल मीडिया के साथ बाकी लोगों के साथ शेयर भी करने से उनपर कोई असर नही पड़ेगा.
अगर किसी को ऐसी योजना के बारे में कोई संदेह हो तो वह पिछले साल स्वयंभू गोरक्षक समूहों को लेकर पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय के फैसले को देख सकता है या ऊना आंदोलन के दौरान गुजरात पुलिस के डाइरेक्टर जनरल द्वारा जारी रिपोर्ट को देख सकता है जिसमें उपरोक्त अफसर ने ऐसे स्वयंभू गोरक्षक समूहों की तीखी भर्तसना की थी और उनके खिलाफ कार्रवाई करने का आवाहन किया था. स्वतंत्र किस्म के पत्रकार इस मसले पर भी लिख चुके हैं कि किस तरह केंद्र सरकार द्वारा जारी जानवरों को लेकर नए नियमों से ऐसे आक्रामक झुंडों को नया बल मिलेगा.
आम तौर पर ऐसे हमलों का शिकार अल्पसंख्यक समुदायों, दलित तबकों से जुड़े लोग या असहमति रखने वाले लोग होते आए हैं. यह अलग बात है कि अब जैसे जैसे हिंसा का सिलसिला बढ़ता जा रहा है, हम देख रहे हैं कि बहुसंख्यक समुदाय से जुड़े लोग भी हमले की चपेट में आ रहे हैं. हालांकि हिंसा का स्तर जितना भी हो, हम यह भी देख रहे हैं कि ऐसी घटनाओं की स्वीकृति अधिक है, अगर निशाने पर ‘घृणित अन्य’ हों.
मूकदर्शक पुलिस
इस तरह हम देख सकते हैं कि गाय की ‘पवित्रता’ यह मुमकिन बनाती है कि मनुष्य के शरीर की तुलना में गोवंश का मांस अधिक महत्वपूर्ण बने. बहुसंख्यक समुदाय से जुड़ी किसी युवती का अपने प्रेमी अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े किसी व्यक्ति के साथ पलायन – जिसे ‘लव जिहाद’ के तौर पर पेश किया जाता है – उसकी परिणति अल्पसंख्यक समुदाय की समूची आबादी के उपरोक्त इलाके से जबरदस्ती निष्कासन में भी हो सकती है जबकि पुलिस मूकदर्शक बनी रहे.
यहां तक कि अगर कभी आप कश्मीरियों के मानवाधिकार की बात करने लगें तो यह भी हो सकता है कि आक्रामक झुंड ही नहीं बल्कि राज्य की संस्थाएं भी आप को ‘राष्ट्रद्रोही’ के तौर पर गिरफ़्तार करें. इंटरनेट के विस्तार ने यह मुमकिन बनाया है कि इस ‘हिंसा’ ने और घृणित आयाम धारण किया है. मीडिया, जिसे ‘जनतंत्र का प्रहरी’ के तौर पर संबोधित किया जाता है उसने एक तरह से अपनी आलोचनात्मक भूमिका का परित्याग किया है, अपवादों को छोड़ दें तो वह या तो ऐसी संगठित हिंसा की घटनाओं को लेकर खामोशी बरतता है या बहुसंख्यकवादी नज़रिया पेश करता है या कहीं कहीं लोगों को उकसाता भी है.
न्यायपालिका, जिसे संविधान की संरक्षक कहा जाता है , वह भी इस मामले में कमजोर साबित होती दिखती है. इतना ही नहीं ऐसे मौके भी आते हैं जब वह कानून एवं संविधान के बजाय अचानक जनता की ‘सामूहिक भावनाओं’ की बात करने लगती है. ‘निर्भया प्रसंग’ को ही देखें, जिनमें सभी बलात्कारियों को सज़ा-ए-मौत सुनाई गई है. इसने जहां मौत की सज़ा पर वाजिब बहस खड़ी की है, वहीं उच्च न्यायपालिका की टिप्पणियां भी कम विवादास्पद नहीं रही हैं जिसमें उसने बताया कि किस तरह इस विशिष्ट मामले ने जनता की सामूहिक भावनाओं को आंदोलित किया. टीएम कृष्णन अपने एक लेख में पूछते हैं:
…दरअसल सामूहिक विवेक का प्रगटीकरण न्यायाधीश के व्यक्तिगत विवेक के माध्यम से होता है. इसलिए, जब जज महोदय इस शब्दावली का इस्तेमाल करते होते हैं, तो वह वाकई में उनके अपने नज़रिये को अभिव्यक्ति दे रहे होते हैं या उन्होंने अपने ऊपर यह जिम्मा लिया होता है कि वह तय करें कि ‘‘सामूहिक विवेक’’ किसे कहा जाए. यह दोनों दृष्टिकोण पूरी तरह स्वनिर्मित होते हैं. हमारा संविधान सबसे वंचित, उत्पीड़ित, उपेक्षित, अनदेखे, अनपहचाने व्यक्ति के लिए न्याय के सिद्धांत पर आधारित है. इस बात का यह तकाजा है कि कानून को जनता के मूड या उसके अपने बारे में किसी भ्रम से प्रभावित नहीं होना चाहिए…
‘अगर हम सचेत नहीं रहे तो भारत आसानी से ‘हिंदू पाकिस्तान’ बन जाएगा’
हालात ऐसे बने हैं कि कमजोर संसदीय विपक्ष – जो धर्मनिरपेक्षता की हिफाजत के लिए या संवैधानिक सिद्धांतों की रक्षा के लिए कोई मजबूत संघर्ष नहीं कर पा रहा – और परिवर्तनकामी सामाजिक राजनीतिक आंदोलनों की कमजोरी के चलते भारत की छवि अपने ‘चिरवैरी’ पड़ोसी मुल्क की तरह दिखने लगी है.
आज़ाद भारत के पहले वज़ीरे आज़म जवाहरलाल नेहरू ने बंटवारे के उथल पुथल भरे दिनों में सही भविष्यवाणी की थी कि अगर हम सचेत नहीं रहे तो भारत आसानी से ‘हिंदू पाकिस्तान’ बन जाएगा. जबकि सरहद इस पार आक्रामक झुंड कहीं गाय के नाम पर या कहीं लव जिहाद के नाम पर या ऐसे ही अन्य भावनात्मक मुददों को केंद्र में रख कर हिंसा फैला रहे हैं या हत्याओं को अंजाम दे रहे हैं, सरहद उस पार यही सिलसिला ईशनिंदा के नाम पर जारी है.
अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब खैबर पख्तूनवा के मरदान स्थित खान अब्दुल वली खान विश्वविद्यालय में मशाल खान नामक पत्रकारिता के छात्र को ईशनिंदा के नाम पर उसके कालेज के सहपाठियों ने निर्वस्त्र करके पीटा था और बाद में उसके सीने तथा सर में गोली उतार दी थी. चे ग्वेरा और मार्क्स की बात करने वाला मशाल खान बेहद प्रतिभाशाली छात्र था और धर्म की तरफ आलोचनात्मक नज़रिया रखता था. हमलावरों ने न केवल उस पूरे हमले की विडियो रेकार्डिग की बल्कि उसे सोशल मीडिया पर भी साझा किया.
निःसंंदेह संविधान के बुनियादी ढांचे को अभी कोई प्रत्यक्ष चोट नहीं पहुंची है, उसका औपचारिक ढांचा दुरुस्त है, न्यायिक आधारों पर देखें – अर्थात संविधान के हिसाब से देखें तो भारत आज भी एक जनतंत्र है तथा गणतंत्र है मगर वास्तविकता यही है कि जनतंत्र का रफ़्ता रफ़्ता बहुसंख्यकतंत्र में रूपांतरण होता दिख रहा है और गणतंत्र का बुनियादी उसूल – कि उसके नागरिक सुप्रीम हैं, उसे भी कमज़ोर किया जा रहा है.
झुंड द्वारा हिंसा की यह परिघटना, जिसे भीड़ के न्याय के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है, वह सिलसिला महज बहुसंख्यक समुदाय तक सीमित नहीं है. वह अन्य धार्मिक समुदायों तक भी फैला है और विभिन्न तरीकों से असहमति रखने वाली आवाज़ों को कुचला जा रहा है. सूबा पंजाब में जिस तरह विगत साल दो सिख महिलाओं की मौत ‘गुरूग्रंथ साहिब की बेअदबी करने के आरोपों के तहत अलग अलग स्थानों पर एवं समय पर हुई – इत्तेफाक से दोनों का ही नाम बलविन्दर कौर था और जिस तरह तत्कालीन हुकूमत ने ऐसे मामलों में ‘जनदबाव की दुहाई’ देते हुए सज़ा की सीमा बढ़ा दी, वह इसी बात की ओर संकेत करता है. दक्षिण एशिया के इस हिस्से में सक्रिय रेडिकल इस्लामिस्ट समूह या अतिवादी बौद्ध समूह भी अपने समुदायों के अंदर ऐसी ही कार्रवाइयों में मुब्तिला दिखते हैं.
प्रश्न उठता है कि जब किसी निरपराध पर इस तरह हमला हो रहा होता है तो अगल-बगल के लोगों के मन-मस्तिष्क में क्या चल रहा होता है, जो प्रत्यक्ष उस भीड़ का हिस्सा नहीं होते हैं जो हमलावर हुई जा रही है. क्या उन्हें किसी मासूम का वेदना भरा आक्रोश सुनाई नहीं देता? क्या उन्हें वह दहाड़ें सुनाई नहीं देती जो उनके अन्य आत्मीयों की ही उम्र के लोग – भले ही वह अलग समुदाय से हों, अलग धर्म या जाति के हों, अलग नस्ल या मुल्क के हों – लगा रहे होते हैं.
मिसाल के तौर पर अभी कुछ माह पहले नोएडा तथा आसपास के इलाकों में अफ्रीकी छात्रों को निशाना बनाया गया था, अकेले पाकर उन पर हमले हुए, इन लोगों को स्थानीय लोगों द्वारा हमले का शिकार बनाया गया, बहाना बनाया कि किसी एक स्थानीय युवक की नशीली दवा के अत्यधिक सेवन से हुई मौत के लिए वही जिम्मेदार हैं, एक जाने-माने माॅल में बर्बरता से एक अकेले अफ्रीकी युवक पर भीड़ ने हमला किया तथा जिसका वीडियो भी प्रसारित किया था. और इसे अंजाम देने वाले किन्हीं अपराधी गिरोहों के मेम्बर नहीं, पढ़े-लिखे सुशिक्षित सम्पन्न परिवारों के लोग थे.
आखिर हमलों की ख़बर आती है, पुलिस की अकर्मण्यता की या उसकी मिलीभगत की ख़बर भी आती है, मगर ऐसी खबर शायद ही आती है कि इन हमलावरों के उठे हाथों को पकड़ने के लिए कोई हाथ उठे हों. यह एक विचित्र बायनरी हमारे सामने उपस्थित की गई है कि या तो हमलावर है या आप पीड़ितों या हमले का शिकार में से कोई हो सकते हैं.
मुमकिन है कि दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र का तमगा लगा कर घूमने वाले यहां के लोगों में दूसरे जन के अधिकारों का सम्मान तो दूर रहा, उसके प्रति नफरत एवं घृणा का भाव इस कदर मौजूद है कि वह हर किस्म की हिंसा को अपने मौन से औचित्य प्रदान कर सकते हैं. संविधान सभा में (17 दिसंबर, 1948) डॉ. अंबेडकर ने शायद इसी की व्याख्या करते हुए कहा था कि ‘भारतीय समाज में ‘हम’ और ‘वे’ का यह सिलसिला इतना जड़मूल है कि अन्यीकरण की यह प्रक्रिया ‘अश्वेत’ बनाम भूरे के बीच ही नहीं, बल्कि सवर्ण बनाम दलित, पिछड़े बनाम अगड़े, बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक आदि विभिन्न स्तरों पर प्रगट होती देखी जा सकती है. यहां इस किस्म का नैतिक सापेक्षतावाद मौजूद है कि कुछ भी गलत नहीं है.
भारतीयों का विराट मौन बनाम दो अमेरिकी
अपने जैसे किसी मनुष्य पर होते हमले के वक्त भारतीयों के इस विराट मौन के बरअक्स हम अमेरिका की दो हालिया घटनाओं पर गौर कर सकते हैं, जब नस्ल के नाम पर, धर्म के नाम पर, भीड़ में से कोई आततायी अचानक हमलावर बन गया था तब उसी भीड़ में से किसी ने हमलावर को रोकने की कोशिश की थी, श्रीनिवास कुचिबोटला नामक भारतीय को बचाने में एक श्वेत जख़्मी हुआ था तो दूसरी एक घटना में दो श्वेत मार दिए गए थे और एक बुरी तरह जख़्मी हुआ था.
26 मई की एक घटना में जब पोर्टलैंड की लाइट रेल ट्रेन में अचानक एक श्वेत आतंकी ने ट्रेन में यात्रा कर रही दो युवतियों को देखते हुए नफरत भरी गालियां देना शुरू किया – जिनमें से एक महिला ने हिजाब पहना था – तब ट्रेन में ही साथ सफर कर रहे लोगों ने उसे रोकने की कोशिश की थी तब जेरेमी जोसेफ क्रिश्चन नामक उस आततायी ने अपने छुरे से उन पर हमला किया था और इस हमले में 53 वर्षीय रिकी जाॅन बेस्ट मारे गए थे जबकि तीसरा व्यक्ति 21 वर्षीय मिका फलेचर जख़्मी हुआ था.
उसके पहले 23 फरवरी को श्रीनिवास कुचीबोटला नामक भारतीय मूल के शख्स को बचाने में – जो ओलाथे के गार्मिन मुख्यालय में कार्यरत थे – इयान ग्रिलाॅट नामक शख्स घायल हुआ था. मालूम हो कि ओलाथ के किसी रेस्तरां में श्रीनिवास अपने सहयोगी आलोक मदासानी के साथ बैठे थे तब अचानक एडम पुरिन्टन नामक व्यक्ति ने यह कहते हुए उन पर गोलियां चलाई थीं कि ‘हमारे देश से निकल जाओ.’
जब ‘असली अमेरिकी नायक’ कहते हुए बाद में भारतीय अमेरिकियों द्वारा इयान को सम्मानित किया जा रहा था, तब इंडिया हाउस में दिया गया इयान का वक्तव्य बहुत कुछ कहता है: ‘मुझे मालूम नहीं कि अगर मैंने हत्यारे को रोकने की कोशिश नहीं की होती तो क्या मैं आगे की जिंदगी सुकून से जी पाता, क्या मुझे यह अपराधबोध नहीं सताता कि मैंने एक मासूम को बचाने के बजाय अपनी जान बचाना अधिक ज़रूरी समझा.’
क्या अपने आप को भारत की महान संस्कृति का वारिस बताने वाले किसी भारतीय के मन में – जो अपने आप को सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति प्रमाणित करने में मुब्तिला रहते हैं – ऐसी कोई भावना उछाल मारती है, जब उनके अगल-बगल में किसी मासूम पर हमला हो रहा होता है? निश्चित ही नहीं! शायद वह ‘महानता के इस छद्म-आख्यान’ से इस क़दर अभिभूत रहता है कि कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं महसूस करता और अपनी चमड़ी में अपने आप को बचाने में ही सुकून हासिल करता रहता है.