कोरोना वायरस की वजह से देश में बीते 25 मार्च से लागू लॉकडाउन की वजह से उत्तराखंड का पर्यटन उद्योग बुरी तरह से प्रभावित हुआ है. आजीविका के लिए पर्यटन से जुड़े लोगों का कारोबार चौपट हो गया है.
उत्तराखंड की कुल जीडीपी में पर्यटन क्षेत्र की हिस्सेदारी 13.5 फीसदी है, लेकिन पहले सरकारी उपेक्षा के बाद अब कोरोना संकट ने इस पर निर्भर लोगों की मुश्किलों को पहाड़ सा बना दिया है
बीते हफ्ते एक उच्चस्तरीय कमेटी ने उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए अपनी अतंरिम रिपोर्ट मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को सौंप दी है.
इंदु कुमार पांडेय की अध्यक्षता वाली इस कमेटी ने कोरोना वायरस के चलते डगमगाती अर्थव्यवस्था को फिर से चलाने के लिए अल्पकालीन और दीर्घकालीन योजना बनाने की सिफारिश की.
साथ ही कमेटी की ओर से कहा गया है कि लॉकडाउन के चलते राज्य का पर्यटन क्षेत्र विशेष रूप से प्रभावित हुआ है और इस पर ध्यान देने की जरूरत है.
उत्तराखंड की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपनी आजीविका के लिए पर्यटकों पर निर्भर हैं. लेकिन इस साल ‘पीक सीजन’ (अप्रैल और मई का महीना जब पर्यटन अधिक संख्या में पहुंचते हैं) के शुरू होने से पहले ही कोरोना संकट के चलते इनका काम धंधा-चौपट हो गया है.
वहीं, राज्य के संस्कृति और पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज ने बताया कि इस वैश्विक महामारी के चलते इस साल चार धाम की यात्रा भी रद्द कर दी गई हैं.
माना जा रहा है कि कोरोना संकट से पूरी तरह उबरने से पहले राज्य में पर्यटन का ‘पीक सीजन’ सीजन खत्म हो जाएगा.
आम तौर पर राज्य में मानसून का प्रवेश जून महीने के आखिरी हफ्ते में हो जाता है. इसके बाद ‘देव भूमि’ कहे जाने वाले राज्य में पर्यटन से जुड़ी गतिविधियां करीब-करीब बंद हो जाती हैं. यानी राज्य में पर्यटन पर निर्भर लोगों के लिए स्थितियां सामान्य होने में कई महीने लग जाएंगे.
अगर ऐसा होता है तो यह राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए भी ये एक बड़ा झटका साबित हो सकता है.
दिसंबर, 2018 में प्रकाशित ‘ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट ऑफ स्टेट ऑफ उत्तराखंड’ की मानें तो उत्तराखंड के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में पर्यटन क्षेत्र की हिस्सेदारी 13.57 फीसदी है.
यह आंकड़ा राष्ट्रीय स्तर (सात फीसदी) से दोगुना है. लेकिन इस रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में पर्यटन क्षेत्र सरकारों की उपेक्षा का लगातार शिकार हुई है.
साल 2004-05 में जहां इस पर कुल जीडीपी का 0.67 फीसदी खर्च किया गया था. वहीं साल 2017-18 में यह घटकर केवल 0.28 फीसदी रह गया. इसका असर राज्य में पर्यटन पर निर्भर रहने वाले लोगों की स्थिति पर भी दिखता है.
प्राकृतिक या अन्य आपदाओं के चलते जब इन पर मुसीबत का पहाड़ टूटता है तो सरकारी मदद के अभाव में इनकी जिंदगी बिखर सी जाती है. कोरोना संकट के दौरान भी इनके साथ ऐसा ही हो रहा है.
करीब 40 साल के ज्ञान सिंह बिष्ट नैनीताल में नौका चलाने का काम करते हैं. पिछले साल तक अप्रैल-मई के महीने में उनकी प्रतिदिन औसत कमाई करीब 1200 रुपये होती है. लेकिन, डेढ़ महीने से वे घर पर खाली बैठे हैं और सरकार की ओर से भी उन्हें कोई मदद नहीं मिल रही है.
ज्ञान सिंह बिष्ट फोन पर बातचीत में कहा, ‘हमारा काम बिलकुल बंद है. इसके चलते अभी खाली बैठे हैं. घर का खर्च भी दूसरों से मदद मांग कर चल रहा है. हमारे यूनियन वालों ने बैंक अकाउंट का डिटेल भी लिया और कहा कि इसमें पैसे आएंगे. लेकिन पैसे तो अब तक नहीं आए.’
उन्हें सरकार की ओर से मुफ्त राशन भी नहीं मिल पा रहा है. ज्ञान का पैतृक गांव अल्मोड़ा जिले में है. नैनीताल में वे किराये के मकान में रहते हैं और उनका राशन कार्ड भी नहीं बना है.
ऐसी स्थिति नैनीताल में ज्ञान सिंह जैसे लोगों की ही नहीं है, बल्कि अन्य पर्यटन गतिविधियों से जुड़े दूसरे लोगों की भी है.
नैनीताल से करीब 30 किलोमीटर दूर स्थित भीमताल में पर्यटकों को पैराग्लाइडिंग कराकर अपनी रोजमर्रा की जरूरतें पूरा करने वाले कंचन सिंह की स्थिति और भी खराब है.
बीते डेढ़ महीने से खाली बैठे कंचन को अपना घर चलाने के लिए अपनी पत्नी के गहने बेचने पड़े हैं. इसके बावजूद उनकी आर्थिक परेशानियां कम होने का नाम नहीं ले रही हैं.
वे बताते हैं, ‘स्कूल की ओर से बच्चों के एडमिशन और किताबों को खरीदने के लिए लगातार दबाव डाला जा रहा है. लेकिन पैसे न होने के चलते अब तक कुछ नहीं कर पाया हूं. लॉकडाउन के समय फीस न वसूलने के सरकारी निर्देशों को भी स्कूल वाले नहीं मान रहे हैं. ऑनलाइन पढ़ाई के नाम पर केवल वॉट्सऐप पर होमवर्क भेज दिया जाता है.’
कंचन सिंह बताते हैं कि उनके सहित अन्य साथियों (चार लोग) पर कुल आठ लाख रुपये का कर्ज है. इसके लिए 6,000 रुपये हर महीने किस्त चुकाना होता है. उन्होंने आखिरी किस्त मार्च महीने में भरा था.
उनके मुताबिक, कर्ज लेने के लिए भी उन्हें प्राइवेट बैंक की ओर ही देखना पड़ा. उन्होंने कहा, ‘मैंने मुद्रा योजना के तहत लोन के लिए स्टेट बैंक (एसबीआई) में अप्लाई किया था लेकिन उसने गारंटर न होने का हवाला देकर लोन देने से मना कर दिया.’
लॉकडाउन के बाद कंचन सिंह भीमताल से पांच किलोमीटर दूर अपने गांव में हैं और थोड़ी सी जमीन पर खेती कर रहे है.
वे कहते हैं, ‘हमारे पास इतनी भी जमीन नहीं है जिससे सालभर के लिए अनाज भी पैदा कर सकूं. अनाज भी खरीदकर खाना होता है. राशन कार्ड न होने से सरकारी राशन भी नहीं मिलता है.’
कंचन बताते हैं कि पिछले पांच वर्षों से राशन कार्ड बनाने के लिए सरकारी बाबुओं के चक्कर लगा रहे हैं लेकिन उनका काम अब तक नहीं हो पाया है.
कंचन से हमारी पिछली बातचीत बीते फरवरी में भी हुई थी. उस वक्त भी उनका काम मंदा ही चल रहा था. लेकिन उन्होंने उम्मीद जताई थी कि एक महीने के बाद ‘पीक सीजन’ शुरू होने पर कुछ पैसे कमा लेंगे. लेकिन, इस साल उनकी इस उम्मीद पर कोरोना वायरस का ग्रहण लग गया.
नौका चालक और पैराग्लाइडिंग कराने वालों के अलावा कैब वालों की मुश्किलें भी लॉकडाउन ने बढ़ा दी हैं. आप सभी को पिछली गर्मी का वह दृश्य याद होगा, जिसमें नैनीताल से काठगोदाम तक 30 किलोमीटर से अधिक लंबी गाड़ियों का कतार दिखी थी.
बताया जाता है कि अप्रैल-मई के दौरान पहाड़ों की ओर बड़ी संख्या में पर्यटक आते हैं और राज्य में कैब वालों की कमाई की बड़ा हिस्सा इनसे ही आता है, लेकिन कोरोना वायरस ने इस साल इनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है.
सिंह ट्रेवल्स संचालक कंवलप्रीत सिंह नागपाल इनमें से एक हैं. वे नैनीताल से दिल्ली तक पर्यटकों को अपनी सेवा मुहैया कराते हैं, लेकिन यह साल उनके लिए बहुत बुरा रहा है.
फोन पर बातचीत में वे बताते हैं, ‘पहले पीक सीजन में सारे खर्च निकालकर 20,000 रुपये महीने के बच जाते थे, लेकिन अभी कमाई जीरो है और गाड़ी की किस्त भी प्रत्येक महीने 10,000 रुपये चुकानी होती है.’
कंवलप्रीत के पास पहले की जमा-पूंजी है, जिससे वे तालाबंदी में अपने परिवार का गुजर-बसर कर रहे हैं, लेकिन आने वाले दिनों को लेकर वे आशंकित भी दिखते हैं. वे कहते हैं कि बरसात के दिनों में काम न के बराबर ही होता है.
लॉकडाउन के चलते होटल और रेस्टोरेंट के कारोबार पर भी काफी बुरा असर हुआ है. इनमें बड़े-बड़े कारोबारियों के साथ महिलाओं की स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) भी शामिल हैं.
नैनीताल स्थित इंदिरा अम्मा भोजनालय भी इनमें से एक है. इसे आठ महिलाओं का समूह-एकता ग्रुप चला रहा है. इस भोजनालय में लोगों को कम कीमत में भोजन उपलब्ध करवाया जाता है. इसके बदले सरकार प्रति थाली 10 रुपये की सब्सिडी देती है. ग्राहकों को एक थाली के लिए 25 रुपये चुकाना होता है.
इस भोजनालय की पूर्व संचालिका और सामाजिक कार्यकर्ता मंजू बिष्ट बताती हैं, ‘लॉकडाउन होने से भोजनालय बंद है. इसका सीधा असर इसका संचालन करने वाली महिलाओं की आजीविका पर पड़ा है.’
ममता देवी इन महिलाओं में से एक हैं. वे हमें बताती हैं, ‘मेरे पति दिहाड़ी मजदूरी करते हैं. अब उनके पास भी कोई काम न हीं हैं और मेरे पास भी. पहले की कमाई से जो पैसे बचाए थे, उससे ही अभी घर चल रहा है. सरकार की ओर से भी मुफ्त राशन नहीं मिल पा रहा है.’
ममता देवी के पास पीला राशन कार्ड (गरीबी रेखा से ऊपर एपीएल परिवारों के लिए) है. वे कहती हैं कि स्थानीय सरकारी राशन की दुकान पर कहा गया कि पीले राशन कार्ड वालों को मुफ्त राशन नहीं दिया जा रहा है.
वे आगे कहती हैं कि गर्मी के दिनों में पर्यटकों की अधिक संख्या होने के चलते प्रतिदिन 700 थाली बिक जाती है, लेकिन बरसात के दिनों में यह घटकर 60-70 थाली ही रह जाता है.
ममता बताती हैं कि इस साल फरवरी तक की सरकारी सब्सिडी हमें मिल गई थी, लेकिन मार्च महीने का अब तक बकाया है. वहीं, उन्हें सरकार की ओर से अब तक किसी तरह की मदद नहीं मिल पाई है. आने वाले दिनों को लेकर सवाल पूछने पर वे चुप्पी साध लेती हैं.
उधर, उत्तराखंड की त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्था को किस तरह पटरी पर लाएगी, इसका कोई रोडमैप अब तक पेश नहीं कर पाई हैं. केवल एक कमेटी गठित की गई और इसकी अंतरिम रिपोर्ट ही तैयार हो पाई है.
राज्य के पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज का कहना है कि आने वाले दिनों में पर्यटन से जुड़ी गतिविधियों को चालू करने के लिए ‘दो गज की दूरी’ सहित अन्य नियमों का पालन किया जाएगा. उन्होंने बताया कि राज्य सरकार इस क्षेत्र में होने वाले नुकसान का आकलन कर रही है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)