उत्तर प्रदेश सरकार ने लॉकडाउन के दौरान दूसरे राज्यों से वापस लौटे श्रमिकों को काम देने की बात कही है, लेकिन उसके नए श्रम क़ानून यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि प्रदेश के मज़दूर वह न्यूनतम वेतन भी न पा सकें, जिससे वे अपने लिए एक न्यूनतम संसाधनों वाली ज़िंदगी बनाए रख सके.
समाचार पत्रों की सुर्खियों में उत्तर प्रदेश की खबरें अक्सर छाई रहती हैं. दुर्भाग्यवश ज़्यादातर यह बुरी खबरें ही होती हैं. कानून को लागू करने का अर्थ योगी आदित्यनाथ के लिए न्याय को सुनिश्चित करना नहीं बल्कि उन अपराधों के लिए लोगों को सख्ती से दंडित करना है जिसके लिए उनकी सरकार उन्हें दोषी ठहरती है.
कोविड-19 के लॉकडाउन के दौरान केंद्र और अन्य सरकारों की तरह योगी सरकार ने भी संकट की स्थिति का इस्तेमाल दंडनीय कदम उठाने और कठोर नियम कानून पारित करने के लिए किया है. निश्चित तौर पर ऐसा करने में ‘संकट’ की स्थिति उनके कदमों को औचित्य प्रदान करती है.
यही नहीं, लॉकडाउन के चलते उनकी कार्यवाहियों के खिलाफ सार्वजनिक विरोध की गुंजाइश नहीं है और प्रतिरोध के प्रयास भी बहुत सीमित हैं. सरकार के गुस्से के निशाने पर अल्पसंख्यक समुदाय तो लगातार रहा ही है- उसके 300 से अधिक सदस्य कोरोना वायरस को फैलाने के जुर्म मे जेल भेज दिये गए हैं.
महामारी और स्वास्थ्य व्यवस्था संबंधित जिन नियम-कानून को सरकार इतनी सख्ती से लागू कर रही थी, अब उनको संशोधित करके और भी कठोर बनाया गया है. उनका उल्लंघन करने वालों के लिए लंबी सज़ा और आजीवन कारावास तक की सज़ा का इंतजाम किया गया है.
यही नहीं, जब भी दलित कार्यकर्ताओं ने अपने अधिकारों के पक्ष मे आंदोलन किया सरकार ने उनके विरुद्ध भी बहुत कड़ा और सख्त रुख अख्तियार किया है. जब सर्वोच्च न्यायालय के एससी/एसटी एक्ट को निष्प्रभावी बनाने के फैसले के विरुद्ध दलितों ने ज़बरदस्त आंदोलन किया, तो नाबालिग दलित बच्चों को भी बेरहमी के साथ जेलों मे बंद कर दिया गया था.
अब योगी सरकार का मजदूर विरोधी चेहरा स्पष्ट दिखाई देने लगा है. पहली मई यानी मजदूर दिवस दुनिया भर के मजदूरों के लिए अपने पुरखों की शहादत से हासिल जीतों को याद करने और मनाने का दिन है.
उसी मई दिवस के तुरंत बाद योगी सरकार ने दो अध्यादेशों को ताबड़तोड़ पारित करके वह सब कुछ छीनने का प्रयास किया, जो मजदूरों ने इतने संघर्ष के बाद पाया था.
8 मई का आदेश प्रमुख सचिव, उत्तर प्रदेश शासन द्वारा पारित किया गया. उसके माध्यम से बड़े ही तिकड़मी ढंग से काम के 8 घंटे के प्रावधान को समाप्त कर दिया गया.
आदेश के मुताबिक, 20 अप्रैल से 19 जुलाई के मध्य नए नियम उत्तर प्रदेश के तमाम कारखानों में लागू रहंगे. 3 पैरा का यह आदेश कहीं नहीं कहता कि 8 घंटे के काम का दिन समाप्त किया जा रहा है. वह कहता है कि किसी भी श्रमिक से एक दिन मे 12 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जाएगा.
अतिरिक्त 4 घंटों के लिए उसे सिंगल वेतन ही दिया जाएगा यानी अगर उसका दैनिक वेतन 80/- है तो उसे 120/- ही दिये जाएंगे. बिना कुछ कहे सरकार ने बड़ी चालाकी से 12 घंटे काम का नियम बना दिया और ओवर टाइम का कानून समाप्त कर दिया.
इसके बाद 15 मई को ‘वर्कर्स फ्रंट’ के नेता दिनकर कपूर ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय मे इस आदेश को चुनौती दी. मुख्य न्यायधीश महोदय ने सुनवाई की और सरकार को जवाब के लिए लंबी अवधि देने से इनकार करते हुए 18 तारीख को अगली सुनवाई रखी.
इस बीच सरकार 15 तारीख की शाम को ही एक नया आदेश जारी किया और अपने पुराने आदेश को निरस्त कर दिया. निश्चित तौर पर यह राज्य के मजदूर आंदोलन के लिए बड़ी जीत थी.
लेकिन उसके लिए अभी और बड़े संघर्ष हैं क्योंकि राज्य सरकार ने एक अन्य अध्यादेश के माध्यम से उनके अधिकारों और संवैधानिक स्थापनाओं पर जबरदस्त कुठाराघात किया है.
6 मई को ही उत्तर प्रदेश के मंत्रिमंडल ने एक अध्यादेश का मसौदा पारित किया था, जिसमें 38 में से 35 श्रम कानूनों का क्रियान्वयन तीन साल के लिए निलंबित कर दिया गया. इसके पक्ष में यह कहा गया कि कोविड-19 का उद्योगों और श्रमिकों, दोनों पर ही बहुत विपरीत असर पड़ा है और इससे निबटने के लिए यह कदम ज़रूरी है.
केवल निर्माण मजदूर कानून, 1966, श्रमिक कंपनसेशन कानून, 1923, बंधुआ मजदूर निरस्तीकरण कानून 1976 और महिला और बाल श्रमिकों से संबंधित कानूनों को सुरक्षित रखा गया.
बाकी तमाम कानूनों, जो श्रमिकों को कुछ अधिकार और सुरक्षा प्रदान करते थे, उन्हें तीन साल के लिए निष्प्रभावी बना दिया गया. इनमें न्यूनतम वेतन का कानून है, श्रमिकों के स्वास्थ्य और सुरक्षा से संबंधित कानून भी हैं.
ऐसे दौर में जब काम की जगह को साफ-सुथरा, सैनीटाइज रखने और श्रमिकों के बीच दूरी बनाए रखने के नियम कोरोना से लड़ने के लिए आवश्यक समझे जा रहे हैं, ठीक इन्हीं बातों को कारखानों में लागू करना अनावश्यक समझा जा रहा है. मालिकों पर इनको लागू करने की ज़िम्मेदारी बिल्कुल ही समाप्त कर दी गई है.
इस दौरान कुछ लोग यह कहते सुने गए हैं कि वैसे भी श्रम कानूनों का तो उल्लंघन ही होता है! यह उसी तरह की बात है कि जब लोगों की हत्या हो ही रही है, तो फिर जीने के अधिकार के संरक्षण कानून की क्या आवश्यकता है!
मंत्रिमंडल द्वारा पारित होने के बाद यह मसौदा श्रम और न्याय विभागों के पास भेजा गया. विश्वसनीय स्रोतों से जानकारी मिली है कि इन विभागों को इस बात का संकेत दिया गया कि चूंकि इस अध्यादेश के जरिये केंद्रीय कानूनों मे फेरबदल किया जा रहा है, तो शायद यह कानून की नज़रों मे टिक नहीं पाएगा.
यह भी पता चला है कि केंद्र सरकार से भी इस तरह की टिप्पणी की गई थी. इसके फलस्वरूप उत्तर प्रदेश सरकार ने इस तरह के रोड़ों से बचने के लिए अपने अध्यादेश को संशोधित कर दिया और कहा कि वह केवल नए उद्योगों और उनके श्रमिकों और पुराने उद्योगों के नए श्रमिकों पर लागू किया जाएगा.
अब इस संशोषित अध्यादेश को राज्यपाल द्वारा स्वीकृति प्राप्त हो गई है और उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा गया है क्योंकि इसके द्वारा केंद्रीय कानून में परिवर्तन किया जा रहा है.
समस्त ट्रेड यूनियनों ने इस अध्यादेश का कड़ा विरोध किया है. यहां तक कि भाजपा की करीबी भारतीय मजदूर संघ ने भी इस पर अपना विरोध जताया है और कहा है कि वह 20 तारीख को इसके खिलाफ प्रदर्शन आयोजित करेगा.
अन्य केंद्रीय ट्रेड संगठनों जिसमे सीटू, एटक इत्यादि शामिल हैं, ने इस अध्यादेश के खिलाफ 22 मई को विरोध प्रदर्शन का ऐलान किया है. इसी दिन दिल्ली में राजघाट पर भी धरना दिया जाएगा. उम्मीद है कि राष्ट्रपति महोदय परिपक्व न्यायिक विशेषज्ञों से सलाह लेंगे और इस अध्यादेश स्वीकृति नही देंगे.
स्क्रॉल में छपे एक लेख के अनुसार मद्रास उच्च न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश के. चंद्रू, जो स्वयं श्रम कानून के विशेषज्ञ हैं, ने कहा है कि तमाम श्रम कानूनों का निलंबन बुनियादी अधिकारों और संविधान में दर्ज राजकीय नीतियों के निर्देशक सिद्धांतों का गंभीर उल्लंघन है.
मजदूरों के जीवन की सच्चाई पिछले कुछ हफ्तों मे हमारे आंखों के सामने बहुत ही मार्मिक तरीके से सामने आई है. जब से लॉकडाउन शुरू हुआ है, एक न खत्म होने वाली त्रासदी हमारी नज़रों के सामने से गुज़र रही है.
लाखों बेज़ार मजदूर विवश होकर अपने घरों की तरफ लौटने के लिए मजबूर हैं क्योंकि केंद्र सरकार और उनके मालिकों के किए वादे पूरे नहीं हुए हैं. लंबी-लंबी कतारों में दिन भर खड़े होने के बाद भी उन्हें राशन नही मिला है.
उनको वेतन भी नहीं मिला है. कमाया हुआ वेतन भी सरकार उन्हें नहीं दिला पाई है, इसलिए वे सैकड़ों-हजारों किलोमीटर का सफर तय करने निकल पड़े हैं… पैदल, साइकिल, ठेलों, ट्रकों, ट्रालियों पर… 300 से अधिक रास्ते में ही मर चुके हैं लेकिन मौत का डर भी उन्हें रोकने मे नाकाम है.
इनमें से कई लाख उत्तर प्रदेश के गांवो में अपने घरों को लौटे हैं. उनके द्वारे सही गए असहनीय कठिनाई और दर्द को मद्देनजर रखते हुए इस बात की आशा थी कि सरकार उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार अपनाएगी, लेकिन इस अध्यादेश को देखते हुए लगता है कि सरकार किसी भी तरह के उत्पीड़न को बर्दाश्त करने की उनकी मजबूरी का पूरा फायदा उठाना चाहती है.
उत्तर प्रदेश की सरकार ने उन्हें लाखों नौकरियां देने का वादा किया है. उनसे वादा किया है कि अब उन्हें काम की तलाश में कभी अपना घर नहीं छोड़ना पड़ेगा. लेकिन उन्हें वह कैसा काम देगी?
अनियंत्रित, असुरक्षित, खतरों से भरपूर काम… ऐसा काम जो पूरी तरह से अनियमित है, जिसके बदले उन्हे न्यूनतम वेतन भी नहीं मिलेगा, वह न्यूनतम वेतन जो न्यूनतम ज़िंदगी को बनाए रखने मे भी असमर्थ है.
(सुभाषिनी अली पूर्व सांसद और माकपा की पोलित ब्यूरो सदस्य हैं.)